समान नागरिक संहिता पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पैरवी के बाद माना जा रहा है कि केंद्र सरकार इसे जल्द लागू कर सकती है. मोदी सरकार मानसून सत्र में ही यूसीसी विधेयक ला सकती है. विधि आयोग ने हाल ही में लोगों से नागरिक संहिता पर राय मांगी थी. देश भर से अब तक 8.5 लाख लोगों ने इस पर अपना विचार भी साझा किया है. 


समान नागरिक संहिता बीजेपी का कोर मुद्दा रहा है और स्थापना के वक्त से ही पार्टी इसे उठाती रही है. जानकारों का मानना है कि मंडल की राजनीति में घिरी बीजेपी 2024 से पहले यूसीसी को लागू कर ब्रांड हिंदुत्व को और मजबूत करना चाहती है, जिससे चुनाव 80 (हिंदू) वर्सेज 20 (मुसलमान) का हो जाए.


हालांकि, आदिवासियों और पूर्वोत्तर के लोगों के विरोध ने बीजेपी की एक देश-एक विधान के नारों की मुश्किलें खड़ी कर दी है. झारखंड के 30 आदिवासी संगठनों ने बयान जारी कर कहा है कि विधि आयोग से इसे वापस लेने के लिए कहेंगे. 


आदिवासियों नेताओं का कहना है कि समान नागरिक संहिता अगर लागू होती है, तो इससे उनकी प्रथागत परंपराएं खत्म हो जाएगी. साथ ही जमीन से जुड़े छोटानगपुर टेनेंसी एक्ट और संथाल परगना टेनेंसी एक्ट पर भी इसका असर होगा. 




(Photo-PTI)


आदिवासी संगठनों के विरोध पर बीजेपी के बड़े नेताओं ने फिलहाल चुप्पी साध रखी है. राजनीतिक जानकारों का कहना है कि अगर आदिवासी समाज इसका विरोध करता है, तो बीजेपी को नफा से ज्यादा सियासी नुकसान हो सकता है.


नागरिक संहिता के विरोध में आदिवासी, क्यों?


1. शादी, बच्चा गोद लेना, दहेज आदि प्रथागत परंपराओं पर असर होगा. आदिवासी समाज पर हिंदू मैरिज एक्ट लागू नहीं होता है. 


2. आदिवासी समाज में महिलाओं को संपत्ति का सामान अधिकार नहीं है. इसे लागू होने से यह पूरी तरह खत्म हो जाएगा.


3. आदिवासियों को ग्राम स्तर पर पेसा अधिनियम के तहत कई अधिकार मिले हैं, जो नागरिक संहिता लागू होने से खत्म हो सकता है.


4. जल, जंगल और जमीन सुरक्षित रखने के लिए आदिवासियों को सीएनटी और एसपीटी एक्ट के तहत विशेष अधिकार मिले हैं.


सियासी तौर पर आदिवासी कितने मजबूत?
भारत में 10 करोड़ से अधिक आदिवासी हैं, जिनके लिए लोकसभा की 47 सीटें आरक्षित की गई है. मध्य प्रदेश में 6, ओडिशा-झारखंड में 5-5, छत्तीसगढ़-गुजरात और महाराष्ट्र में 4-4, राजस्थान में 3, कर्नाटक-आंध्र और मेघालय में 2-2, जबकि त्रिपुरा में लोकसभा की एक सीट आदिवासियों के लिए आरक्षित है. 


लोकसभा की कुल सीटों का यह करीब 9 प्रतिशत है, जो गठबंधन पॉलिटिक्स के लिहाज से काफी अहम भी है. आरक्षित सीटों के अलावा मध्य प्रदेश की 3, ओडिशा की 2 और झारखंड की 5 सीटों का समीकरण ही आदिवासी ही तय करते हैं. 


साथ ही करीब 15 लोकसभा सीटों पर आदिवासी समुदाय की आबादी 10-20 प्रतिशत के आसपास है, जो जीत-हार में अहम भूमिका निभाती है. कुल मिलाकर कहा जाए तो लोकसभा की करीब 70 सीटों का गुणा-गणित आदिवासी ही सेट करते हैं. 




2019 में बीजेपी को आदिवासियों के लिए रिजर्व 47 में से करीब 28 सीटों पर जीत मिली थी. मध्य प्रदेश, गुजरात, कर्नाटक, राजस्थान और त्रिपुरा में बीजेपी को आदिवासियों के लिए आरक्षित सभी सीटों पर जीत मिली थी. 


2014 के चुनाव में भी बीजेपी को 26 सीटों पर जीत मिली थी. राजस्थान, मध्य प्रदेश, गुजरात की आदिवासी रिजर्व सीटों पर पार्टी ने क्लीन स्वीप किया था. 


विधानसभा चुनाव में भी आदिवासी वोटर्स असरदार
देश के 10 राज्य मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिशा, आंध्र प्रदेश, झारखंड, राजस्थान, गुजरात, कर्नाटक, महाराष्ट्र और तेलंगाना के विधानसभा चुनाव में भी आदिवासी वोटर्स निर्णायक भूमिका में होते हैं. मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना में 5 महीने बाद चुनाव होने हैं.


