'सामा-चकेवा' मिथिलांचल क्षेत्र का पुरातन परंपराओं से जुड़ा एक लोकपर्व है. यह लोकनाट्य बिहार के मिथिलांचल में आज भी बहुत ही धूमधाम से मनाया जाता है. यह त्योहार छठ महापर्व की समाप्ति के दिन से शुरू होता है और कार्तिक पूर्णिमा को इसका समापन होता है. वैसे तो यह एक तरह से भाइयों और बहनों का त्योहार है, लेकिन इसमें मनाए जाने वाले लोकगीत प्रगतिशीलता का एक बेमिसाल उदाहरण है.


सामा चकेवा को मनाते वक्त जो लोकगीत गाया जाता है, उसमें एक तरफ, ऐसा समाज है, जो महिलाओं को दास बनाये रखना चाहता है. दूसरी ओर सामा के पिता उसे बुरी लड़की या यूं कहें कि बदचलन मानकर सजा देता है तो वहीं तीसरी तरफ सामा का भाई उसे इस समाज और पिता द्वारा दिए गए सजा से मुक्त करवाता है.


सामा खेलने के दौरान शुक्ला चुगली को जलाया जाता है, उसे जलाने के पीछे का उद्देश्य सामाजिक बुराइयों को खत्म करना है. इस त्योहार को मनाते वक्त चकेवा की मूर्तियां होती हैं, जिन्हें बहुत ही प्रेम से पूजा में शामिल किया जाता है और आखिरी दिन पर इन्हीं का विसर्जन किया जाता है.


“वृन्दावन में आगि लागल क्‌यो न बुझाबै हे,


हमरो से बड़का भइया दौड़ल चली आबए हे,


हाथ सुवर्ण लोटा वृन्दावन मुझावै हे..."


इस त्योहार के मानाने के दौरान सामा चकेवा खेलते वक्त महिलाएं एक समूह में बैठतीं है, उनके पास सामा, चकेवा और चुगला की मूर्ती होती है. खेल की शुरुआत में महिलाएं इस लोकगीत को गाते हुए चुगले को जमकर कोसती है और खेल के अंत में चुगले को जला दिया जाता है. सामा चकेवा के इस खेल में जो कहानी सुनाई जाती है. यह कहानी भाई-बहन के प्रेम की है, लेकिन उससे भी ज्यादा कहानी उस नायक की है, जो अपनी सोच में सामाजिक रुढियों से मुक्त है, जिसके लिए महिला मुक्ति का प्रश्न पूरी मानवता का प्रश्न है और इसके लिए वह भीषण संघर्ष भी करता है.


कहते हैं कि पौराणिक किस्से कहानियों में लोक-इतिहास छुपा होता है. ऐसे में ऑनर किलिंग के नाम पर लड़कियों को मारने वाले इस समाज में दशकों से मानाया जाने वाला ये पर्व प्रगतिशीलता का एक बेमिसाल उदाहरण है. इस पर्व में महिलाएं, जिस किस्से को सुनाती है उसे सुनकर ये प्रतीत होता है कि अतीत एक तरह से वर्तमान से अधिक आधुनिक था.




क्या है इस पर्व की मान्यता


पौराणिक कथा के अनुसार मान्यता चली आ रही है कि भगवान श्री कृष्ण की बेटी सामा की ऋषि कुमार चारुदत्त से शादी हुई थी. सामा जिसे श्यामा भी कहा जाता है, वह आजाद विचारों की थी. उसे घूमना-टहलना अच्छा लगता था. कभी-कभी वह अकेली ही बाहर निकल जाया करती थी.


एक बार वह रात में अपनी दादी के साथ वृंदावन ऋषि मुनियों की सेवा करने के लिए उनके आश्रम गई. जब इस बात का पता कृष्ण के दुष्ट मंत्री जबर को लगी, उसने कुमार चारुदत्त को सामा के खिलाफ भड़काना शुरू कर दिया और झूठी बातें बताने लगा.


