Karnataka Chief Minister: कर्नाटक में कांग्रेस को प्रचंड बहुमत से जीत मिली. इसके बाद चार दिनों तक मुख्यमंत्री के नाम को लेकर खींचतान चलती रही. काफी विचार-विमर्श के बाद अब सूत्रों की तरफ से खबर आ रही है कि सिद्धारमैया के नाम पर मुहर लग गई है. अब सवाल ये उठता है कि आखिर इतनी मेहनत के बाद भी डीके शिवकुमार मुख्यमंत्री पद से वंचित क्यों रह गए. चलिए आपको बताते हैं किन मामलों में सिद्धारमैया आगे निकल गए और सीएम पद पर एक और बार विराजमान होंगे.
दरअसल, कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी चिंता यही रही कि डीके शिवकुमार के खिलाफ कई मामले दर्ज थे. ऐसे में केंद्रीय जांच एजेंसियां उन्हें कभी भी जेल भेज सकती थीं और कर्नाटक में सरकार अस्थिर होने का डर बना रहता. शिवकुमार लंबे समय से सीएम की कुर्सी पर बैठने की इंतजार कर रहे थे. इस बार उन्होंने अपने बयानों में साफ कर दिया था कि वह मुख्यमंत्री ही बनना चाहते हैं लेकिन ईडी और सीबीआई के मामलों की वजह से उन्हें सीएम बनाना पार्टी के लिए खतरनाक साबित हो सकता था.
पिछड़े वर्ग में सिद्धारमैया की पैठ
डीके शिवकुमार के मुकाबले सिद्धारमैया का पलड़ा इसलिए भारी रहा क्योंकि उनकी पहुंच राज्य के हर तबके में है. खासतौर पर दलित, मुसलमान और पिछड़े वर्ग (अहिंदा) में सिद्धारमैया की पैठ है. कांग्रेस को डर था कि अगर उन्हें मुख्यमंत्री नहीं बनाया जाता तो एक बड़ा वोट बैंक खत्म हो सकता था. उनका दलित, अल्पसंख्यक, आदिवासी, ओबीसी समाज में व्यापक जनाधार रहा है. वह खुद भी ओबीसी जाति से आते हैं.
'अहिन्दा' फॉर्मूला
सिद्धारमैया लंबे समय से अल्पसंख्यातारु (अल्पसंख्यक), हिंदूलिद्वारू (पिछड़ा वर्ग) और दलितारु (दलित वर्ग) फॉर्मूले पर काम कर रहे थे. अहिन्दा समीकरण के तहत सिद्धारमैया का फोकस राज्य की 61 प्रतिशत आबादी थी. उनका यह प्रयोग काफी चर्चाओं में रहा था और सिद्धारमैया इस फॉर्मूले को लेकर कांग्रेस में शामिल हो गए थे. कर्नाटक में दलित, आदिवासी और मुस्लिमों की आबादी 39 फीसदी है, जबकि सिद्धारमैया की कुरबा जाति की आबादी भी 7 प्रतिशत के आसपास है. 2009 के बाद से कांग्रेस कर्नाटक में इसी समीकरण के सहारे राज्य की राजनीति में मजबूत पैठ बनाए हुई है. यही कारण है कि कांग्रेस इसे कमजोर नहीं करना चाहती है.
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