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प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट पर 12 दिसंबर को सुप्रीम कोर्ट करेगा सुनवाई, CJI ने गठित की स्पेशल बेंच

भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) संजीव खन्ना के नेतृत्व में सुप्रीम कोर्ट की एक विशेष पीठ 12 दिसंबर 2024 को प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट 1991 को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई करेगी.

SC On Places Of Worship Act: सुप्रीम कोर्ट 12 दिसंबर 2024 को प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट 1991 की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई करेगा. इस मामले को लेकर अदालत ने एक विशेष पीठ का गठन किया है, जिसमें भारत के मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना, जस्टिस संजय कुमार और जस्टिस केवी विश्वनाथन शामिल हैं. इस मामले की सुनवाई दोपहर 3:30 बजे होगी.

प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट को हिंदू पक्षों की ओर से चुनौती दी गई है, जिसमें दावा किया गया है कि यह संविधान के अनुच्छेद 25 और 26 के तहत धर्म का पालन करने और धार्मिक संपत्ति की बहाली के अधिकारों का उल्लंघन करता है. याचिकाकर्ताओं का तर्क है कि यह कानून धार्मिक समुदायों को अपने पूजा स्थलों के अधिकारों की रक्षा करने से रोकता है और संविधान के मूल ढांचे के खिलाफ है.

मुख्य याचिकाकर्ता:
1. अश्विनी उपाध्याय (भाजपा नेता)
2. सुब्रमण्यम स्वामी (पूर्व केंद्रीय मंत्री)
3. काशी राजघराने की कुमारी कृष्णा प्रिया
4. विश्व भद्र पुजारी पुरोहित महासंघ

केंद्र सरकार का रुख
प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई के दौरान पिचले साल 11 जुलाई 2023 को केंद्र को जवाब देने के लिए समय दिया था. जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन चीफ जस्टिस चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली बेंच के सामने केंद्र सरकार की ओर से जवाब दाखिल करने के लिए और वक्त मांगा गया था. सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को जवाब देने के लिए पहले भी कई बार मोहलत दे चुका है.

हालांकि केंद्र सरकार इन याचिकाओं में एक पक्ष है, लेकिन उसने अब तक अपना आधिकारिक जवाब दाखिल नहीं किया है. सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने अदालत को जवाब दाखिल करने की इच्छा जताई थी, लेकिन 31 अक्टूबर 2024 की समय सीमा बीत जाने के बावजूद कोई जवाब नहीं दिया गया. 

सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिकाएं
मामलों के इस समूह में मुख्य याचिका भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेता और वकील अश्विनी कुमार उपाध्याय ने दायर की है, जिन्होंने आरोप लगाया है कि 1991 का कानून संविधान के अनुच्छेद 25 (धर्म का पालन करने और प्रचार करने का अधिकार) और अनुच्छेद 26 (धार्मिक मामलों का प्रबंधन करने का अधिकार) का उल्लंघन करता है, साथ ही धार्मिक समुदायों को अपने पूजा स्थलों को बहाल करने के लिए अदालतों में जाने से रोककर भेदभावपूर्ण है. उन्होंने इस तरह के कानून बनाने की केंद्र की शक्ति पर भी सवाल उठाया.

काशी विश्वनाथ और मथुरा मंदिरों तक छूट बढ़ाने का आग्रह
अन्य याचिकाकर्ताओं में विश्व भद्र पुजारी पुरोहित महासंघ और भाजपा नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री सुब्रमण्यम स्वामी शामिल हैं. अधिवक्ता विष्णु शंकर जैन के माध्यम से स्वामी ने 1991 के कानून पर इस आधार पर सवाल उठाया है कि यह एक्ट न्यायिक समीक्षा से इनकार करता है, जो संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा है, क्योंकि यह नागरिकों को उन जगह को पुनः प्राप्त करने के लिए मुकदमा दायर करने से रोकता है जो कभी मंदिरों की थी, जिसे मुस्लिम शासकों ने नष्ट कर दिया था. दूसरी ओर, स्वामी ने कोर्ट से राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद भूमि के लिए दी गई छूट को काशी विश्वनाथ और मथुरा मंदिरों तक बढ़ाने का आग्रह किया.

