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लड़की का पीछा करो, न का मतलब हां समझो...इन हिंदी गानों ने यही सिखाया?

आज रिलीज हुई फिल्म लाइगर के गाने के लिरिक्स को आलोचकों का सामना करना पड़ रहा है. लेकिन ये कहना गलत नहीं है कि दशकों से बॉलीवुड में औरतों की रज़ामंदी के चित्रण में कोई बदलाव नहीं आया है.

यह पर्दा हटा दो
ज़रा मुखड़ा दिखा दो
हम प्यार करने वाले
कोई ग़ैर नहीं...

साल 1969 में एक फिल्म रिलीज हुई थी 'एक फूल दो माली' जिसके इस गाने को काफी पसंद किया गया था. इस पूरे गाने में हीरो हिरोइन का पीछा करता है, उसे अपना चेहरा दिखाने के लिए कहता है. लड़की इठलाती है... बार-बार मना भी करती है. लेकिन गाने के आखिर तक न- न करते हुए भी हिरोइन हीरो से प्यार कर बैठती है. मतलब साफ है लड़कियां पहले तो आम तौर मना करती ही हैं...लेकिन बाद में मान जाती हैं. बतौर दर्शक हमें यह सीन देखने में काफ़ी 'हैप्पी' लगने लगता है. बॉलीवुड के गानों में इस तरह की लव स्टोरी दिखाना बेहद आम है. लेकिन क्या असल जिंदगी में इस तरह की हरकत जो आम चौक-चौराहे पर हो कोई इसे बर्दाश्त करेगा? 

भारत में हिंदी सिनेमा का लगभग 100 साल का इतिहास रहा है. दुनिया में सबसे ज्यादा फिल्में बनाने का रिकॉर्ड भी भारत के नाम ही है, लेकिन इतने सालों के इतिहास और हजारों फिल्मों के बाद भी जब बॉलीवुड के गानों को देखें तो आपको ज्यादा फर्क नजर नहीं आएगा. हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में सेक्सिस्ट और मिसोजिनिस्ट गाने की कोई कमी नहीं है. इसका सबसे बड़ा उदाहरण 25 अगस्त 2022 को रिलीज हो रही फिल्म लाइगर के गाने के लिरिक्स हैं. लाइगर का एक गाना 'आफत' रिलीज होने के बाद से ही विवादों में है. गाने में 'भगवान के लिए मुझे छोड़ दो' और 'जवानी तेरी आफत' जैसे डायलॉग के कारण इसे आलोचकों का सामना करना पड़ रहा है. 

साल 1999 में एक सुपरहिट फिल्म आई थी 'हसीना मान जाएगी', इसके एक गाने घर घर में सुने जाने लगे. उस गाने के बोल थे ' कब तक रूठेगी चीखेगी चिल्लायेगी, दिल कहता है इक दिन हसीना मान जायेगी....'. इसके अलावा आजा मेरी गाड़ी में बैठ जा, जुम्मा- चुम्मा दे दे, लाल दुपट्टे वाली तेर नाम तो बता. जैसे तमाम ऐसे गाने हैं जिसमें हिरोइन के पीछे पड़ने और ज़बरदस्ती करने से उसकी 'ना' 'हां' में बदल जाती है. 


लड़की का पीछा करो, न का मतलब हां समझो...इन हिंदी गानों ने यही सिखाया?

महिलाओं का ऑब्जेक्टिफिकेशन और सेक्सिज्म को नॉर्मलाइज़ करने का हुनर भला हमारे हिन्दी फिल्मों के राइटर्स से अच्छा और कौन जानता होगा. मर्दों के बनाए समाज में मर्दों द्वारा ही एक मुहावरा गढ़ा गया जो सालों के सबकी जुबान पर है. वो मुहावरा है- लड़की की न में भी हां छुपी होती है..... बॉलीवुड ने अपने ही बनाए इस मुहावरे को सीरियसली लिया और लिख दिए एक के बाद एक सैकड़ों गाने और फिल्मी डायलॉग्स जिसमें महिलाओं के कंसेन्ट यानी सहमति की कोई अहमियत नहीं.