वहीं दूसरी तरफ ऐसी बातें सुनकर कुमार चारुदत्त को बहुत गुस्सा आया और वह नाराज होकर भगवान कृष्ण को सुनाने लगते हैं. चारुदत्त के सुनाए जाने पर कृष्ण गुस्से में सामा को पक्षी बन जाने का श्राप दे देते हैं. पक्षी बन जाने के बाद सामा को इस रूप में देखकर कुमार चारुदत्त भगवान महादेव को प्रसन्न करने के लिए तपस्या करने लगता है. तपस्या से खुश होकर भगवान महादेव चारूदत्त को पक्षी बनने का वरदान दे देता है.


जब इस बात की जानकारी सामा के भाई श्री कृष्ण के पुत्र शाम को हुई तो उसने अपने बहन बहनोई के उद्धार के लिए श्री कृष्ण की आराधना आरंभ कर दी. श्रीकृष्ण को भी अपनी भूल का अहसास हुआ. शाम्भ ने सामा और चारुदत्त को ढूंढ़कर उसे फिर से मनुष्य के रूप में बदलवाया और इसके लिए जिम्मेवार लोगों से बदला भी लिया.




भगवान शिव चारुदत्त और सामा को श्राप से मुक्ति प्राप्त करने का उपाय बताते हुए कहा कि श्याम और चारुदत्त मूर्ति बनाकर गीत गाए और कारगुजारीयों को उजागर करें इस तरह करने से सामा श्राप से मुक्त हो जाएगी. उन दोनों ने ऐसा ही किया और चारुदत्त और श्याम की मूर्तियां बनाकर गीत गाए तथा शिव की मूर्ति बनाकर चुगली करने वालों को जलाकर भस्म कर दिया, तभी से यह पर्व मनाया जाता है.


इस पौराणिक कथा से दो बातें साफ तौर पर नजर आती है कि ऐतिहासिक तौर पर महिला मन और पुरुष मन में कभी कोई अंतर नहीं रहा है. सामा को भी अन्य लोगों की तरह घूमने फिरने का शौक था, वह भी पुरुष की तरह बाहर निकलना चाहती थी. वहीं इस पौराणिक कथा में भी महिला के स्वतंत्र होने की भावना पर समाज अंकुश लगाने का प्रयास करता है, क्योंकि इससे प्रभुत्वशाली वर्गों के हितों को खतरा महसूस होता है.


मिथिला में सदियों से मनाया जा रहा पर्व


इस कथा में माना जाता है कि पक्षी चकेवा  (चारुदत्त) मिथिला के शरद महीने में प्रवास करने पहुंच गए थे. शाम्भ भी उसे खोजते हुए मिथिला पहुंचे. उसने शाम्भ ने वहां की महिलाओं से आग्रह किया कि वह सामा चकवा का खेल खेले ताकि उनकी मदद से वह अपने बहन- बहनोई को आजाद कर सके. शायद इस खेल से सामा और चकेवा तक यह सन्देश पहुंचना था कि शाम्भ उसे खोजता हुआ उसे लेने यहां आया है.


इस कहानी में एक चीज है जो आज के समाज के लिए बहुत आम है और वह है महिला का विस्थापन झेलना पड़ा.  दोनों मिथिला से जुड़ी है. हालांकि पिछले कुछ सालों में ऐसी लोक-परम्पराएं अपना वजूद खो रही हैं. उसके बदले सत्ता-प्रेरित परम्पराएं प्रचलित हो रही हैं. लोक-चेतना से स्वीकार्यता और संवेदनशीलता जैसे भाव मिट रहें. ऐसे लोक-पर्व को संजोए रखने की जरूरत है.


चंपारण से लेकर मालदा तक मिथिला संस्कृति


सामा-चकेवा का यह त्योहार हिमालय की तलहट्टी से लेकर गंगा तट तक और चम्पारण से लेकर मालदा-दीनाजपुर (बंगाल) तक मनाया जाता है. दीनाजपुर मालदह में बंगला भाषी होने के बाद भी वहां की महिलाएं एवं युवतियां सामा-चकेवा पर मैथिली गीत ही गाती हैं, जबकि चम्पारण में भोजपुरी—मैथिली मिश्रित सामा-चकेवा के गीत गाए जाते हैं.