नई दिल्ली: निजता मौलिक अधिकार है या नहीं? सुप्रीम कोर्ट के नौ जजों की बेंच आज इस पर फैसला देगी. कोर्ट को ये तय करना है कि किसी व्यक्ति की निजता संविधान से हर नागरिक को मिले मौलिक अधिकार का दर्जा रखती है या नहीं? साथ ही कोर्ट निजता के अधिकार के दायरे भी तय करेगा.


क्या होते हैं मौलिक अधिकार?


मौलिक अधिकार, संविधान से हर नागरिक को मिले बुनियादी मानव अधिकार हैं. जैसे - बराबरी का अधिकार, अपनी बात कहने का अधिकार, सम्मान से जीने का अधिकार वगैरह. इन अधिकारों का हनन होने पर कोई भी व्यक्ति हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटा सकता है.


अगर निजता को मौलिक अधिकार का दर्जा मिले तो क्या होगा?


इससे सबसे बड़ा असर ये होगा कि भविष्य में सरकार के किसी भी नियम-कानून को इस आधार पर चुनौती दी जा सकेगी कि वो निजता के अधिकार का हनन करता है. हालांकि, किसी भी मौलिक अधिकार की सीमा होती है. संविधान में बकायदा उनका ज़िक्र है. कोर्ट को निजता की सीमाएं भी तय करनी पड़ेंगी. ऐसा नहीं हो सकता की निजता कि दलील देकर सरकार का हर काम ही ठप करा दिया जाए. यानी कल को कोई ये कहना चाहे कि वो बैंक एकाउंट खोलने के लिए अपनी फोटो या दूसरी निजी जानकारी नहीं देगा तो ऐसा नहीं हो सकेगा.


क्या निजता का अधिकार अभी भी है?


संविधान में सीधे इसका ज़िक्र नहीं है. लेकिन व्यावहारिक रूप से इसे अनुच्छेद 21 यानी सम्मान से जीवन के अधिकार का एक हिस्सा माना जाता है. यानी अगर कानूनी अनिवार्यता ना हो और तरीका कानूनी ना अपनाया जाए तो सरकार आपकी निजता का हनन नहीं कर सकती. बैंक वाले उदाहरण में फोटो कानूनी ज़रूरत है. उसी तरह कहीं छापा मारने से पहले पुलिस का सर्च वारंट लेना कानूनी तरीका है. यानी बेवजह निजता का हनन नहीं किया जाता. ऐसा करना सम्मान से जीवन के अधिकार का हनन माना जाता है.


क्यों हुई सुनवाई?


यूनिक आइडेंटफिकेशन नंबर या आधार कार्ड योजना की वैधता को चुनौती देने वाली कई याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में लंबित हैं. इन याचिकाओं में सबसे अहम दलील है आधार से निजता के अधिकार के हनन की. याचिकाकर्ताओं ने आधार के लिए बायोमेट्रिक जानकारी लेने को निजता का हनन बताया है. जबकि सरकार की दलील थी कि निजता का अधिकार अपने आप में मौलिक अधिकार नहीं है. अगर इसे मौलिक अधिकार मान लिया जाए तो व्यवस्था चलाना मुश्किल हो जाएगा. कोई भी निजता का हवाला देकर ज़रूरी सरकारी काम के लिए फिंगर प्रिंट, फोटो या कोई जानकारी देने से मना कर देगा.


ऐसे में सुप्रीम कोर्ट ने ये तय किया कि सबसे पहले इस बात का फैसला हो कि निजता का अधिकार मौलिक अधिकार है या नहीं. इसके बाद ही आधार योजना की वैधता पर सुनवाई होगी.


9 जजों की बेंच क्यों?


इसकी वजह 50 और 60 के दशक में आए सुप्रीम कोर्ट के 2 पुराने फैसले हैं. एम पी शर्मा मामले में सुप्रीम कोर्ट के 8 जजों और खड़क सिंह मामले में 6 जजों की बेंच ये कह चुकी है कि निजता का अधिकार मौलिक अधिकार नहीं है. हालांकि, बाद में सुप्रीम कोर्ट की ही छोटी बेंचों ने कई मामलों में निजता को मौलिक अधिकार बताया. इसलिए 9 जजों की बेंच ने पूरे मसले पर नए सिरे से विचार किया.


याचिकाकर्ताओं की दलील


याचिकाकर्ताओं की तरफ से गोविन्द बनाम मध्य प्रदेश, राजगोपाल बनाम तमिलनाडू जैसे मामलों में सुप्रीम कोर्ट की ही छोटी बेंचों के फैसलों का हवाला दिया. इनमें निजता को मौलिक अधिकार माना गया है.


उन्होंने 1978 में आए मेनका गांधी बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया फैसले का भी हवाला दिया. इसमें 7 जजों की बेंच ने अनुच्छेद 21 यानी जीवन के अधिकार की नई व्याख्या की थी. कोर्ट ने इसे सम्मान से जीने का अधिकार बताया था. वरिष्ठ वकीलों की दलील थी कि इस लिहाज से निजता का अधिकार अनुच्छेद 21 के तहत माना जाएगा.


ये भी कहा गया कि किसी की आंख और फिंगर प्रिंट उसकी निजी संपत्ति हैं. इनकी जानकारी देने के लिए उसे बाध्य नहीं किया जा सकता. सरकार को भी ये जानकारी लेने का हक नहीं है. पंजाब, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल, केरल समेत कई गैर बीजेपी शासित राज्यों ने भी निजता के अधिकार के पक्ष में दलीलें रखीं.


केंद्र सरकार की दलील


सरकार की तरफ से कमान संभाली एटॉर्नी जनरल के के वेणुगोपाल ने कहा, "किसी की निजता का सम्मान किया जाना चाहिए. लेकिन इसे मौलिक अधिकार का दर्जा नहीं दिया जा सकता. अगर ऐसा करना सही होता तो संविधान निर्माताओं ने इसे संविधान में जगह दी होती."


वेणुगोपाल ने आधार कार्ड से लोगों को मिल रहे लाभ का भी ज़िक्र किया. उन्होंने कहा, "कुछ लोग निजता का हवाला देकर बायोमेट्रिक जानकारी नहीं देना चाहते. इसके चलते करोड़ों लोगों को भोजन और दूसरी ज़रूरी सुविधाओं से वंचित नहीं किया जा सकता."


आधार कार्ड बनाने वाली संस्था UIDAI की तरफ से एडिशनल सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि सरकार लोगों के निजी डाटा के संरक्षण को लेकर गंभीर है. इस बारे में उपाय सुझाने के लिए 10 सदस्यीय कमिटी गठित की गई है. जिसके अध्यक्ष सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज बी एन श्रीकृष्णा हैं.


कोर्ट का रुख


नौ जजों की बेंच ने आठ दिनों तक पूरे धैर्य के साथ सभी पक्षों को सुना. इस दौरान कोर्ट ने माना कि 50 और 60 के दशक में आए फैसले उस समय के हिसाब से थे. उनमें पुलिस को आपराधिक मामलों में हासिल तलाशी और छापे के अधिकार पर ज़्यादा चर्चा हुई थी. मौजूदा समय में जिस तरह लोगों के जीवन में तकनीक का दखल बढ़ा है, उसमें निजता पर नए सिरे से विचार ज़रूरी है.


हालांकि, कोर्ट ने ये भी माना कि निजता के अधिकार के दायरे तय किये जाने चाहिए. हर सरकारी कार्रवाई को निजता के नाम पर रोका नहीं जा सकता.