नई दिल्ली: दुनिया को अपने सस्ते सामान का मोहताज बनाने वाले चीन की चाल से पर्दा अब उठ चुका है. जहां एक तरफ़ कोरोना ने पूरी दुनिया को अपने चंगुल में फंसा लिया है, वहीं कोरोना के प्रकोप से पहले चीन दुनिया के सभी बाज़ारों को अपनी गिरफ़्त में ले चुका था. कोरोना ने सस्ते सामान के लिए चीन पर निर्भर देशों को एक बड़ा सबक़ भी सिखाया है. सस्ते माल से होने वाले मुनाफ़े ने कारोबारियों को चीन की ओर आकर्षित किया और उसका नतीजा हुआ घरेलू उत्पादन उद्योग का धीरे धीरे ख़त्म होना.


दुनिया की हर बड़ी कंपनी चीन में माल बनाती और बेचती है. मतलब अमेरिका हो या इटली सब चीन पर निर्भर हैं. एक्सपर्ट भी मानते हैं कि कोरोना संकट को भयानक बनाने में चीन पर निर्भरता का बड़ा योगदान है.


कोरोना का यही वो सबसे बड़ा सबक है. जिसे भारत को भी याद रखना होगा. क्योंकि भारत भी दुनिया की तरह हर छोटे-बड़े सामान के लिए चीन का मोहताज है. भारत में भगवान की मूर्ति से लेकर खिलौने तक. कपड़े से कंप्यूटर तक. सारा बाजार मेड इन चाइना सामान से पटा है. होली हो या दिवाली चीन के सामान का एकक्षत्र राज है.


भारत में चीन की दखल हर जगह है. उसमें भारत का गैर-पारंपरिक ऊर्जा क्षेत्र भी शामिल है. संसद की वाणिज्य मंत्रालय से संबंध रखने वाली स्थाई समिति ने साल 2018 में एक रिपोर्ट दी थी. रिपोर्ट के मुताबिक, चीन ने सस्ते सोलर पैनल भारत के बाजार में भेज दिये जिससे आधी घरेलू उत्पादन क्षमता बेकार हो गई है और करीब 2 लाख नौकरियां भी चली गई. रिपोर्ट के अनुसार भारत साल 2006-07 से 2011 तक खुद सोलर पैनल बनाता था, साथ ही जर्मनी, इटली, फ्रांस जैसे देशों को बेचता था. लेकिन चीन के सस्ते सोलर पैनल की डंपिंग से भारतीय निर्यात लगभग थम गया.


चीन की दौलत में सबसे बड़ी हिस्सेदारी उसके निर्यात की है, जो मैन्यूफैक्चरिंग पर टिका है. जिसने चीन को मालामाल कर दिया है. लेकिन चीन की इस अमीरी ने उसके लिए मुश्किलें भी खड़ी कर दी हैं. साल 2010 में दुनिया का एक तिहाई सामान अकेले बनाने वाले चीन में मजदूरी महंगी हो गई है. वर्ष 1990 में चीन में सालाना मजदूरी 11,475 रुपये थी, जो 2005 में बढ़कर 1 लाख 53 हजार रुपये हो गई है. 2015 में 6 लाख 80 हजार रुपये और आज ये बढ़कर तकरीबन 10 लाख 32 हजार रुपये हो चुकी है. यानी पिछले 30 साल में चीन की फैक्ट्री में काम करने वाले मजदूरों का वेतन 8900% गुना बढ़ चुका है.


इस तरह चीन में सामान बनाना अब उतना सस्ता नहीं रह गया है. कोरोना वायरस ने बड़ी-बड़ी कंपनियों को चीन से बाहर देखने का एक और मौका दे दिया है और वो विकल्प की तलाश में हैं. अब सवाल ये है कि चीन से उठकर ये विदेशी कंपनियां किस देश में जाएंगी. किसे इसका फायदा मिलेगा? ऐसे में तीन देशों (वियतनाम, मेक्सिको और भारत) के बीच प्रतियोगिता है.


कोरोना वायरस भारत के लिए आपदा तो है ही, लेकिन अवसर भी है. क्योंकि भारत के पास चीन जितना बड़ा बाजार है. उससे कई गुना मैन पावर हैं. भारत को आज रोजगार की सख्त जरूरत है क्योंकि देश 1991 से भी बड़े आर्थिक संकट का सामना कर रहा है.


