Same Sex Marriage Hearing: 'सेम सेक्स कपल्स के बीच होता है स्टेबल बॉन्ड, उन्हें क्यों न दिया जाए शादी का मौका', सुप्रीम कोर्ट ने कही बड़ी बात
Same Sex Marriage Hearing: याचिकाकर्ताओं की ओर से पेश हुए वरिष्ठ वकील अभिषेक मनु सिंघवी ने लंदन की कोर्ट के फैसले का जिक्र किया. उन्होंने ब्रिटेन की कोर्ट के इस फैसले को ऐतिहासिक बताया.
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Same Sex Marriage Hearing: 'हम ब्रिटेन के सुप्रीम कोर्ट की ओर से दिए गए निर्णायक फैसले को आधार बना सकते हैं. समलैंगिक जोड़ों को अधिकार देने के लिए विशेष विवाह अधिनियम (स्पेशल मैरिज एक्ट) की रचनात्मक व्याख्या कर सकते हैं. जो पहले से ही स्टेबल बॉन्ड में शादी जैसे रिश्तों में रह रहे हैं.' ये बात समलैंगिक विवाह को लेकर सुप्रीम कोर्ट में चल रही सुनवाई के दौरान गुरुवार (20 अप्रैल) को पीठ की ओर से कही गईं.
दरअसल, समलैंगिक विवाह को कानूनी रूप देने के लिए दाखिल की गई याचिकाओं की ओर से पेश होने वाले वरिष्ठ वकील अभिषेक मनु सिंघवी ने दलील में लंदन कोर्ट के 2004 में दिए गए फैसले का जिक्र किया. उन्होंने इससे जुड़े मामले का हवाला देते हुए कहा कि राज्य किसी भी हाल में विषमलिंगी (हेट्रोसेक्सुअल) और समलैंगिक (होमोसेक्सुअल) जोड़ों के बीच भेदभाव नहीं कर सकता है. भले ही मामला किरायेदारी विवाद का था.
अभिषेक मनु सिंघवी ने दी क्या दलील?
लंदन की कोर्ट के फैसले को आधार बनाते हुए वरिष्ठ वकील अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा कि "ब्रिटेन की सर्वोच्च अदालत ने कहा था कि जो सबसे ज्यादा मायने रखता है, वह है शादी जैसी अंतरंगता, स्थिरता (स्टेबिलिटी) और सामाजिक और वित्तीय अंतर-निर्भरता. समलैंगिक संबंधों में अंतरंगता, स्थिरता और अंतर-निर्भरता के वही गुण हो सकते हैं,जो विषमलैंगिक संबंधों में होते हैं." उन्होंने कहा कि ब्रिटेन की कोर्ट का ये फैसला मील का पत्थर साबित हुआ और समलैंगिक लोगों के अधिकारों के लिए जाना गया.
सिंघवी ने कहा कि याचिकाकर्ता सुप्रीम कोर्ट से केवल एक फैसला चाहते हैं कि भारतीय संविधान के तहत मिलने वाला समानता का अधिकार समलैंगिक जोड़ों को भी मिले. समलैंगिक जोड़ों को शादी करने से रोका न जा सके और उन्हें वही अधिकार मिलें, जो अन्य जोड़ों को मिलते हैं.
सहमत नजर आया सुप्रीम कोर्ट
याचिकाकर्ताओं की ओर से दी गई इस दलील से सुप्रीम कोर्ट सहमत नजर आया. चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया (सीजेआई) डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस एसके कौल, जस्टिस एसआर भट, जस्टिस हिमा कोहली और पीएस नरसिम्हा की बेंच ने कहा कि भारत को संवैधानिक और सामाजिक रूप से देखते हुए हम पहले ही मध्यवर्ती चरण में पहुंच चुके हैं. समलैंगिकता को अपराध न मानना मध्यवर्ती चरण को दर्शाता है. समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर करना ही इस बात पर विचार करता है कि समान लिंग के लोग एक स्थिर, विवाह जैसे रिश्ते में हो सकते हैं.
पीठ की ओर से कहा गया कि जिस समय हमने आईपीसी की धारा 377 को अपराध की श्रेणी से बाहर किया. हमने एक पड़ाव पार कर लिया. अब अगला सवाल है कि क्या कोई कानून सिर्फ शादी जैसे रिश्ते को ही नहीं, बल्कि भावनात्मक रूप से स्थिर रिश्तों को भी मान्यता दे सकता है.
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