3 लोगों के हत्यारे की फांसी SC ने उम्र कैद में बदली, लेकिन कहा- कानून में फांसी का प्रावधान रखना ज़रूरी
3 जजों की बेंच के अध्यक्ष जस्टिस कुरियन जोसफ ने अपने फैसले में लिखा, 'मौत की सज़ा का प्रावधान इसलिए रखा गया था कि इसके डर से गंभीर अपराधों में कमी आएगी. लेकिन ऐसा नहीं हुआ है.
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नई दिल्लीः "फांसी की सज़ा तभी देनी चाहिए, जब दोषी में सुधार की कोई संभावना न दिखे." इस टिप्पणी के साथ सुप्रीम कोर्ट ने 3 लोगों के हत्यारे छन्नू लाल वर्मा की फांसी को उम्र कैद में बदल दिया. मामला छतीसगढ़ के दुर्ग ज़िले का है. बलात्कार के एक मामले में जेल से रिहा होने के बाद 45 साल का छन्नू वर्मा जब गांव वापस पहुंचा तो उसने अपने खिलाफ गवाही देने वाले लोगों पर हमला कर दिया.
19 अक्टूबर 2011 को शाम 5 बजे उसने गांव की ही रत्ना बाई, उसके ससुर आनंदराम साहू व सास फिरंतिन बाई की चाकू से वार कर हत्या कर दी. इस वारदात को रत्ना बाई के 9 साल के बेटे ने देखा. इसके अलावा उस शाम छन्नू लाल ने 3 और लोगों पर भी हमला कर उन्हें घायल किया.
छन्नू को दुर्ग के सत्र न्यायाधीश चंद्रभूषण वाजपेयी ने मौत की सजा दी. 2014 में छतीसगढ़ हाई कोर्ट की बिलासपुर बेंच ने भी इसी सज़ा को बरकरार रखा. लेकिन सुप्रीम कोर्ट के 3 जजों की बेंच ने इसे उम्र कैद में बदल दिया. कोर्ट ने माना कि छन्नू ने गुस्से में घटना को अंजाम दिया था. ऐसा नहीं माना जा सकता कि उसमें सुधार की कोई गुंजाइश नहीं है.
फांसी के प्रावधान पर बंटे जज फैसला सुनाने वाली 3 जजों की बेंच के अध्यक्ष जस्टिस कुरियन जोसफ ने अपने फैसले में लिखा, 'मौत की सज़ा का प्रावधान इसलिए रखा गया था कि इसके डर से गंभीर अपराधों में कमी आएगी. लेकिन ऐसा नहीं हुआ है. दुनिया के कई देशों ने इस सज़ा को खत्म कर दिया है. भारत में भी इस पर विचार होना चाहिए.'
लेकिन बेंच के बाकी 2 सदस्य यानी बहुमत इस राय से सहमत नहीं था. जस्टिस दीपक गुप्ता और हेमंत गुप्ता ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ 1980 में बचन सिंह बनाम पंजाब मामले में फांसी की सज़ा को बनाए रखने का आदेश दे चुकी है. कई और मामलों में भी कोर्ट का यही निष्कर्ष रहा है. दोनों जजों ने कहा कि पहले के फैसलों के मद्देनजर वो अपने वरिष्ठ जज की राय से असहमति जताते हैं.
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