हालात ये हैं कि करीब पांच महीने पहले चीन के वुहान शहर से निकला कोरोना वायरस (COVID-19) दुनिया के देशों को चपेट में ले चुका है और अमेरिका और यूरोपीय देशों में जरूरी सामानों की कमी होने लगी है. बैक अप प्लान न होने से मास्क तक के लाले पड़ गए. क्योंकि चीन में दुनिया का 80 फीसदी मास्क, 90 फीसदी पर्सनल कंप्यूटर, 90 फीसदी मोबाइल फोन, 70 फीसदी टेलीविजन, 53 फीसदी कपड़े और 45 फीसदी कार्गो शिप बनता है और सारी दुनिया में जाता है.


आर्थिक विशेषज्ञ विजय सरदाना कहते हैं, ''चीन ने पूरी दुनिया को मैप किया, उसने देखा कि कारोबारी को देशभक्ति से लेना देना नहीं है, उसे प्रॉफिट से लेना देना है. उन्होंने मास स्केल पर प्रॉडक्शन शुरू किया. बोला कि आप जो माल खुद बना रहे हो उसमें आपको मार्जिन मिल रहा है 10 फीसदी, हम आपको 20 फीसदी देंगे. चीन कारोबारियों को समझता है कि उन्हें सिर्फ पैसे से मतलब है. लोग ट्रैप में आते गए, चीन से खरीदते गए. उसने दुनियाभर के देशों की क्षमता खत्म कर दी. आपको मोहताज बना दिया. आज भले ही दुनिया नाराज हो, लेकिन चीन से माल लेने को मजबूर है.''


भारत जो सामान बनाता था, चीन, भारत में वही समान सस्ते दाम में बेच रहा है, जिससे भारत उसपर निर्भर हो गया और रोजगार के अवसर छिन गए. चीन पर भारत की निर्भरता दवा बनाने को लेकर भी है. जेनेरिक दवाएं बनाने और उनके निर्यात में भारत बहुत आगे है. लेकिन इसके कच्चे माल के लिए भारत चीन के भरोसे है. साल 2019 में भारत ने 201 देशों को जेनेरिक दवाएं निर्यात कर 1.46 लाख करोड़ रुपये कमाए. लेकिन चीन में कोरोना वायरस फैलने की वजह से दवाओं के लिए आने वाला कच्चा माल बुरी तरह प्रभावित हुआ और इस वजह से भारत की दवा कंपनियां मुश्किल में हैं.


चीन का बिजनेस मॉडल


चीन का बिजनेस मॉडल बहुत सीधा है. मान लीजिए उसे भारत में खिलौने बेचने हैं, तो वो भारतीय खिलौनों का रेट पता करेगा और फिर बड़े पैमाने पर खिलौने बनाकर उसे सस्ते रेट में भारत के बाजार में भर देगा. दिवाली में सजाई जाने वाली लड़ियां, जो पहले 70-80 रुपये में बिका करती थीं, चीन ने पहले उसे आधे से भी कम दाम पर बेचना शुरू किया और जब मार्केट पर कब्जा हो गया तो फिर उसकी कीमत बढ़ा दी. नतीजा ये हुआ कि बाजार से भारत का सामान बाहर होता चला गया और चीन के माल का दबदबा बढ़ गया. जिसका सीधा असर भारत के छोटे उद्योग पर पड़ा. भारतीय कारोबारी चीन का माल बेचने को मजबूर हो गए.


दिल्ली के कारोबारी देवरा बवेजा इसके उदाहरण हैं. जो LPG स्टोव की असेंबलिंग और ट्रेडिंग करते हैं. बवेजा कहते हैं, “चीन का माल सस्ता पड़ता है. वो सब स्टेंडर्ड माल का डंपिंग ग्राउंड बना है. मेक इन इंडिया पर जोर है फिर भी चीन का मुकाबला करने में छोटे उद्योग असमर्थ हैं. उसकी लागत सस्ती है, हम मजबूरी में माल लाते हैं. क्योंकि यहां महंगा पड़ता है.”


