नई दिल्ली: अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश से आए गैर-मुस्लिम शरणार्थियों को भारत की नागरिकता देने के खिलाफ दायर याचिका पर सुनवाई 2 हफ्ते टल गई है. याचिकाकर्ता इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग के वकील कपिल सिब्बल ने आज सुप्रीम कोर्ट से केंद्र के हलफनामे पर जवाब देने के लिए समय की मांग की. इसे कोर्ट ने मान लिया. केंद्र ने कहा है कि इस प्रक्रिया को CAA से जोड़ना गलत है. नागरिकता के आवेदन 1955 के कानून के आधार पर लिए जा रहे हैं.
किस आदेश का हो रहा है विरोध?
28 मई को जारी आदेश के तहत केंद्र सरकार ने 13 जिला कलेक्टरों को नागरिकता के आवेदन पर विचार कर निर्णय लेने की शक्ति दी है. यह जिले हैं :-
• मोरबी, राजकोट, पाटन, वडोदरा (गुजरात)
• दुर्ग, बलौदाबाजार (छत्तीसगढ़)
• जालौर, उदयपुर, पाली, बाड़मेर, सिरोही (राजस्थान)
• फरीदाबाद (हरियाणा)
• जालंधर (पंजाब)
केंद्र की तरफ से नागरिकता आवेदन पर विचार की शक्ति ज़िला कलेक्टरों को देने को याचिकाकर्ता मुस्लिम लीग ने नागरिकता संशोधन कानून, 2019 यानी CAA लागू करने की कोशिश बताया है. 2019 में CAA के मसले पर पहली याचिका दाखिल करने वाली इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग ने एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है. लीग की याचिका में कहा गया है कि नए कानून के तहत नियम नहीं बने हैं. लेकिन नागरिकता आवेदन पर विचार किया जा रहा है. यह गैरकानूनी है. कोर्ट इस पर रोक लगाए.
केंद्र का हलफनामा
केंद्र ने कल दाखिल हलफनामे में यह साफ किया है कि 28 मई को जारी आदेश का 2019 में पारित नागरिकता संशोधन कानून से संबंध नहीं है. 13 ज़िला कलेक्टर उन आवेदनों पर विचार करेंगे जो नागरिकता कानून, 1955 के तहत दाखिल होंगे. इससे पहले भी 2004, 2005, 2006, 2016 और 2018 में भी कई जिलों के कलक्टर को ऐसी शक्ति दी जा चुकी है.
ध्यान रहे कि CAA में अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश से आए हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई समुदाय के शरणार्थियों के लिए इस मियाद को घटा कर 5 साल किया गया है. लेकिन अभी यह कानून अमल में नहीं आया है. पुराने कानून में उन लोगों को नागरिकता देने की व्यवस्था थी जो वैध तरीके से भारत मे रहते हुए 11 साल से अधिक समय बिता चुके हों.
डेढ़ साल से लंबित है CAA का मसला
2019 में CAA पास होने के बाद उसका विरोध शुरू हो गया था. इस कानून में मुसलमानों के साथ धार्मिक आधार पर भेदभाव का आरोप लगाया जा रहा था. सुप्रीम कोर्ट में इसे लेकर 140 से ज़्यादा याचिकाएं दाखिल हुई थीं. दिसंबर 2019 में कोर्ट ने मामले में केंद्र को नोटिस जारी किया था, लेकिन बिना सरकार का पक्ष सुने कानून पर रोक लगाने पर विचार से मना कर दिया था. उसके बाद एक बार मामला लगा, पर सुनवाई नहीं हो सकी. बाद में कोरोना के चलते कोर्ट का सामान्य कामकाज प्रभावित हो गया और मामला लंबित रहा.