IN Depth: धारा 377 पर SC के ऐतिहासिक फैसले ने बदला 158 साल पुराना कानून
फैसला देते वक्त कोर्ट ने कहा, "समलैंगिक लोगों के साथ समाज का बर्ताव भेदभाव भरा रहा है. कानून ने भी उनके साथ अन्याय किया है. इस अन्याय को दूर करना होगा. हम आईपीसीकी धारा 377 को कुछ हिस्सों को रद्द कर रहे हैं.
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नई दिल्लीः दो वयस्कों के बीच आपसी सहमति से बने समलैंगिक संबंध को अब अपराध नहीं माना जाएगा. सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने समलैंगिकता को अपराध मानने वाली आईपीसी की धारा 377 के एक हिस्से को रद्द कर दिया है.
फैसला देते वक्त कोर्ट ने कहा, "समलैंगिक लोगों के साथ समाज का बर्ताव भेदभाव भरा रहा है. कानून ने भी उनके साथ अन्याय किया है. इस अन्याय को दूर करना होगा. हम आईपीसीकी धारा 377 को कुछ हिस्सों को रद्द कर रहे हैं. उम्मीद है समाज भी अपना रवैया बदलेगा."
किस बात पर आया फैसला सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिकाओं में कहा गया था कि निजता एक मौलिक अधिकार है, लेकिन समलैंगिक लोगों को ये अधिकार हासिल नहीं है. वो अपनी प्राकृतिक ज़रूरत को पूरा करने में डरते हैं. इसकी वजह है आईपीसी की धारा 377, जिसमें समलैंगिक संबंध बनाने के लिए 10 साल की कैद का प्रावधान है.
क्या है धारा 377 आईपीसी की धारा 377 अप्राकृतिक यौन संबंध को अपराध मानती है. इस धारा में पशुओं के साथ संभोग करने और समलैंगिक संबंध को अप्राकृतिक कहा गया है. अब कोर्ट के फैसले के बाद पशुओं के साथ संभोग या किसी के साथ जबरन समलैंगिक संबंध बनाना तो अपराध बना रहेगा. लेकिन 2 वयस्क लोगों में रज़ामन्दी से, एकांत में बना समलैंगिक संबंध अपराध नहीं माना जाएगा.
493 पन्नों का फैसला 5 जजों की बेंच में से 4 जजों ने अलग-अलग फैसले पढ़े. चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा और जस्टिस खानविलकर का साझा फैसला 166 पन्नों का है. जस्टिस रोहिंटन नरीमन का फैसला 96, डी वाई चंद्रचूड़ का 181 और इंदु मल्होत्रा का फैसला 50 पन्नों का. यानी कुल 493 पन्ने.
अलग-अलग फैसलों के बावजूद सभी जजों के निष्कर्ष एक है. सबने ये माना है कि कुछ लोगों में समलैंगिक रुझान प्राकृतिक है. समाज इसे स्वीकार नहीं करता, लेकिन अदालत के लिए इस बात का कोई मतलब नहीं. संविधान हर नागरिक को व्यक्तिगत स्वतंत्रता और गरिमा से जीवन जीने का अधिकार देता है. ये अधिकार समलैंगिक लोगों को भी हासिल है.
पुराने फैसले को गलत कहा 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिकता को अपराध के दायरे से बाहर करने से मना कर दिया था. आज कोर्ट ने माना कि वो फैसला सही नहीं था. कोर्ट ने कहा, "उस फैसले में LGBT को छोटी आबादी कहा गया था. लेकिन छोटे से छोटे तबके को भी सब अधिकार हैं. नैतिकता का सिद्धांत बहुमतवाद से प्रभावित होता है. लेकिन छोटे तबके को बहुमत के तरीके से जीने को विवश नहीं किया जा सकता."
158 साल पुराना कानून बदला 1860 में जब लॉर्ड मैकॉले ने इंडियन पीनल कोड (IPC) बनाया, तब से ये धारा अस्तित्व में है. कई बार ये दलील दी गयी कि मैकॉले ने तत्कालीन ब्रिटेन में प्रचलित नैतिक नियमों के आधार पर समलैंगिकता को दंडनीय अपराध करार दिया. देश आज़ाद होने के बाद संविधान बना. सभी नागरिकों को समानता और स्वतंत्रता का अधिकार मिला. लेकिन LGBT (लेस्बियन, गे, बाइसेक्सुअल और ट्रांसजेंडर) समुदाय इससे वंचित रहा. उनको व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार नहीं मिल सका. आज सुप्रीम कोर्ट ने इस गलती को स्वीकार करते हुए 158 साल से चले आ रहे कानून को बदल दिया.
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