काशी राजघराने की कृष्णा प्रिया का दावा
काशी राजघराने की कुमारी कृष्णा प्रिया ने भी एक आवेदन दायर किया है, जिसमें दावा किया गया है कि 1991 का कानून भेदभावपूर्ण है, क्योंकि यह राम जन्मभूमि को छूट देता है, लेकिन काशी मंदिर को नहीं. मथुरा में ईदगाह श्री कृष्ण जन्मभूमि स्थल के बगल में है, जहां माना जाता है कि भगवान कृष्ण का जन्म हुआ था, जबकि ज्ञानवापी मामले में मुकदमा मस्जिद को काशी विश्वनाथ मंदिर का हिस्सा होने का दावा करता है.

मुस्लिम पक्ष और समर्थन
मुस्लिम पक्ष ने भी 1991 के कानून को लागू करने के लिए शीर्ष अदालत का दरवाजा खटखटाया है और यह मंगलवार को सुनवाई होने वाले मामलों के मौजूदा बैच का हिस्सा है. इसमें जमीयत उलमा-ए-हिंद की याचिका और ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआईएमपीएलबी) की ओर से दायर एक आवेदन शामिल है. पिछले महीने ज्ञानवापी मस्जिद समिति ने कार्यवाही में हस्तक्षेप करने के लिए एक आवेदन दिया था. इसकी अर्जी पर अभी सुनवाई होनी है.

जमीयत उलमा-ए-हिंद और AIMPLB का रुख
जमीयत उलमा-ए-हिंद और ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (AIMPLB) ने 1991 के अधिनियम को लागू करने की मांग की है. उनका तर्क है कि यह कानून सांप्रदायिक सद्भाव बनाए रखने के लिए आवश्यक है और मस्जिदों को तुच्छ विवादों का विषय बनाने से रोकता है. ज्ञानवापी, मथुरा, और अन्य मस्जिदों पर मुकदमे खारिज करने का अनुरोध किया गया है. मुस्लिम पक्ष के अनुसार, इन मुकदमों का उद्देश्य धार्मिक अल्पसंख्यकों को निशाना बनाना है और यह देश की धर्मनिरपेक्ष प्रकृति के लिए खतरा है.

AIMPLB ने 28 नवंबर को एक बयान जारी कर सुप्रीम कोर्ट से अपील की कि वह इस मामले को स्वतः संज्ञान में ले और निचली अदालतों को ऐसे मुकदमों पर विचार न करने का निर्देश दे. एआईएमपीएलबी के राष्ट्रीय प्रवक्ता एसक्यूआर इलियास ने कहा, "इस तरह के दावे (मस्जिदों के खिलाफ) कानून और संविधान का घोर मजाक हैं, खासकर पूजा स्थल अधिनियम 1991 के अस्तित्व के मद्देनजर (कानून का) उद्देश्य स्पष्ट था कि बाबरी मस्जिद मामले के बाद मस्जिदों या अन्य धार्मिक स्थलों को और अधिक निशाना बनाए जाने से रोका जाए."

क्या है प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट 1991?
1991 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव की सरकार ने प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट, 1991 लेकर आई थी. इसे  पूजा स्थल अधिनियम के नाम से भी जाना जाता है. इस एक्ट के अनुसार, 15 अगस्त 1947 से पहले अस्तित्व में आए किसी भी धार्मिक स्थल को किसी दूसरे धर्म के पूजा स्थल में बदला नहीं जा सकता है. ऐसा करने पर एक से तीन साल तक की जेल और जुर्माना हो सकता है. हालांकि उस समय अयोध्या राम मंदिर का मामला कोर्ट में लंबित था, इसलिए उसे इस कानून से छूट दी गई थी.

ये भी पढ़ें: 'गुंबद में मंदिर के टुकड़े... बेसमेंट में आज भी गर्भगृह मौजूद', अजमेर शरीफ दरगाह पर हिंदू सेना ने किए क्या-क्या दावे?

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