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ये सच्चाई चीन की उस कुटिल व्यापार नीति का हिस्सा है, जिसके दम पर चीन ने सस्ते माल का लालच देकर भारतीय अर्थव्यवस्था पर कब्ज़ा कर लिया है. भारत और चीन के बीच 2007-08 में जो व्यापार 2 लाख 90 हजार करोड़ रुपये (38 अरब डॉलर) का था, वो 2017-18 में बढ़कर 6.85 लाख करोड़ रुपये (89.6 अरब डॉलर) का हो गया. इस दौरान चीन से आयात 3 लाख 82 हजार करोड़ रुपये (आयात 50 अरब डॉलर) बढ़ा जबकि भारत से चीन का निर्यात सिर्फ 19 हजार करोड़ रुपये (2.5 अरब डॉलर) बढ़ सका. मतलब सिर्फ 10 साल में चीन ने भारत को अपने माल से भर दिया. भारत का कुल व्यापार घाटा 12.86 लाख करोड़ रुपये है.


यानी दूसरे देशों की तरह भारत भी चीन पर निर्भर है, जो भारतो को कभी भी मुश्किल में डाल सकता है. जानकारों का कहना है कि वक्त आ गया है कि भारत चीन का विकल्प ढूंढना शुरू करे. इसमें वियतनाम, जापान और दक्षिण पूर्वी देश शामिल हैं. जिनसे कारोबार बढ़ाकर चीन पर निर्भरता कम की जा सकती है.


लेकिन एक देश को छोड़कर दूसरे देश पर निर्भर होना, कितनी सही रणनीति होगी? यही वजह है कि आर्थिक जानकार कहते हैं सरकार मेक इन इंडिया को नए सिरे से मजबूत करे. जो भारत को आत्मनिर्भर करने के साथ-साथ रोजगार भी मुहैया करवा सकता है, जिसकी देश को इस वक्त सबसे ज्यादा जरूरत है.


चीन के बैंकों की कीमत 40 ट्रिलियन डॉलर यानी 3063 लाख करोड़ रुपये है और भारत की अर्थव्यवस्था तकरीबन 3 ट्रिलियन यानी 215 लाख करोड़ रुपये है. मतलब ये कि चीन की बैंकों की संपत्ति भारत की अर्थव्यवस्था से तकरीब 14 गुना ज्यादा है. आज दुनिया के सबसे बड़े बैंक चीन के पास हैं.


दुनियाभर की एजेंसियां बता रही हैं कि भारत की ग्रोथ रेट 1.5% से 2% के आसपास रह सकती है. 1991 में भी यही हालात थे. तब देश की विकास दर 1.1 फीसदी तक गिर गई थी. लेकिन पिछले 29 सालों में भारत बदल चुका है. भारत की अर्थव्यवस्था का आकार 1991 के मुकाबले 34 गुना बढ़ चुका है. समझने वाली बात ये है कि मौजूदा आर्थिक संकट का दायरा 34 गुना ज्यादा बड़ा है.


सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इकॉनमी ने बताया है कि लॉकडाउन की वजह से महीने भर में बेरोजगारी की दर 8.4% से बढ़कर 23% हो गई है. जानकार कहते हैं कि अगर सरकार ने 1991 जैसे बड़े आर्थिक सुधार नहीं किए तो भारत अपने सबसे गहरे आर्थिक संकट में फंस जाएगा. जिससे निकलने में बरसों लग सकते हैं. क्योंकि 1991 के आर्थिक संकट में भारत के पास आयात के लिए डॉलर नहीं थे. मगर दुनिया भारत से बेहतर स्थिति में थी. लेकिन आज भारत के साथ सारी दुनिया संकट में है. तो अब सवाल ये है कि बचने का रास्ता क्या है?


आर्थिक विशेषज्ञ विजय सरदाना कहते हैं, ''भारत सरकार छोटे उद्योगों पर ध्यान दे, हमें रोजगार की ज्यादा जरूरत है. जॉब सिर्फ छोटे उद्योग और कृषि दे सकती है. अगर इस देश को जॉब चाहिए तो आपको छोटे उद्योगों पर फोकस करना होगा. चीन ने अपने छोटे उद्योगों को यूनिवर्सिटी के साथ जोड़कर मजबूत किया था. उन्हें ट्रेनिंग दी, टेक्निकल स्किल देकर उनको सपोर्ट देकर. हमें भी वो करना पड़ेगा.''


