नई दिल्ली: आज की पुरानी दिल्ली या मुगल काल का शाहजहांनाबाद, जो भी कहें लेकिन कुछ तो है इस शहर में कि एक बार जो इस शहर में आकर कुछ दिनों के लिए भी रह गया वह कभी यहां से जाना नहीं चाहता. ग़ालिब हो या शेख़ इब्राहीम ज़ौक़ सब इस शहर में बाहर से आकर बसे और फिर चाह कर भी इस शहर को छोड़ कहीं और न जा सके. शेख़ इब्राहीम ज़ौक़ ने तो कहा भी कि


इन दिनों गरचे दकन में है बड़ी क़द्र-ए-सुख़न
कौन जाए 'ज़ौक़' पर दिल्ली की गलियां छोड़ कर


दिल्ली शहर की पहचान केवल राजनीति के लिए नहीं है बल्कि इस शहर की अपनी एक सांस्कृतिक विरासत भी है जिसपर हर दिल्ली वाला नाज़ करता है. मुगलकालीन इमारतें इस शहर की भव्यता में चार चांद लगाते हैं. हालांकि बदलते दौर के साथ इस शहर की रंगत भी बदलती गई. वक्त के साथ ऐतिहासिक जगहों का नवीनीकरण हो गया है. इसके बावजूद भी इस शहर की मुगलकालीन इमारतें चाहे वह 'हुमायूं का मकबरा' हो या 'लाल किला' या फिर 'जामा मस्जिद', सबकी खूबसूरती आज भी बरकरार है. इन सबके अलावा भी कई अन्य जगहों पर मुगलकालीन आर्किटेक्ट की खूबसूरती देखते ही बनती है.


दिल्ली में एक ऐसी ही जगह है चांदनी चौक जहां अक्सर दोस्तों की महफिल आज भी जमा करती है. वहां के बाजार लोगों के लिए सबसे पसंदीदा बाजारों में एक हैं, लेकिन क्या आपको इस बाजार के निर्माण से जुड़ी ऐतिहासिक कहानी पता है. अगर नहीं तो हम आपको आज वह कहानी बताने जा रहे हैं. चांदनी चौक की वह कहानी जो मुगल बादशाह शाहजहां की बेटी जहांआरा बेगम से जुड़ी है. जहांआरा बेगम जिनका इंतकाल आज ही के दिन सन् 1681 में हुआ था.



चांदनी चौक जिसे शाहजहां ने अपनी बेटी जहांआरा बेगम के लिए बनाया था


दिल्ली दिलवालों का शहर है और दिलवालों को घूमना बेहद पसंद होता है. बात घूमने की हो और वह भी दिल्ली में तो जो नाम सबसे पहले दिमाग में आता है वह है चांदनी चौक का. चांदनी चौक दिल्ली की वह जगह है जहां इतिहास और वर्तमान का मिला-जुला संगम दिखता है. यहां के बाजार पूरी दुनिया में मशहूर है. विदेशों से कई सैलानी यहां घूमने आते हैं. दिल्ली में चांदनी चौक का अपना एक इतिहास है. आज हम उसी इतिहास के बारे में बात करने जा रहे हैं.


दिल्ली के इतिहास की बात हो और मुगल सल्तनत का जिक्र न हो तो बेईमानी होगी. चांदनी चौक का इतिहास भी मुगलों के दौर से जुड़ा है. उस वक्त दिल्ली की गद्दी पर शाहजहां बैठा था. शाहजहां ने ही चांदनी चौक बनवाया था. कहा जाता है कि उसने यह जगह अपनी बेटी जहांआरा बेगम के लिए बनवाई थी. दरअसल जहांआरा को खरीदारी का बहुत शौक था और इसलिए शाहजहां ने सोचा क्यों न एक ऐसी जगह बनाई जाए जहां बड़ा सा बाजार लगे और जहांआरा को सारी चीजे वहीं मिल जाए.


बस फिर क्या था शाहजहां ने हुक्म दिया और 1650 ई में चांदनी चौक को बनाने की प्रक्रिया शुरू हो गई. इस बाजार को एक खास तरह के डिजाइन के साथ बनाया गया. इसको चकोर आकार में बनाया गया. इसे इस तरह बनाया गया कि इसके चारों ओर बाजार लग सके.



चांदनी चौक नाम कैसे पड़ा


चांदनी चौक के बीच का हिस्सा एक नदी के लिए छोड़ा गया था. जब चांदनी चौक में व्यापारियों ने बाजार लगाना शुरू कर दिया तो रात के समय वहां बड़ा ही सुंदर दृश्य हुआ करता था. चांद की चांदनी जब नदी में पड़ती थी तो देखने वाले देखते ही रह जाते थे. इसी सौंदर्य के कारण जगह का नाम चांदनी चौक पड़ा.


