Supreme Court On Legal Help: जेल में बंद कैदियों को कानूनी मदद न मिल पाने के चलते उनकी रिहाई में होने वाली दिक्कत पर सुप्रीम कोर्ट ने चिंता जताई है. एक अहम फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राज्य और जिला स्तर के विधिक सेवा प्राधिकरण (लीगल सर्विस ऑथोरिटी) इस बात को देखें कि रिहाई योग्य विचाराधीन कैदियों और ज़मानत के आवेदनों में कितना अंतर है. जो कैदी ज़मानत याचिका नहीं दाखिल कर पा रहे हैं, उनकी सहायता की जाए. राष्ट्रीय स्तर पर भी नेशनल लीगल सर्विसेज ऑथोरिटी इस पर निगरानी रखे.


जस्टिस बी आर गवई और के वी विश्वनाथन की बेंच ने यह फैसला सामाजिक कार्यकर्ता सुहास चकमा की याचिका पर दिया है. कोर्ट ने कहा है कि लोगों को मुकदमे से पहले और मुकदमे के दौरान निःशुल्क कानूनी सहायता देने की व्यवस्था है, लेकिन उसका पर्याप्त प्रचार नहीं हुआ है. सभी हाई कोर्ट को इस बात पर विचार करना चाहिए कि वह और जिला अदालतें आपराधिक मामलों पर आदेश देते समय एक पन्ने में इस बात की जानकारी दें कि दोषी/आरोपी को लीगल एड कमिटी में मुफ्त कानूनी मदद मिल सकती है. लीगल एड कमिटी का पता और नंबर भी इसके साथ लिखने की कोशिश होनी चाहिए.


कोर्ट ने इन बातों पर भी अमल करने का दिया सुझाव-


1. पुलिस स्टेशन, पोस्ट ऑफिस, बस स्टैंड, रेलवे स्टेशन जैसी सार्वजनिक जगहों पर स्थानीय भाषा और अंग्रेजी में बोर्ड लगा कर लोगों को जानकारी दी जाए कि उन्हें निःशुल्क कानूनी सहायता मिल सकती है. यह बोर्ड ऐसी जगहों पर लगें कि उन्हें आसानी से देखा जा सके. बोर्ड में लीगल एड कमिटी का पता और फोन नंबर भी लिखा जाए.


2. रेडियो और दूरदर्शन पर स्थानीय भाषा में लीगल एड की जानकारी दी जाए. इसके लिए वेबसाइट्स की भी मदद ली जाए.


3. नुक्कड़ नाटक और दूसरे प्रचलित सांस्कृतिक माध्यमों से लोगों में लीगल एड के प्रति जागरूकता फैलाई जाए.


वकीलों को दी जाएगी बेहतरीन ट्रेनिंग


कोर्ट ने कहा है कि लोगों को मुफ्त कानूनी मदद की उपलब्धता की जानकारी देना ही काफी नहीं होगा, यह देखा जाना चाहिए कि यह मदद सचमुच फायदेमंद हो. इसके लिए ज़रूरी है कि फ्री लीगल एड से जुड़े वकीलों का स्तर भी अच्छा होना चाहिए. इसके लिए लीगल एड के वकीलों की बेहतर ट्रेनिंग के लिए काम किया जाए.


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