लेह: सेना की पुरानी कहावत है कि युद्ध के मैदान में जाने के लिए सैनिकों को पेट के बल जाना पड़ता है यानि 'आर्मी मार्चेस ऑन स्टोमेक'. अगर सैनिक का पेट खाली रहा तो वो जंग नहीं लड़ पाएगा. यही वजह है कि लद्दाख से सटी चीन सीमा पर तैनात सैनिकों को फ्रेश यानि ताजा खाना मिलता रहे उसके लिए लेह स्थित डीआरडीओ की एक लैब सैनिकों को ना केवल ताजा खाना मुहैया करा रही है बल्कि पूर्वी लद्दाख में हाई ऑल्टिट्यूड पर पैट्रोलिंग से लेकर हथियार और राशन पहुंचाने के लिए पोनी और ऊंट तैयार कर रही है.
एबीपी न्यूज की टीम खुद यहां पहुंची और जाना कि किस तरह से 1962 के युद्द के बाद से ही लेह स्थित डिफेंस इंस्टीट्यूट ऑफ हाई ऑल्टिट्यूड रिसर्च (डीआईएचएआर या डिहार) देश की रक्षा में जुटी सेना की सेवा कर रही है.
डीआईएचएआर दो प्रकार से सेना की मदद करती है. पहला है पूर्वी लद्दाख के दूर-दराज इलाकों में चीन सीमा पर तैनात सैनिकों को फ्रेश-फूड, फल, मीट सहित खास तरह के सीबकथ्रोन-जूस मुहैया कराना जिससे सैनिक तरो-ताजा रहते हैं और थकान नहीं होती है. इसके अलावा विटामिन और एंटी-ऑक्सीडेंट भी उन्हें मिलता रहता है.
दरअसल, लद्दाख का एक बड़ा हिस्सा कोल्ड-डेजर्ट यानि ठंडा रेगिस्तान है. इसके चलते यहां सब्जी हो या फल या बेहद मुश्किल से मिलते है. लेकिन देश के दूर-दराज और बेहद उंचाई पर होने के चलते कई महीनों तक ये इलाका देश के बाकी हिस्सों से कटा रहता है. ऐसे में चीन सीमा हो या करगिल, द्रास या फिर पाकिस्तान से सटा सियाचिन इलाका, वहां सैनिकों को ताजा भोजन मुहैया कराना एक बड़ी चुनौती था. यहां तक की जो फल और सब्जी मैदानी-क्षेत्रों में आसानी से उग जाते हैं वो यहां नहीं उग पाते हैं.
डीआईएचएआर के निदेशक, डॉ ओ पी चौरसिया के मुताबिक, इस लैब को यहां स्थापित करने का मकसद यही था कि लेह-लद्दाख की जलवायु के प्रति ऐसी सब्जियां और फलों को तैयार करना जिन्हें यहां के स्थानीय लोग और किसान भा उगा सकें. डीआईएचएआर ने अब यहां 101 तरह की सब्जियों की प्रजाति तैयार की हैं. इनमें एक गोभी तो 14 किलो तक की होती है और कद्दू 50 किलो तक का होता है. यहां तैनात वैज्ञानिक, डॉक्टर दोरजे के मुताबिक, डीआईएएआर लैब इस तकनीक और इन सब्जियों के बीज को स्थानीय किसानों और कॉपरेटिव सोसायटी को मुहैया कराती है. फिर वे किसान मास-स्केल यानि बड़े इलाके में खेती कर इन सब्जियों और फल इत्यादि को सेना की यूनिट तक पहुंचा देती है ताकि सैनिकों को ताजी सब्जियां इत्यादी मिलती रहे.
सब्जियों और फलों के अलावा डीआरडीओ यानि देश के सबसे प्रतिष्ठित रक्षा संस्थान, डिफेंस रिसर्च एंड डेवलपमेंट ऑरगेनाइजेशन की लेह स्थित लैब ने लद्दाख में पाए जाने वाले एक जंगली पेड़ और उसपर लगने वाले जंगली-फल पर एक लंबी रिसर्च कर पायई कि ये पेड़ ना केवल एंटी-ऑक्सिडेंट का एक बड़ा स्रोत है बल्कि इसके फल में आंवले से करीब दस गुना विटामिन-सी पाया जाता है. इसे सीबरथ्रोन या फिर लेह-बेरी के नाम से भी जाना जाता है.
