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सावित्रीबाई फुले जयंती : जानिए देश की पहली महिला शिक्षक ने कैसे रखी थी शिक्षा की नींव

सावित्री बाई फुले ने भारत में लड़कियों के लिए शिक्षा के दरवाजे खोलने का काम किया. उस वक्त जब समाज में लैंगिक आधार पर कई तरह के भेदभाव किए जाते थे.

Savitribai Phule Jayanti:  भारत में महिलाओं के शिक्षा की बात जब भी आती है तो एक नाम जो जेहन में सबसे पहले आता है वह है सावित्रीबाई फुले. आज देश की तमाम राजनीतिक पार्टियां महिला शिक्षा को लेकर अलग-अलग दावे बेशक कर रही हैं पर इसकी नींव सावित्रीबाई फुले ने 19वीं सदी में ही रख दी थी. सावित्रीबाई फुले एक समाजसेवी और शिक्षिका थीं, जिन्होंने शिक्षा ग्रहण कर ना सिर्फ समाज की कुरीतियों को हराया, बल्कि भारत में लड़कियों के लिए शिक्षा के दरवाजे खोलने का काम किया.उस वक्त जब समाज में लैंगिक आधार पर कई तरह के भेदभाव किए जाते थे.

19वीं सदी में किया शिक्षा के लिए संघर्ष

सावित्री फुले ने अपने पति ज्योतिराव फुले के साथ मिलकर उन्नीसवीं सदी में स्त्रियों के अधिकारों, शिक्षा, छुआछूत, सतीप्रथा, बाल-विवाह तथा विधवा-विवाह जैसी कुरीतियां और समाज में फैले अंधविश्वास के खिलाफ संघर्ष किया. दोनों ने पहली बार 1848 में पुणे में देश का पहला आधुनिक महिला स्कूल खोला था. सावित्रीबाई फुले और ज्योतिराव फुले ने जातिवाद, छुआछूत और लैंगिक भेदभाव के खिलाफ भी लड़ाई लड़ी थी.

सावित्री बाई की शादी एक बहुत छोटी उम्र में हो गई थी. जब 1940 में वह केवल 9 साल की उम्र की थी तब उनका विवाह 12 साल के ज्योतिराव फुले से हुआ. दोनों की कोई संतान नहीं थी इसलिए उन्होंने यशवंतराव को गोद लिया. सावित्रीबाई को पढ़ना लिखना उनके पति ने सिखाया. जब वह खुद शिक्षित हो गईं तब उन्होंने अन्य महिलाओं को भी पढ़ाना शुरू कर दिया. 1848 में जब उन्होंने पुणे में स्कूल खोला जो उसमें 9 लड़कियों ने दाखिला लिया. सावित्रिबाई उस स्कूल की प्रधानाध्यापिका बनीं.

शिक्षा के अलावा कई अन्य समाजिक सुधार के लिए सावित्रीबाई ने कार्यक्रम चलाया. 19वीं सदी में हिन्दुओं में प्रचलित बाल विवाह के खिलाफ भी उन्होंने लोगों को जागरुक करने का काम किया.

उसी बेटे के साथ मिलकर आगे उन्होंने समाज के लिए और बेहतर काम किया. सावित्रीबाई ने 1897 में अपने बेटे यशवंतराव के संग मिलकर प्लेग के मरीजों के इलाज के लिए अस्पाताल भी खोला था. पुणे स्थित इस अस्पताल में यशवंतराव मरीजों का इलाज करते और सावित्रीबाई मरीजों की देखभाल करती थीं. इसी दौरान वह खुद भी बीमार हो गईं और 10 मार्च 1897 को उनका देहांत हो गया.

संघर्ष आसान नहीं था

महिलाओं को शिक्षित करने के लिए सावित्रिबाई फुले ने उस जमाने में जब सोचा तो उन्हें हर तरफ विरोध का सामना करना पड़ा. कई बार इस वजह से लोगों के निशाने पर आ जाती थी. जब वह पढ़ाने जाती थीं तो लोग उन पर कीचड़ फेंकते थे. इसी वजह से वह हमेशा अपने साथ एक साड़ी रखती थीं. वह नहीं चाहती थीं कि किसी भी तरह की बाधा आए.

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