एक्सपर्ट मानते हैं कि छोटे उद्योग ही वो संजीवनी हैं, जो अर्थव्यवस्था की बेहोशी को तोड़ सकती है. इससे फायदा ये होगा कि भारत में ही माल बनने से लोगों को रोजगार मिलेगा. सरकार को टैक्स मिलेगा और चीन पर निर्भरता भी कम होगी. लेकिन क्या ये कहने जितना आसान है? आखिर भारत में छोटे उद्योग दम क्यों तोड़ रहे हैं. इसकी असल वजह प्रवीण खंडेलवाल ने बताई.


6 करोड़ से ज्यादा छोटे व्यापारियों का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्था CAIT के महासचिव प्रवीण खंडेलवाल ने कहा, ''हर क्षेत्र में प्रोडक्शन कर सकते हैं, चीन की सरकार इंडस्ट्री को प्रोटेक्ट करती है, छूट देती है, एक ही डिमांड ज्यादा उत्पादन करो, हमारी डॉमस्टिक इंडस्ट्री दम तोड़ रही हैं, फाइनेंस, तकनीक की दिक्कत. बिजली का भार रहता है, लेबर रहता है, इतने कानून में बंधा, चीन में सिर्फ प्रॉडक्शन बढ़ाने का लक्ष्य, हमारे यहां 25 कानून हैं. ये अवसर है हिंदुस्तान के लिए हम चीन का विकल्प बना सकते हैं.''


इस तरह भारत चीन का चक्रव्यूह तोड़ सकता है, बशर्ते सरकार का सहयोग मिले और कारोबारी ईमानदार प्रयास करें. नई दिल्ली के चांदनी चौक में बच्चों के खिलौनों के बड़े कारोबारी ने चीन के बिजनेस मॉडल से सबक लिया और अब उसी के माल को टक्कर दे रहे हैं. मेक इन इंडिया की नीति को अपना रहे हैं. जानकार मानते हैं कि इस कार्यक्रम की कामयाबी में देश की दशा और दिशा बदलने की क्षमता है. लेकिन उसके लिए सरकार को पहले से ज्यादा गंभीरता और गहराई में जाकर काम करना होगा.


विजय सरदाना कहते हैं, ''आयात की लिस्ट बनाएं, इंडस्ट्री के सामने रखें पूछें कि हम आपको सपोर्ट करेंगे आप ये बनाएं, प्राथमिकता ये होनी चाहिए कि जो आयात कर रहे हैं उसका विकल्प भारत में बनाएं, जब ये हो जाए तो चीन जो निर्यात कर रहा है उसका डेटा अपनी कंपनियों को दीजिए. बोलिए आप क्यों एक्सपोर्ट नहीं कर पा रहे, उद्योगपति अपनी समस्याएं बताएंगे. आप उन्हें सोल्व करिए आप चीन का विकल्प बन जाएंगे. सरकार को खुले दिमाग से प्लान बनाना होगा, चीन बाजार को देखकर प्लान बनाता है, हम बाजार को कहते हैं कि ये प्लान है फॉलो करो. बाजार के हिसाब से चलेंगे तो सफल होंगे.''


यहां एक बात समझनी जरूरी है. वो ये कि चीन भले ही भारत विरोधी हो लेकिन उसने अपने उद्योगों के लिए भारत से बेहतर फैसले लिए हैं. भारत ऐसा नहीं कर सका, इसीलिए आज रोजगार और मांग की कमी से जूझ रहे हैं. कोरोना की एंट्री से पहले अर्थव्यवस्था हांफ रही थी. जिसकी हालत कोरोना के झटके ने और खराब कर दी. शिशिर सिन्हा जैसे आर्थिक जानकारों का मानना है कि अब वक्त आ गया है कि सरकार आम आदमी के हाथ में पैसे दे.


सिन्हा कहते हैं, ''आर्थिक सुधार का मतलब लोगों को हाथ में पैसे दें, खर्च करेंगे तो मांग बनेगी, कंपनियां उत्पादन करेंगी रोजगार के मौके बनेंगे, अर्थव्यवस्था चलेगी. सुधार का केंद्र बिंदु आम आदमी है, उसे पैसा संसाधन देना है.''


