देश को आजाद कराने में कई स्वतंत्रता सेनानियों का हाथ है, जिन्होंने आजादी के लिए अपने प्राणों की आहूति दे दी. इनमें कई नाम ऐसे हैं, जो इतिहास में ढूंढने पर भी नहीं मिलते. ऐसी ही दो वीरांगनाएं थीं शांति घोष और सुनिती चौधरी, जिन्हें ब्रिटिश शासक और कोमिल्ला जिले के मजिस्ट्रेट चार्ल्स जेफ्री बकलैंड स्टीवंस को मौत के घाट उतारने की जिम्मेदारी दी गई और इस काम को बड़ी चतुराई से उन्होंने अंजाम दिया.
ब्रिटिश अफसर को मार कर शांति और सुनीति ने भगत सिंह और उनके साथियों की फांसी का बदला लिया था. उस समय दोनों की उम्र सिर्फ 16 साल थी. शांति घोष की बुधवार (22 नवंबर) को जयंती है. आज उनके जन्मदिवस पर स्वतंत्रता आंदोलन में उनके योगदान और जीवन से जुड़ी रोचक बातों के बारे में जान लेते हैं-
पिता थे राष्ट्रवादी, बचपन से ही रहा देशभक्ति की तरफ रुझान
शांति घोष का जन्म 22 नवंबर, 1916 को पश्चिम बंगाल के कोलकाता में हुआ था. उनके पिता का नाम देवेंद्र नाथ घोष था, जो प्रोफेसर और राष्ट्रवादी थे इसलिए शांति घोष पर बचपन से ही राष्ट्रभक्ति का प्रभाव था. वह बचपन से ही क्रांतिकारियों के बारे में पढ़ा करती थीं इसलिए उनका रुझान स्वतंत्रता आंदोलन की तरफ बढ़ने लगा. एक छात्र सम्मेलन ने शांति को देश के लिए की जानी वाली गतिविधियों के लिए ऊर्जा दी.
युगांतर पार्टी के जरिए स्वतंत्रता आंदोलन गतिविधियों में शामिल हो गईं
स्वतंत्रता सेनानियों की तरफ अपने रुझान के चलते शांति घोष अपनी सहपाठी प्रफुल्ल नलिनी के संपर्क में आईं, जो स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ी गितिविधियों में सक्रिय रहती थीं. प्रफुल्ल नलिनी के जरिए ही शांति घोष क्रांतिकारी संगठन 'युगांतर पार्टी' में शामिल हो गईं. यहां उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन के लिए जरूरी प्रशिक्षण भी लिया. शांति की देशभक्ति और देश के प्रति प्रेम को देखते हुए संगठन से जुड़ने के कुछ समय बाद ही खुद को समर्पित करने का मौका मिला.
चार्ल्स स्टीवंस को कैसे उतारा मौत के घाट
त्रिपुरा के कोमिल्ला जिले के मजिस्ट्रेट चार्ल्स जेफ्री बकलैंड स्टीवंस जिले के क्रांतिकारियों को कड़ी यातनाएं दे रहा था. स्टीवंस की इन यातनाओं के लिए क्रांतिकारियों ने उसे सजा देने की योजना बनाई. स्टीवंस भी जानता था कि जिस तरह वह इन लोगों पर कहर बरपा रहा है उससे वे परेशान हैं और वे उसके खिलाफ योजना बना रहे हैं. इसके चलते वह अपनी सुरक्षा का पूरा ख्याल रख रहा था. वह ज्यादातर अपने घर पर ही रहने लगा और उसके बंगले पर पुलिस हमेशा तैनात रहती थी. कोई उससे मिलने आता था तो उसकी तलाशी ली जाती थी.
चार्ल्स जेफ्री बकलैंड स्टीवंस को मौत के घाट उतारने के लिए योजना बनाई गई और इसकी जिम्मेदारी कक्षा 8 में पढ़ने वाली दो छात्राओं शांति घोष और सुनीति चौधरी को दी गई. प्लान के मुताबिक 14 दिसंबर, 1931 को दोनों बग्घी में बैठकर स्टीवंस के घर पहुंचीं और बंगले पर जाकर कहा कि उन्हें मजिस्ट्रेट साहब से मिलना है. उन्होंने असली नाम ना बताकर कुछ और नाम लिखकर अंदर भेजे. स्टीवंस दरवाजे पर आकर बालिकाओं से मिला. बालिकाओं ने मजिस्ट्रेट से कहा कि तैराकी प्रतियोगिता के लिए वह व्यवस्था के खास इंतजाम चाहती हैं. उन्होंने आवेदन पत्र दिया और मजिस्ट्रेट ने लिख दिया- प्रिंसिपल अपना अभिमत दें.
मिली आजीवन कारावास की सजा
यह लिखकर उसने पर्चा वापस लौटा दिया, तभी शांति और सुनीति ने रिवॉल्वर निकाल कर स्टीवंस पर गोली दाग दी. गोली दिल में लगी थी इसलिए उसकी मौत हो गई. दोनों बालिकाओं को पकड़ लिया गया और 27 जनवरी को फैसला सुनाया गया. दोनों की उम्र 16 साल थी यानी वे नाबालिग थीं इसलिए फांसी न देकर आजीवन कारावास की सजा सुना दी गई. जेल में सुनीति और शांति को अलग बैरक में रखा गया. साल 1939 में शांति घोष को राजनैतिक बंदी होने के कारण रिहा कर दिया गया.
राजनीति में भी रहीं सक्रिय
शांति घोष फजुनिस्सा गर्ल्स कॉलेज में पढ़ती थीं और इस दौरान उन्हें एक बार गर्ल्स स्टूडेंट्स एसोसिएशन का संस्थापक सचिव भी बनाया गया. जेल जाने के कारण उनकी पढ़ाई बीच में ही रुक गई इसलिए जब वह जेल से बाहर आईं तो सबसे पहले उन्होंने अपनी पढ़ाई पूरी की. पढ़ाई पूरी करने के बाद वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हो गईं और 1942 में चटगांव (अब बांग्लादेश में है) के रहने वाले क्रांतिकारी प्रोफेसर चितरंजन दास से शादी कर ली. पढ़ाई के बाद वह राजनीति में लागातर सक्रिय रहीं और 1952 से 1962 और 1967 से 1968 के दौरान बंगाल विधानसभा और विधानपरिषद की सदस्य रहीं.