चंडीगढ़ः 1962, 1965 और 1971 की लड़ाई लड़ चुके 83 साल के सेतन दोरजे आज भी चीन से लड़ने के लिए भारतीय सेना के असलाह डिपो पर ड्यूटी को तैयार हैं. दोरजे कहते हैं, “बूढ़ा हो गया तो क्या? मेरी नज़र तो ठीक है, हाथ-पैर भी चलते हैं, मैं और मेरे जैसे लद्दाख़ घाटी के और कई रिटायर्ड फ़ौजी पीछे रहकर सेना का साथ दे सकते हैं.” बता दें चीन से युद्ध के समय दोरजे लद्दाख़ स्काउट में ड्राइवर थे.


दोरजे की उम्र बेशक ढल गई हो, लेकिन दोरजे का जोश, जज़्बा और जुनून आज भी किसी युवा भारतीय सैनिक से कम नहीं.  62 की जंग को याद करके दोरजे के चेहरे पर चमक लौट आती है. वह कहते हैं, “उस वक्त हम एक-एक दस-दस चीनियों से लड़े थे. आज भारत के पास बहुत फ़ौज है. हम चुशूल कोयूल और दमचौक तक के इलाके में डट कर लड़े थे.”


दोरजे के सीने पर लगे तमगे देश सेवा की गवाही दे रहे हैं. 62 की लड़ाई में चीन ने भारतीय सेना के रास्ते को घेर लिया था फिर भी दोरजे और उनके साथी वायरलेस सिग्नल की जीप के साथ तीन शक्तिमान गाड़ियां दुश्मन के बीच से निकाल लाए थे.


इस जंग को याद करके 83 साल के दोरजे अपने आप को रोक नहीं पाते. दोरजे कहते हैं, “चीन 62 में गलवान घाटी में कहीं नहीं था. उसका इस ज़मीन पर दावा सरासर ग़लत और झूठा है. उसने हमारे सैनिकों को मारा है चीन को बख्शना नहीं चाहिए.”


1965 की जंग में दोरजे को पाकिस्तान के खिलाफ कारगिल में लड़ने का मौक़ा मिला लेकिन जब तक वो पाकिस्तान के सामने पहुंचे उनकी एडवांस टीम ने ही दुश्मन को भागने पर मजबूर कर दिया था.


1971 में भी दोरजे पाकिस्तान से सटी सीमा पर तैनात थे. दोरजे खुश हैं कि उनका एक पोता अब सेना में अफसर बना है और उसकी पहली पोस्टिंग ही कश्मीर में हुई है.


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