धीरे-धीरे चांदनी चौक के बाजार में व्यापार बढ़ने लगा. जो बाजार शाहजहां ने जहांआरा के लिए बनाया था, उस जगह पर अब आम लोग भी आने-जाने लगे. शुरुआती दिनों में चांदनी चौक में चांदी का कारोबार जमकर चला. फिर समय के साथ अन्य चीजें भी बिकने लगीं और बाजार का रौनक दिन-प्रतिदिन बढ़ती चली गई.


चांदनी चौक समय के साथ एक नए बाजार में तब्दील हुआ. यहां अब किताबों के शौकीनों के लिए बुक मार्केट भी है. इसके अलावा यहां चोर बाजार भी है जो पूरी दुनिया में चोरी के सामान के लिए फेमस है. दुनिया भर में मसालों की वजह से भारत की पहचान है और इसी पहचान का एक बाजार 'खारी बावली' भी यहीं है. यहां आज पास में किनारी बाज़ार, मोती बाज़ार और मीना बाज़ार जैसे कई और मशहूर बाज़ार भी हैं जहां रोज हजारों लोगों की भड़ लगती है.


गंगा-जमुनी तहजीब की पहचान है चांदनी चौक


चांदनी चौक एक मुगल ने जरूर बसाया था लेकिन यह जगह किसी एक धर्म विशेष की बनकर नहीं रही. यहां भारत की गंगा-जमुनी तहजीब को पहचान मिलती है. यहां की दिगंबर जैन लाल मंदिर हो या गौरी शंकर मंदिर. आर्य समाज दीवान हॉल हो या सेंट्रल बैपटिस्ट चर्च. गुरुद्वारा सीस गंज साहिब हो या फिर फतेहपुरी मस्जिद, यहां पर हर धर्म के लिए कुछ न कुछ मौजूद है.


चांदनी चौक का खाना


जो लोग खाने के शौकीन हैं उन्हें एक बार चांदनी चौक की पराठे वाली गली जरूर जानी चाहिए. यहां कई वर्षों से अलग-अलग तरह के पराठे मिलते हैं. इसके अलावा भी चांदनी चौक की गलियां खाने-पीने के अलग-अलग चीजों के लिए प्रसिद्ध हैं. दिल्ली ही नहीं देश-विदेश से भी खाने के शौक़ीन यहां आकर अपना शौक पूरा करते हैं. दही-भल्ले, चाट-पकौड़ी, जलेबी, फालूदा आइसक्रीम आप जो चाहें खाने को मिल सकता है.



कौन थी जहांआरा बेगम


जहांआरा मुगल बादशाह शाहजहां और मुमताज महल की सबसे बड़ी बेटी थी. जहांआरा का जन्म 23 मार्च 1614 में हुआ था. वह फारसी पद्य और गद्य की अच्छी समझ रखती थी. जहांआरा को शेरों-शायरी का भी शौक था. उन्होंने फ़ारसी में दो ग्रंथ भी लिखे थे. मुमताज महल की मौत के बाद शाहजहां के लिए बेटी जहांआरा और बेटा दारा शिकोह ही सबसे अधिक विश्वासपात्र थे. शाहजहां के चारो बेटे और अपने भाईयों के बीच सत्ता संघर्ष को रोकने का भी जहांआरा ने काफी प्रयास किया लेकिन वह सफल नहीं हो पाई. अपने सभी भाईयों में वह दारा सिकोह से सबसे अधिक मुहब्बत करती थी.


जब औरंगजेब ने शाहजहां को बंदी बना लिया और दारा शिकोह को मारकर मुगल सल्तनत का ताज अपने सर पर पहन लिया तब भी जहांआरा ने अपने पिता शाहजहां के साथ आगरा के क़िले में रह कर उसकी मृत्यु (जनवरी, 1666 ई.) तक सेवा की. इसके बाद वह कुछ दिनों तक लाहौर के संत मियां पीर खां की शिष्या बनी रही और फिर 16 सितंबर, 1681 ई. को जहांआरा की मृत्यु हुई.



शाहजहांनाबाद शहर को बसाने में निभाई महत्वपूर्ण भूमिका


1648 में शाहजहांनाबाद शहर की स्थापना हुई. इस शहर की 19 में से 5 इमारतें जहांआरा बेगम की देखरेख में बनी थीं. शाहजहांनाबाद का पूरा नक्शा जहांआरा ने बनावाया था. जहांआरा एक ऐसी शख़्सियत थी जो शाहजहां की बेटी, औरंगजेव की बहन होने से पहले एक ऐसी मुक्कमल शख़्सियत थी जो आवाम के बीच भी काफी लोकप्रिय थी.