नई दिल्ली: एससी/एसटी (अत्याचार रोकथाम) कानून में बदलाव के खिलाफ देशभर में जारी दलित आंदोलन के बीच सुप्रीम कोर्ट ने अपने पुराने फैसले में बदलाव से इंकार किया है. अब अगली सुनवाई दो हफ्ते बाद होगी. सुप्रीम कोर्ट ने सभी पक्षों से 3 दिन के भीतर लिखित नोट जमा करने को कहा है. बता दें कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में तुरंत कोई बदलाव से मना किया. कोर्ट ने कहा कि SC/ST एक्ट के प्रावधान के अलावा शिकायत में बाकी जो भी अपराधों का ज़िक्र हो, उन पर तुरन्त एफआईआर दर्ज हो. शिकायत करने वाले को जांच तक मुआवज़े का इंतज़ार नहीं करना होगा.
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हम वंचित तबके के लिए न्याय को बेहद अहम मानते हैं. हमने एक्ट में कोई बदलाव नहीं किया. सिर्फ पुलिस के हाथों निर्दोष लोगों का दमन न हो, इसके कुछ उपाय किए. सुनवाई के दौरान कोर्ट ने टिप्पणी करते हुए कहा कि सड़क पर विरोध करने वालों ने शायद हमारा फैसला पढ़ा भी नहीं होगा. फैसले का मकसद सिर्फ यही था कि निर्दोष लोगों को गिरफ्तारी से कुछ संरक्षण हासिल हो सके.
इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने 20 मार्च को अपने फैसले में कहा था कि एससी/एसटी अत्याचार रोकथाम अधिनियम के तहत आरोपी की गिरफ्तारी अनिवार्य नहीं है और कार्रवाई प्रारंभिक जांच या सक्षम अधिकारी की मंजूरी के बाद होगी.
केंद्र सरकार की ओर से दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस उदय उमेश ललित और जस्टिस आदर्श कुमार गोयल की खंडपीठ ने कहा, ''वह एक्ट के खिलाफ नहीं है लेकिन निर्दोषों को सजा नहीं मिलनी चाहिए.''
अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने कल भारत बंद के दौरान बड़े पैमाने पर हुई हिंसा और जान-माल के नुकसान का हवाला देते हुए सुप्रीम कोर्ट से तत्काल सुनवाई करने की मांग की थी. जिसके बाद शीर्ष अदालत ने सुनवाई के लिए 2 बजे का समय तय किया था.
केंद्र सरकार की क्या है दलील?
केन्द्र सरकार ने अपनी पुनर्विचार याचिका में कहा है कि 1989 में बनाये गये इस कानून के कठोर प्रावधानों को नरम करने संबंधी 20 मार्च के फैसले के बहुत ही दूरगामी परिणाम हैं. पुनर्विचार याचिका को न्यायोचित ठहराते हुये केन्द्र ने कहा है कि अनुसूचित जाति और अनजातियों की सामाजिक आर्थिक स्थिति में सुधार के अनेक उपायों के बावजूद वे अभी भी कमजोर हैं.
याचिका में कहा गया है कि वे अनेक नागरिक अधिकारों से वंचित हैं. उनके साथ अनेक तरह के अपराध होते हैं और उन्हें अपमानित तथा शर्मसार किया जाता है. अनेक बर्बरतापूर्ण घटनाओं में उन्हें अपनी जान माल से हाथ धोना पड़ा है. याचिका के अनुसार अनेक ऐतिहासिक, सामाजिक और आर्थिक कारणों से उनके प्रति बहुत ही गंभीर अपराध हुये हैं.
केन्द्र ने कहा है कि इस कानून की धारा18 ही इसकी रीढ़ है क्योंकि यही अनुसूचित जाति और जनजातियों के सदस्यों में सुरक्षा की भावना पैदा करती है और इसमें किसी प्रकार की नरमी ज्यादतियों के अपराधों से रोकथाम के मकसद को ही हिला देती है.
देशभर में हिंसा
20 मार्च के फैसले के खिलाफ जारी राजनीतिक लड़ाई सोमवार को सड़कों पर दिखी. दलित संगठन, राजनेता सड़कों पर उतरे. देश के कई हिस्सों में आगजगी हुई, कर्फ्यू जैसे हालात बने. कम से कम 9 लोगों की मौत हो गई. मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस समेत, माकपा-भाकपा, बीएसपी, कांग्रेस, आरजेडी समेत कई दलों ने आंदोलन और भारत बंद का समर्थन किया. हालांकि इस दौरान हुई हिंसा की कड़े शब्दों में निंदा की.
दलित संगठनों के भारत बंद के दौरान सरकार बैकफुट पर दिखी. सरकार ने दावा किया कि वह सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ पुनर्विचार याचिका दायर कर चुकी है. केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने भी आज लोकसभा में बयान दिया. सरकार की दलितों और जनजातियों के लिए वर्तमान आरक्षण नीति में बदलाव की कोई मंशा नहीं है. राजनाथ सिंह ने लोकसभा में अपने बयान में उन अटकलों को खारिज कर दिया जिसमें यह कहा जा रहा है कि सरकार आरक्षण प्रणाली को समाप्त करना चाहती है. उन्होंने कहा, "आरक्षण नीति को लेकर अफवाहें फैलाई जा रही हैं, यह गलत हैं."
हालांकि कई विपक्षी दलों का कहना है कि अगर सरकार इतनी ही दलितों के अधिकार को लेकर सजग थी तो अध्यादेश लेकर आ सकती थी. राहुल गांधी ने सोमवार को कहा था, ''दलितों को भारतीय समाज के सबसे निचले पायदान पर रखना RSS/BJP के DNA में है. जो इस सोच को चुनौती देता है उसे वे हिंसा से दबाते हैं. हजारों दलित भाई-बहन आज सड़कों पर उतरकर मोदी सरकार से अपने अधिकारों की रक्षा की मांग कर रहे हैं. हम उनको सलाम करते हैं.''