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(Source: ECI/ABP News/ABP Majha)

Special: कबाड़ में अपनी नज़्मों को देख साहिर होते तो कहते- 'देख लिया घर फूंक तमाशा, जान लिया अपना अंजाम'

दिग्गज शायर एवं गीतकार साहिर लुधियानवी द्वारा लिखे गए कुछ पत्र, डायरियां और नज्में मुंबई में एक कबाड़ की दुकान में मिले हैं.

Sahir Ludhianvi Special: साहिर एक ऐसे शख़्स थे जिनको बचपन की मुश्किलों ने वक्त से पहले बड़ा कर दिया, साहिर एक ऐसे शख़्स थे जिनके दिल और दिमाग पर मुल्क़ के फसाद और बंटवारे ने गहरी छाप छोड़ी, साहिर एक ऐसे शख़्स थे जिन्हें कई बार मुहब्बत हुई लेकिन हर बार मुहब्बत अधूरी रही. ज़िन्दगी के हर सहारों के निशानात जब एक के बाद एक उजड़ते गए तब वक्त और हालात ने नटखट अब्‍दुल हई को संजीदा साहिर लुधियानवी बना दिया. साहिर ने ज़िंदगी के तमाम रंगों को इस तरह से अपनाया कि फिर जो भी जिंदगी देती रही उसे साहिर स्वीकार करते रहे. हालांकि पिता का जुल्म हो, देश का बंटवारा हो या अमृता से एक खामोश इश्क़, हर बार जब साहिर का दिल दुखा तो शायर की कलम ने अपने जज्बात कागज़ पर उतार दिए और कहा..

कभी ख़ुद पे कभी हालात पे रोना आया बात निकली तो हर इक बात पे रोना आया

साहिर ने सारी उम्र इश्क पर तो खूब लिखा मगर खुद सारी जिंदगी तन्हा रहे. शायद उपर की पंक्तियां उसी तन्हाई की तस्वीर बनाती है. उर्दू अदब की महफ़िल से सिर्फ तीन हस्तियां हैं जिन्हें आंखों देखते फ़िल्मी नग्मानिगारी ने थोड़े-से अरसे में ही अपना लिया. न सिर्फ अपनाया बल्कि सर-आंखों पर बिठाया और उनका हुक्म माना. एक नाम आरज़ू लखनवी का है, दूसरा मजरूह सुल्तानपुरी का और तीसरा नाम साहिर लुधियानवी का है. साहिर उन चंद शायरों में हैं जिन्हें जितना एहतेराम अदब के मंचों पर मिला उतनी ही इज्ज़त फिल्मों में गाने लिखने पर भी.

लेकिन बड़े ही अफसोस की बात है कि जिस शायर ने अपनी कलम से हिन्दुस्तान का तालीमी और जेहनी मेयार को न सिर्फ मंचो पर बल्कि फिल्मी पर्दे पर भी बुलंद किया उसी शायर के कुछ पत्र, डायरियां और नज्में मुंबई में एक कबाड़ की दुकान में मिले हैं. एक NGO ने इन्हें 3000 रुपये में कबाड़ की दुकान से खरीद लिया है. जुहू में स्थित कबाड़ की दुकान से संग्रहित की गई इन चीजों को अब NGO प्रदर्शित करने की तैयारी में है.

इस संस्था के स्थापक शिवेंद्र सिंह डुंगरपुर ने कहा, "डायरियों में उनके रोज के कार्यक्रम जैसे कि वह गानों की रिकॉर्डिंग के लिए कहां जाएंगे और ऐसी ही कई निजी बातें लिखी हुई हैं. उनकी लिखी कई नज्में और नोट भी हैं. इन नोटों का संबंध उनके प्रकाशन संगठन 'पार्चियां' से है." शिवेंद्र ने बताया कि प्राप्त हुई चीजों में उस दौर के संगीतकार रवि, उनके कुछ दोस्त और कवि हरबंस द्वारा साहिर को लिखे गए कुछ लेटर भी शामिल हैं.

साहिर होते तो इस हालात पर खुद ही अपने शब्दों को दोहराते हुए कहते

तुम दुनिया को बेहतर समझे, मैं पागल था ख़्वार हुआ तुम को अपनाने निकला था, ख़ुद से भी बेज़ार हुआ देख लिया घर फूंक तमाशा, जान लिया अपना अंजाम मेरे साथी ख़ाली जाम

साहिर लुधियानवी की शायरी महज़ कागज़ पर लिखी हुई चंद पंक्तियां नहीं थी. साहिर लुधियानवी एक ऐसे शायर हैं जिनकी शायरी हमारी जिंदगी की जरूरत है. साहिर की शायरी कोई आम शायरी नहीं बल्कि वह जुल्मतों के खिलाफ परचम लहराने वाली शायरी है. वह मोहब्बत में असफल हुए इंसान के अकेलेपन की शायरी है. वह जज्बात, एहसासों और रूह की शायरी है. साहिर का मतलब होता है जादूगर और साहिर सचमुच शब्‍दों के जादूगर थे.