संगीत लोगों के जीवन का एक हिस्सा 

हिन्दी सिनेमा और संगीत लोगों के जीवन का एक अभिन्न हिस्सा बन गया है. प्यार का इज़हार हो या जुदाई का ग़म. फिल्मी गानों के जरिए लोग अपनी भावनाओं को व्यक्त करते आए हैं. भारतीय सिनेमा के संगीत ने हर दशक में प्रयोग किए है. इनमें कुछ प्रयोगों ने 'प्यार हुआ इकरार हुआ' जैसे गाने दिए तो कुछ ने 'जुम्मा चुम्मा' जैसे आइटम नंबरों को जन्म दिया. यहां वैसे तो हर इमोशन के लिए गाने मौजूद हैं लेकिन जिस इमोशन ने सबसे ज्यादा युवाओं के दिल में जगह बनाई वो है 'प्रेमी प्रेमिका के बीच के रोमांस' को दर्शाते गाने. इन सब के बीच दुखद बात यह है कि बॉलीवुड के अधिकांश रोमांटिक गाने सेक्सिस्ट विचारों को बढ़ावा देने का काम कर रहे हैं. 

इन मिसोजिनिस्टिक गानों को बाउंसी बीट्स, ट्रेंडिंग आर्टिस्ट, ग्लैमरस कॉस्ट्यूम, लोकप्रिय सेलिब्रिटीज, ग्रूवी कोरियोग्राफी और बड़े-से-बड़े वीडियो सेट के साथ इतनी अच्छी तरह से पैक किया जाता है कि ये बेहद ही आसानी से मोलेस्टेशन को घर-घर तक पहुंचाने में कामयाब हो जाते हैं.  हालांकि ये कहना सही नहीं होगा कि ऐसे गाने का इस्तेमाल पितृसत्ता और लैंगिक भेदभाव को बचाने के लिए जानबूझकर किया जा रहा है. लेकिन यह ध्यान रखना बेहद जरूरी है कि संगीत किसी भी समाज का आइना होता है और समाज के सांस्कृतिक मूल्य संगीत में लयबद्ध रूप से प्रकट होते हैं. ऐसे में इस तरह के गाने ईव-टीजिंग, भेदभाव, छेड़छाड़, ऑब्जेक्टिफिकेशन और मोलेस्टेशन को जस्टिफाई करते हैं. 

ये कोई नई बात नहीं कि बेहद हिट होने के बावजूद भी 25 अगस्त को रिलीज होने वाली फिल्म लाइगर के गाने या बॉलीवुड के कई गानों पर आरोप लगते रहे हैं कि ये महिलाओं को ऑब्जेक्ट या उपभोग की वस्तु की तरह दिखाते हैं. बहस इस बात पर गर्म है कि ऐसे गानें औरतों को ऑब्जेक्टिफाई करते हैं तो इसका समाज पर कैसा असर पड़ता है. 

पीछा करना प्यार नहीं 

महिलावादी मुद्दों को अपने लेखन में उठाने वाली और FII की मैनेजिंग एडिटर रितिका ने कहा कि अगर ऑब्जेक्टिफिकेशन की बात करें तो पूरी की पूरी फिल्म इंडस्ट्री ही इसकी शिकार है. एक बड़ी दिक्कत बॉलीवुड के साथ ये है कि यहां लड़की को मोलेस्ट करने से लेकर जबरदस्ती किस कर लेना, किसी का कंसेंट नहीं लेना इसे हमेशा ही इश्क के रूप में दिखाया गया है. तुम हां करो या ना तुम मेरी हो, मैं तुम्हारा पीछा नहीं छोड़ूगां क्योंकि मैं प्यार करता हूं. उन्होंने कहा कि फिल्मों में हमेशा से ही औरतों को साइड रोल में रखा गया है, हालांकि अब चीजे बदल रही है. अब बॉलीवुड में कई महिला केंद्रित फिल्में बनाई जी रही है. जिसे लोग पसंद भी कर रहे हैं. लेकिन एक दो उदाहरण से चीजें नहीं बदलती. अभी बॉलीवुड को बदलने में और औरतों को एक मजबूत किरदार मिलने में लंबा समय लगेगा 

औरतों के हक पर मुखर होकर लिखने वाली मीना कोतवाल ने कहा कि हिंदी सिनेमा के लगभग सभी गानों में हिरोइन को खूबसूरती और सेन्शुअस तरीके से दिखाया जाता है और इतने सालों के बाद भी उनकी पहचान और किरदार खूबसूरती में ही सिमट कर रह गई है. उन्होंने कहा कि हिंदी फिल्मों में महिलाओं को संस्कारी घरेलू दिखाने की भी परंपरा रही है. एक तरफ जहां अइटम सॉन्ग्स के नाम पर औरतो को ऑब्जेक्ट की तरह पेश किया जाता है तो वहीं दूसरी तरफ उन्हें सती सावित्री और घरेलू लड़की की तरह पोट्रे किया जाता है. 