ये सब तब होगा जब जनता सरकार का साथ देगी. जिस तरह से देश कोरोना के खिलाफ प्रधानमंत्री की एक अपील पर घरों में सोशल डिस्टेंसिंग के व्रत का पालन कर रहा है. उसी तरह जनता को भी आर्थिक सुधार से जुड़े फैसलों में सरकार का साथ देना होगा. सरकार को चीन की तरह सबसे पहले देशहित रखकर दूर की सोच वाले फैसले लेने होंगे.


चीन ने साल 2018 में रिसर्च और डिवेलवमेंट में 22.42 लाख करोड़ रुपये का निवेश किया है. ऐसा करने वाला चीन दूसरे नंबर का देश है. सीधी बात है, चीन अपने नागरिकों में लंबी अवधि का निवेश कर रहा है. अपने अफसरों को दुनिया की टॉप और बेहतरीन यूनिवर्सिटी में पढ़ने के लिए भेज रहा है. जिसने चीन को अमेरिका के सामने एक मजबूत आर्थिक ताकत बना दिया है.


26 जुलाई 2018 को नरेश गुजराल की अध्यक्षता वाली स्टैंडिंग कमिटी ऑन कॉमर्स ने एक रिपोर्ट दी. जिसका नाम था, भारतीय उद्योग पर चीनी उत्पादों का प्रभाव. नरेश गुजराल की अध्यक्षता वाली स्टैंडिंग कमिटी ने समस्याओं को बताते हुए उससे निकलने के कुछ सुझाव भी दिये-


समस्या- कमेटी ने पाया कि चीन लागत से कम दाम पर भारत के बाजार में अपने उत्पाद भेज रहा है.
सुझाव- कमेटी ने सिफारिश की कि चीन से आने वाले ऐसे उत्पादों पर एंटी डंपिंग ड्यूटी को ज्यादा तर्कसंगत बनाया जाये.


समस्या- कमेटी ने ये भी पाया कि 2016-17 में चीन से स्मगलिंग के जरिये भारत पहुंचे 1024 करोड़ रुपये के चीनी उत्पाद पकड़े गये.
सुझाव- सुझाव ये दिया कि DRI में ज्यादा लोगों की नियुक्ति कर इसपर रोक लगाई जाये.


समस्या- कमेटी का कहना था कि भारतीय असंगठित रिटेल क्षेत्र में कम गुणवत्ता वाले चीनी सामान की भरमार है, जिससे देश में बनने वाली अच्छी गुणवत्ता के सामान की बिक्री कम हो रही है.
सुझाव- इसके लिए कमेटी ने सुझाव दिया कि चीन से आने वाले उत्पादों पर ज्यादा से ज्यादा टैक्स लगाया जाये और देश के कच्चे माल पर टैक्स कम किया जाये.


समस्या- कमेटी के मुताबिक फार्मा उद्योग में चीन से आयात होने वाले कच्चे माल पर भारत की निर्भरता 90% तक है.
सुझाव- इसके लिए सुझाव देते हुए कमेटी ने कहा कि भारतीय फार्मा उद्योग के साथ मिलकर लंबी योजना बनाने की जरूरत है.


समस्या-नेशनल सोलर मिशन की 84% जरूरत चीन से आयात के जरिये पूरी हो रही हैं, जिसे चीन अपनी लागत से भी कम पर भारत को दे रहा है.
सुझाव- इसके लिए कमेटी ने सिफारिश की कि ऐसे सामानों पर एंटी डंपिग ड्यूटी लगाई जाये और गुणवत्ता पर भी पैनी नजर रखी जाये.


समस्या- कमेटी ने पाया कि भारत का बांग्लादेश जैसे देश से फ्री ट्रेड एग्रीमेंट है इसके चलते चीन का सस्ता फैब्रिक पहले बांग्लादेश जाता है फिर कपड़े की शक्ल में भारत पहुंच जाता है.
सुझाव- कमेटी ने सिफारिश की कि ऐसे फ्री ट्रेड एग्रीमेंट पर फिर से विचार करने की जरूरत है.


भारत में दशकों बाद एक पार्टी की बहुमत वाली दोबारा सरकार है. लोकसभा-राज्यसभा में सत्ताधारी पार्टी का दबदबा है. भारत के पास वो हर चीज है, जिसकी कल्पना एक देश कर सकता है. जरूरत है तो बस भारत को सामने रखकर देश को नए आर्थिक सुधारों के रास्ते पर ले जाने की.