साहिर की ज़िदंगी

अब्‍दुल हई उर्फ साहिर का जन्म लुधियाना (पंजाब) में हुआ था. उनके पिता की कई पत्नियां थीं, लेकिन पुत्र सिर्फ एक था. जब साहिर मात्र आठ साल के थे तब उनके पिता ने उनकी मां को छोड़ दिया. इस घटना का साहिर पर काफी असर पड़ा. उनमें बचपन से ही भावुक और विद्रोही तेवर आ गए. हालात से जाहिर था कि साहिर को किसी न किसी कलागत विधा से जुड़ना था. उन्होंने लिखना शुरू कर दिया और लुधियाना के गवर्नमेंट कॉलेज में अपनी कविताओं से छा गए.

1945 में पहली बार उपलब्धि कविता संग्रह 'तल्खियां' छपी. इस संग्रह को उनके चाहने वालों ने हाथों हाथ लिया. वे रातों-रात देश भर में मशहूर हो गए. उर्दू के साथ-साथ हिंदी में इसके कई संस्करण प्रकाशित हुए. इसके बाद उनकी कई किताबे आईं. 'आओ कि कोई ख्वाब बुनें' साहिर लुधियानवी की वह किताब है, जिसने उन्हें शोहरत की बुलंदियों पर पहुंचा दिया. इस किताब से उन्हें अवाम की मोहब्बत भी मिली और आलोचकों से सराहना भी.

तल्खियां, परछाईयां, आओ कि कोई ख्वाब बुनें जैसी किताबों में जहां साहिर लुधियानवी की गजलें और नज्में संकलित हैं, तो गाता जाए बंजारा किताब में उनके सारे फिल्मी गीत मौजूद हैं. इन गीतों में भी गजब की शायरी है. उनके कई गीत आज भी लोगों की जबान पर चढ़े हुए हैं. खासकर उनका लिखा गीत

मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया हर फिक्र को धुएं में उड़ाता चला गाया

जब साहिर ने लिखना शुरू किया था तब फ़ैज़, फ़िराक आदि शायर अपनी बुलंदी पर थे, पर उन्होंने अपना जो विशेष लहज़ा और रुख़ अपनाया, उससे न सिर्फ उन्होंने अपनी अलग जगह बना ली, बल्कि अदब के बड़े नाम बन गए.

अमृता प्रीतम और साहिर

साहिर का मिजाज शायराना भी था और आशिकाना भी था. कागज पर इश्क उकेरना उन्हें बखूबी आता था. कभी स्याह तो कभी सुर्ख रौशनाई ने मोहब्बत में रंग भरे और उनकी जिंदगी में अमृता प्रीतम आई. दोनों के बीच प्यार के पैगामों का सिलसिला यूं चला की एक न होकर भी दोनों एक-दूसरे से जुदा न हो पाए. उनका प्यार जमाने से अलहदा था. इश्क की पहले से खिंची लकीरों से जुदा था. अधूरी मुहब्बत का ये वो मुकम्मल अफसाना है जिसकी मिसाल इश्क करने वाले आज तक देते हैं.

मुल्क़ के हालात पर भी लिखा

वक्त की मांग हो तो शायर की कलम श्रृंगार की जगह अंगार लिखने लगती हैं. साहिर ने भी अपनी कलम से जब समाजिक यथार्थ का चित्रण किया तो मुल्क की मुफलिसी लिखी, रहबरों का अन्याय लिखा, कमजोरों पर हो रहे अत्याचार पर  भी लिखा...

जरा मुल्क के रहबरों को बुलाओ ये कूचे ये गलियां ये मंजर दिखाओ जिन्हें नाज है हिंद पर उनको लाओ जिन्हें नाज है हिंद पर वो कहां हैं ?

कुछ तो खास है साहिर की शायरी में, गीतों में, गजलों में कि भूले से भी जिस किसी ने उन्हें पढा, उनके गीतों को सुना वह उनसे प्रेम करने लगा, जब 25 अक्टूबर, 1980 को साहिर हमें छोड़ कर गए तो लोगों ने यही कहा 'अभी न जाओं छोड़ कर कि दिल अभी भरा नहीं'.साहिर की शायरी को सरहदों में, जातियों में, मजहबों में या वक्त के दायरे में नहीं बांधा जा सकता. साहिर मोहब्बत की कहानी के वो किरदार हैं जो गुजर जाने के बाद भी आज तक जिंदा हैं. वह तो बाग के उस फूल की तरह हैं जो हर बार खिल जाते हैं चाहे लाख बिजलिया ही क्यों न गिरे...

हज़ार बर्क़ गिरे लाख आंधियां उट्ठें वो फूल खिल के रहेंगे जो खिलने वाले हैं

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