लड़की का पीछा करो, न का मतलब हां समझो...इन हिंदी गानों ने यही सिखाया?

शब्दों का असर सोच पर

सोशल मीडिया पर हर मुद्दे पर अपना मत रखने वाली स्वर्णा ने कहा कि , " शाहिद कपूर की एक फिल्म थी जिसमें गाने के बोल थे.. अब करूंगा तेरे साथ.. गंदी बात.. इस तरह के गाने समाज के युवाओं पर गहरा असर छोड़ रहा है. लोगों को लगता है कि जब गाने में इन शब्दों का इस्तेमाल किया जा सकता है तो आम जिंदगी में भी ऐसी बातें करना गलत नहीं है. लेकिन हमारे समाज को समझना पड़ेगा कि अगर किसी की देह खूबसूरत है तो उसे कहने के लिए हम कौन सा शब्द चुनेंगे ये बहुत मायने रखता है. बॉलीवुड में जिस तरह के सेक्सिस्ट गाने लिखे जा रहे हैं उसे बदलने की जरूरत है. हमें पुरुषों की नजर से महिलाओं को देखना बंद कर देना चाहिये." 

पारंपरिक एवं घरेलू स्टीरियोटाइप में फंसी औरतें

हिंदी फिल्मों की शुरुआत की बात करें तो सबसे पहली फिल्म राजा हरिश्चंद्र में एक पुरुष ने महिला लीड रोल का किरदार निभाया था. उस वक्त महिलाओं का फिल्मों में आना अच्छा नहीं माना जाता था. पर समय बीता और चालीस के दशक में शुरू हुए भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) के सांस्कृतिक आंदोलन की वजह से सिनेमा और महिलाओं के इस विधा में प्रवेश के विषय में आम पढ़े-लिखे लोगों की धारणा थोड़ी बदली. हालांकि पर्दे पर महिलाएं तो आ गई लेकिन एक स्टीरियोटाइप में फंस कर रह गई. बॉलीवुड में शुरुआत से ही महिलाओं को बहुत ही पारंपरिक एवं घरेलू रूप में प्रस्तुत किया जाता था. या फिर फिल्म में उसे केवल एक्टर के लव इंटरेस्ट के रूप में दिखाया जाता था. 

क्या कहते हैं इन गानों के बोल 

20वीं दशक में ऐसी कई फिल्में आईं जो फिल्मी पर्दे पर तो सुपरहिट रहीं लेकिन उन फिल्म में महिलाओं के साथ किए गए मोलेस्टेशन, आसान शब्दों में कहे तो बिना कंसेंट के किए गए छेड़छाड़ को प्यार की तरह दिखाया गया है. इस गाने के बोल दर्शाते हैं कि अगर किसी पुरुष को किसी महिला से प्रेम हो जाए तो उसपर उसका अधिकार हो जाता है और अगर वो पुरुष जबरन उसका रास्ता रोके तो उस महिला को चौंकना नहीं चाहिए. ऐसा लगता है जैसे वो लड़की उसकी प्रोपर्टी हो...

“हां तुझपे राइट मेरा

तू है डिलाइट मेरा

तेरा रास्ता जो रोकूं
चौंकने का नहीं

अब करूँगा तेरे साथ 
गंदी बात..

इस गाने के बोल से अंदाजा लगाया जा सकता है कि महिला की रजामंदी मायने नहीं रखती. अगर उसने उस आदमी को अस्वीकार कर दिया है तो भी वो उससे जबरदस्ती गंदी बात यानी द्विअर्थी बातचीत करेगा. बॉलीवुड का यह गीत आक्रामक मर्दानगी का एक आदर्श उदाहरण है. सबसे हैरानी की बात ये है कि इस गाने ने रेडियो मिर्ची के 2013 के शीर्ष 20 गानों में अपनी जगह बनाई थी. 

मैं तो तंदूरी मुर्गी हूँ यार
गट्काले सैयां अल्कोहल से

लोग कहते हैं मुझे, मैं तो हूँ नमकीन बटर
काट दूंगी मैं दिल को, मेरी जवानी है कटर
मेरा जलवा जो देख ले वो फैंट हो जाये
क्लोज करके तू रख ले अपने नैनों का शटर

मैं तो तंदूरी मुर्गी हूँ यार
गट्काले सैयां अल्कोहल से

लोग कहते हैं मुझे, मैं तो हूँ नमकीन बटर
काट दूंगी मैं दिल को, मेरी जवानी है कटर
मेरा जलवा जो देख ले वो फैंट हो जाये
क्लोज करके तू रख ले अपने नैनों का शटर

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