नई दिल्ली: साल 2014 और 2019 के चुनावों में सोशल मीडिया का रोल काफी महत्वपूर्ण माना गया. कहा तो यहां तक गया कि 2014 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी की बड़ी जीत की कहानी सोशल मीडिया के जरिए ही लिखी गई थी. बीजेपी ने 2014 में सोशल मीडिया का जमकर इस्तेमाल किया था. वहीं बाकी विपक्षी दल बीजेपी से इस मामले में कहीं पीछे रहे और बीजेपी को इसका फायदा भी मिला. कुछ ऐसा ही अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के इलेक्शन को लेकर भी कहा गया. आरोप लगा कि डोनाल्ड ट्रंप ने सोशल मीडिया के डाटा का इस्तेमाल कर नतीजे अपने पक्ष में करवाने में मदद ली.
2016 में हुए अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव को लेकर इस तरह की खबरें भी सामने आईं कि उस चुनाव में ट्रंप को दूसरे देशों खासतौर पर रूस ने भी ट्रंप को फायदा पहुंचाने की मुहिम चलाई गयी. अमेरिकी सीनेट इंटेलिजेंस कमेटी की 2016 की रिपोर्ट के मुताबिक रूस के सेंट पीटर्सबर्ग स्थित इंटरनेट रिसर्च एजेंसी ने सोशल मीडिया पर ट्रंप के पक्ष में माहौल बनाया जिसका उनको फायदा भी मिला.
अब इन बहसों और चर्चाओं के बीच पिछले कुछ समय से इस बात को लेकर आवाज उठ रही थी और सवाल खड़े हो रहे थे कि आखिर राजनेताओं को क्या सोशल मीडिया पर अपना मनमाफिक प्रचार और प्रसार करने की खुली छूट दी जा सकती है. इसी को ध्यान में रखते हुए अब ट्विटर ने एक पॉलिसी बनाई है जिसके तहत किसी भी राजनेता को और राजनैतिक दल को अपना प्रचार प्रसार करने के लिए ट्विटर प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल करने की अनुमति नहीं दी जाएगी. ट्विटर के सीईओ जैक डोर्सी ने एक ट्वीट के जरिए इस बात की जानकारी दी.
जैक डोर्सी ने अपने ट्वीट में लिखा, "कंपनी को लग रहा है कि सोशल मीडिया का गलत इस्तेमाल कर विज्ञापन डाले जा रहे हैं. इन विज्ञापनों का इस्तेमाल कई बार गलत तरीके से अपने विपक्षियों पर हमला करने के लिये किया जाता है. यह हमले किसी और मीडियम की तुलना में सोशल मीडिया पर कहीं ज्यादा होते हैं."
अब ट्विटर के इस फैसले के बाद राजनीतिक जानकार भी मान रहे हैं कि सोशल मीडिया के इस फैसले का असर उन राजनीतिक पार्टियों पर पड़ेगा जिन्होंने अपना पूरा चुनाव प्रचार ही सोशल मीडिया के जरिए दूसरों के ऊपर आरोप लगाकर या सवाल उठाकर किया था.
कब शुरू हुआ विवाद
ये विवाद शुरू हुआ तब जब इसी साल सितंबर महीने में सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म फेसबुक, गूगल और ट्विटर ने अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा पोस्ट किए गए उन वीडियोज़ को हटाने से इंकार कर दिया जिसमें डोनाल्ड ट्रंप ने अपने विपक्षी उम्मीदवारों पर हमले किए थे. इसी के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति पद की उम्मीदवार एलिजाबेथ वारेन ने फेसबुक के ऊपर हमला करते हुए कहा कि फेसबुक सीधे तौर पर राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का पक्ष ले रहा है और इसी वजह से उनको अपने विपक्षियों पर हमला करने और झूठा प्रोपेगेंडा फैलाने का खुला प्लेटफार्म दे रहा है.
इसके बाद ही अलग-अलग तबकों से यह मांग आने लगी कि सोशल मीडिया पर इस तरीके के आपत्तिजनक और झूठा प्रोपेगेंडा फैलाने वाले विज्ञापनों पर रोक लगनी चाहिए. राजनैतिक जानकारों का मानना है कि इस तरह के फैसले का फिलहाल सबसे बड़ा असर तो अमेरिकी राष्ट्रपति के अगले साल होने वाले चुनावों के ऊपर ही देखने को मिलेगा क्योंकि भारत में तो आम चुनाव हो चुके हैं.
राजनीतिक दल से जुड़े लोगों का मानना है कि ट्विटर ने यह फैसला क्यों लिया अभी यह तो उनको पूरा नहीं पता लेकिन एक राजनीतिक पार्टी या जनप्रतिनिधि को यह पूरा अधिकार है कि उसने जो काम किए हैं उसको जनता तक पहुंचाया जा सके.
बिधूड़ी का केजरीवाल पर आरोप
इसी बीच बीजेपी सांसद रमेश बिधूड़ी ट्विटर के फैसले के लिए दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को जिम्मेदार ठहराया है. उन्होंने इसे दिल्ली सरकार के विज्ञापनों से जोड़कर पेश किया है.
कितना प्रभावी है सोशल मीडिया
सोशल मीडिया का विश्व पटल पर नेटवर्क कितना फैला हुआ है इसका अंदाजा इसी बात से लग जाता है की फेसबुक जिसके पास इंस्टाग्राम व्हाट्सएप और फेसबुक मैसेंजर जैसे प्लेटफार्म है सब मिलाकर करीब 300 करोड़ लोग इस्तेमाल करते हैं. वहीं ट्विटर का इस्तेमाल 13 करोड़ से ज्यादा लोग करते हैं. इसी वजह से पिछले कुछ सालों में सोशल मीडिया का प्रभाव राजनीति और चुनावी प्रक्रिया में कई गुना बढ़ गया है और यही वजह है जिसके चलते अब सोशल मीडिया पर आने वाले राजनैतिक विज्ञापनों पर नकेल लगाने की मांग ज़ोर पकड़ने लगी है.