सीबकथ्रोन पर लंबे समय से रिसर्च कर रहे साईंटिस्ट, डॉक्टर टी श्टोबडेन के मुताबिक, इस फल के जूस के पीने से सैनिकों को उंचे पर्वत वाले इलाकों में स्ट्रेस यानि थकान और तनाव नहीं होता, जो हाई ऑल्टिट्यूड में तैनाती के दौरान हो जाता है. सैनिकों तक ये जूस अधिकाधिक पहुंच सके इसके लिए डीआईएचएआर प्राईवेट कंपनियों से भी संपर्क कर रही है ताकि जूस कई सप्लाई को बढ़ाया जा सके. कुछ समय पहले डीआरडीओ ने इस बावत रामदेव की पतंजलि कंपनी से भी करार किया था लेकिन वो अधिक सफल नहीं हो पाया. लेह प्रशासन का होरटीकल्चर विभाग भी इसका जूस तैयार करता है
सैनिकों के खान-पीन के अलावी डीआईएचएआर लैब जानवरों पर भी काम करती है ताकी सेना को दूर-दराज और हाई-आल्टिट्यूड इलाकों में पैट्रोलिंग के लिए इन स्थानीय जानवरों को तैयार किया जा सके. करगिल युद्ध के दौरान सेना को करगिल और द्रास सेक्टर में राशन से लेकर हथियार तक पहुंचाने में जंसकार-पोनी ने बेहद मदद की थी. सेना की आरसीवी यानि रिमोउंट एंड वेटनरी कोर की मदद से इस लैब ने जंसकार-पोनी को तैयार किया था (लद्दाख की जंसकार वैली यानि घाटी में ये खास तरह के पोनी यानि खच्चर पाए जाते हैं).
डीआईएचएआर की एनीमल रिसर्च यूनिट में तैनात वैज्ञानिक, स्वाति सिंह ने एबीपी न्यूज को बताया कि लद्दाक की नुब्रा वैली में पाए जाने वाले डबल-हंप कैमल यानि ऊंटों पर अब यहां काम चल रहा है ताकि चीन से सटी पूर्वी लद्दाख की सीमा पर इन ऊंटों को सेना की यूनिट्स के साथ तैनात कर दिया जाए. इन ऊंटों को यहां सेना के सामान ढोने की ट्रेनिंग दी जा रही है.
आपको बता दें कि पूर्वी लद्दाख ही वो इलाका है जहां की गलवान घाटी, गोगरा, हॉट-स्प्रिंग और डेपसांग प्लेन्स में भारतीय सेना का चीनी सेना से टकराव चल रहा है. करीब 14-15 हजार फीट की ऊंचाई वाले इन इलाकों में सड़क नहीं हैं और ट्रैकिंग करके एलएसी यानि लाइन ऑफ एक्चुयल कंट्रोल पर पहुंचा जा सकता है.
प्राचीन काल में चीन और तिब्बत से लद्दाख के जरिए सेंट्रल एशिया यानि मध्य एशिया तक जाने वाले सिल्क-रूट पर व्यापारी अपना सामान इन डबल-हंप उंटों पर ही ले जाते थे. यही वजह है कि डीआईएचएआर इन ऊंटों को भारतीय सेना के लिए इस्तेमाल करना चाहती है. सूत्रों ने बताया कि कुछ उंटों को तो सेना के साथ इनदिनों चीन सीमा पर तैनात कर भी दिया गया है. डॉक्टर स्वाति के मुताबिक, क्योंकि लद्दाख में डबल हंप कैमल कई संख्या कम है इसलिए राजस्थान में पाए जाने वालए ऊंटों को भी यहां लैब में लाया गया है ताकि उन्हें भी ट्रेनिंग देकर चीन सीमा पर सैनिकों की मदद के लिए भेज दिया जाए.