कोरोना वायरस के रूप में मानवता अब तक का सबसे बड़ा संकट देख रही है. दुनियाभर में कोरोना के चलते तबाही मची हुई है. आंकड़ों की बात करें तो कोरोना ने करीब 17 लाख लोगों को मौत की नींद सुला दिया है. यह अब तक किसी भी त्रासदी में इंसानी जानों के जाने के सबसे बड़े आंकड़ों में से एक है.
कोरोना के संकट के बीच उम्मीद की एक किरण है, वैक्सीन. वैज्ञानिक कुशलता और कठिन परिश्रम से कोरोना का टीका बनकर तैयार है. दुनिया के कई देशों में कोरोना की वैक्सीन लगनी शुरू हो गई है. स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन ने बताया है कि भारत में वैक्सीन लगने की शुरुआत अगले महीने से हो सकती है.
कोरोना वायरस की वैक्सीन की चर्चा के बीच लोगों के मन में सवाल है कि आखिर दुनिया की वो कौन सी पहली बीमारी थी जिसके लिए वैक्सीन बनाई गई. क्या वो बीमारी कोरोना से भी खतरनाक थी? आखिर ऐसा क्या हुआ कि लोगों के सामने एक बीमारी का टीका का पहली बार सामने आया.
सवालों के जवाब के लिए 222 साल पीछे इंग्लैंड जाना पड़ेगा
ऐसे सभी सवालों के जवाब जानने के लिए हमें करीब 222 साल पीछे इंग्लैंड जाना पड़ेगा. साल 1798 यही वो साल था जब दुनिया के सामने पहली वैक्सीन आई. इसे बनाने वाले महान वैज्ञानिक एडवर्ड जेनर थे. जेनल ने स्मॉल पॉक्स यानी छोटी माता के टीके को बनाया था. जेनर के लिए इस टीके को बनाना इतना आसान काम नहीं था, उन्हें कई मुश्किलों का सामना करना पड़ा.
एडवर्ड ने अपनी डॉक्टरी की पढ़ाई लंदन में पूरी की. साल 1772 में जेनर ने अपनी डॉक्टरी की शुरुआत की और पहली वैक्सीन बनने की कहानी भी यहीं से शुरू होती है. दरअसल यह वो समय था जब ज्यादा चिकित्सकीय सुविधाएं ना होने से छोटी छोटी बीमारियां भी महामारी का रूप ले लेती थीं. इन बीमारियों से लाखों लोग मारे जाते.
ग्वालों पर नहीं होता था चेचक का असर, यहीं मिला सबसे बड़ा संकेत
चेचक जैसे संक्रामक रोगों को लेकर जेनर बंहद गंभीर थे और लगातार रिसर्च करते रहते थे. अपनी एक रिसर्च के दौरान उन्होंने पाया कि चेचक का असर दूध का व्यवसाय करने वाले ग्वालों और उनके परिवार पर कम होता है. जेनर ने अपनी रिसर्च जारी रखी और पाया कि गायों में होने वाली चेचक के फफोलों के मवाद से ग्वाले संक्रमित होते थे.
काउ पॉक्स नाम की इस बीमारी से संक्रमित ग्वाले जल्दी ठीक हो जाते थे लेकिन इसका एक सकारात्मक पहलू यह भी था फिर उन ग्वालों को स्मॉल पॉक्स की बीमारी नहीं होती थी. 1796 में उन्होंने पहली बार अपनी अवधारणों को लेकर प्रयोग शुरू किया. इसे दुनिया की पहली वैक्सीन की नींव कहा जा सकता है.
जेनर ने अपने प्रयोग में गाय में होने वाली चेचक के फफोलों का मवाद लिया और आठ साल के जेम्स फ्लिक नाम के बच्चे की बांह में चीरा लगाकर डाल दिया. इसके बाद जेम्स को हल्का बुखार हुआ लेकिन वो ठीक हो गया. प्रयोग को आगे बढ़ाते हुए एडवर्ड ने जेम्स के शरीर में चेचक का जीवाणु डाला लेकिन जेम्स को बीमारी नहीं हुई. जेनर ने कुछ साल बाद फिर यही प्रक्रिया दोहराई लेकिन जेम्स को फिर से कोई बीमारी नहीं हुई. इसका मतलब था कि जेम्स में शरीर में एंटी बॉडी बन चुके थे.
प्रयोग के लिए एडवर्ड को करना पड़ा विरोध का सामना
जेनर के इस प्रयोग से उनके समकक्ष वैज्ञानिक और धर्म गुरू खुश नहीं थे. उन्हें इसके लिए कड़े विरोध का सामना करना पड़ा. उनकी हंसी उड़ाई गई और कार्टून बनाए गए. इन सब की परवाह किए बिना एडवर्ड जेनर ने अपना प्रयोग जारी रखा.
आखिरकार मिली सफलता, आलोचकों के मुंह बंद
शुरुआत में द रॉयल सोसाइटी ने भी उनके प्रयोग को मान्यता देने से इनकार कर दिया था. बाद में जेनर ने अपने 11 साल के बेटे समेत कई बच्चों पर इसी टीके का प्रयोग किया. इन सभी प्रयासों के बाद आखिरकार उन्हें सफलता मिली. साल 1798 को उनका शोधपत्र प्रकाशित किया गया और उनके टीके को मान्यता मिल गई.
जेनर के उनके इस काम के लिए इंग्लैंड की संसद ने सम्मानित किया. उन्हें सरकार की तरफ से एक बार दस हजार और एक बार बीस हजार डॉलर की आर्थिक मदद भी की गई.साल 1803 में उनके नाम से चेचक उन्मूलन टीकाकरण की शुरुआत की गई. बाद में इसे देशभर में लागू किया गया.
वैक्सीन की सफलता के बीच सभी तरह के प्रयोग धीमे पड़ गए. वैक्सीन सफल होने के बाद जेनर ने मेडिकल के कई और विषयों में भी शोध किए. 26 जनवरी 1832 को दुनिया का पहला टीका देने वाले एडवर्ड जेनर दुनिया से चले गए.
वैक्सीन शब्द भी जेनर का प्रयोग की देन
जी हां वैक्सीन शब्द एडवर्ड जेनर के प्रयोग की ही देन है. दरअसल लैटिन भाषा में गाय को वैका कहा जाता है. इसी शब्द से वैक्सीन शब्द की उतपत्ति हुई.
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