मध्य प्रदेश में 21 प्रतिशत आदिवासी हैं, जिनके लिए 230 में से 47 सीटें आरक्षित है. आदिवासी इसके अलावा भी 25-30 सीटों पर असरदार हैं. मध्य प्रदेश में बीजेपी और कांग्रेस के बीच पिछले चुनाव में सीटों का फासला काफी कम था. ऐसे में आदिवासी रिजर्व सीट इस बार दोनों पार्टियों के लिए काफी महत्वपूर्ण है.




इसी तरह राजस्थान में आदिवासियों की संख्या 14 प्रतिशत के आसपास है. यहां 200 में से 25 सीटें आदिवासियों के लिए आरक्षित है. सत्ता बदलने की रिवाज वाले राजस्थान में ये 25 सीटें काफी अहम है. छत्तीसगढ़ की 34 प्रतिशत आबादी आदिवासियों की है.


यहां 90 में से 34 सीटें आदिवासियों के लिए आरक्षित है. यहां भी कांग्रेस और बीजेपी के बीच सीधा मुकाबला है. तेलंगाना में आदिवासियों के लिए आरक्षित सीटों की संख्या भले कम है, लेकिन बीजेपी-बीआरएस और कांग्रेस के बीच त्रिकोणीय मुकाबले में यह काफी अहम है.


आदिवासियों का विरोध सियासी नुकसान पहुंचा सकता है?


आदिवासी नेता लक्ष्मी नारायण मुंडा कहते हैं- आदिवासियों के बीच पलायन का मुद्दा सबसे बड़ा है और 2014 में बीजेपी ने इसे खत्म करने की बात कही थी, लेकिन मूल मुद्दा छोड़ नागरिक संहिता की बात कर रही है. हमारे पास जल, जंगल और जमीन को बचाने के लिए कुछ विशेष कानून हैं. अगर वो भी छीन जाएंगे तो क्या करेंगे?


मुंडा आगे कहते हैं- सरकार की मंशा सही नहीं है और एक विशेष एजेंडा के तहत इसे लागू किया जा रहा है. 5 जुलाई को झारखंड के आदिवासी समुदाय राजभवन के सामने धरना पर बैठेंगे. 


मध्य प्रदेश के आदिवासी के लिए काम कर रहे सोशल एक्टिविस्ट परमजीत बताते हैं, 'आदिवासियों के बीच धीरे-धीरे यह मुद्दा पहुंच रहा है और लोग इसके विरोध में उतर रहे हैं. परंपरा के साथ-साथ जमीन का मामला सबसे महत्वपूर्ण है. 


परमजीत के मुताबिक आदिवासियों को डर है कि छोटा नागपुर टेंनेसी एक्ट और संथाल परगना टेनेंसी एक्ट को समान नागरिक संहिता के जरिए खत्म किया जा सकता है. इन दोनों कानून के मुताबिक आदिवासियों के जमीन को गैर-आदिवासी नहीं खरीद सकते हैं.


आदिवासियों के लिए काम करने वालीं झाबुआ की दुर्गा दीदी कहती हैं- आदिवासी जमीन को लेकर ज्यादा संवेदनशील होते हैं और नागरिक संहिता के मसले पर उनके भीतर सरकार के खिलाफ निगेटिव नैरेटिव बना हुआ है. इसे अगर सरकार खत्म नहीं कर पाई तो नुकसान संभव है.


परमजीत झारखंड का उदाहरण देते हैं, जहां सीएनटी कानून में संशोधन की कोशिशों की वजह से रघुबर सरकार चुनाव हार गई. 


पूर्वोत्तर में विरोध तेज, वजह- संसद का सभी कानून मानना होगा
समान नागरिक संहिता का विरोध पूर्वोत्तर में भी शुरू हो गया है. पूर्वोत्तर के नेताओं का कहना है कि नागरिक संहिता समाजों के लिए खतरा पैदा करेगा. संविधान के अनुच्छेद 371 (ए) और 371 (जी) के अनुसार, पूर्वोत्तर राज्यों की जनजातियों को विशेष प्रावधानों की गारंटी दी गई है जो संसद को किसी भी कानून को लागू करने से रोकते हैं.




अब जानिए समान नागरिक संहिता क्या है, लागू होने से क्या बदलेगा?
शादी, तलाक, उत्तराधिकार और गोद लेने के मामलों में भारत में अलग-अलग समुदायों में उनके धर्म, आस्था और विश्वास के आधार पर अलग-अलग कानून हैं. यूसीसी का मतलब प्रभावी रूप से विवाह, तलाक, गोद लेने, उत्तराधिकार, विरासत वगैरह से संबंधित कानूनों को सुव्यवस्थित करना होगा.


यानी समान नागरिक संहिता लागू हुआ तो शादी और संपत्ति बंटावरे पर सबसे अधिक फर्क पड़ेगा.




वर्तमान में भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872, नागरिक प्रक्रिया संहिता, संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम, 1882, भागीदारी अधिनियम, 1932, साक्ष्य अधिनियम, 1872 जैसे मामलो में सभी नागरिकों के लिए एक समान नियम लागू हैं, लेकिन धार्मिक मामलों में सबके लिए अलग-अलग कानून लागू हैं और इनमें बहुत विविधता भी है. 


देश में सिर्फ गोवा एक ऐसा राज्य जहां पर समान नागरिक कानून लागू है.