नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने अपने ताज़ा फैसले में धारा 377 को आंशिक रूप से समाप्त कर दिया है. ये पांच जज की संवैधानिक पीठ का फैसला है जिसने सुप्रीम कोर्ट के ही पिछले फैसले को पलट दिया. वहीं, दिल्ली हाई कोर्ट के 2009 के उस फैसले को बहाल किया गया जिसमें धारा 377 को अवैध माना गया था.


1861 में बना कानून 2009 में समाप्त
इस कानून को काला कानून करार दिया जा चुका है. भारत में इसे लेकर अंग्रेज़ों के ज़माने में सन् 1861 में कानून बनाया गया था. इसके तहत 'अप्राकृतिक यौन संबंधों' को गलत करार दिया गया था. उसके बाद पहली बार साल 2009 की जुलाई में दिल्ली हाई कोर्ट ने इसके खिलाफ फैसला दिया जिसमें कहा गया कि दो व्यस्कों के बीच आम सहमति से सेक्स कोई अपराध नहीं है.


2013 में दिल्ली हाई कोर्ट का फैसला पलटा
दिल्ली हाई कोर्ट के इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट ने साल 2013 के दिसंबर में पलट दिया. सुप्रीम कोर्ट का तर्क था इसे बदलने या खत्म करने का अधिकार कोर्ट के पास नहीं बल्कि संसद के पास है. फैसले के बाद नाज फाउंडेशन ने इसके खिलाफ एक याचिक दायर की. इस पर और इस जैसी कुल नौ याचिकाओं पर 2016 में चीफ जस्टिस टीएस ठाकुर ने कहा कि इसकी सुनवाई पांच जजों की संवैधानिक पीठ करेगी.


निजता के अधिकार वाले फैसले से बदला फैसला
इसी बीच साल 2017 के अगस्त महीने में सुप्रीम कोर्ट ने निजता के अधिकार पर फैसले देते हुए कहा कि निजता का अधिकार मौलिक अधिकार है जो जीने के अधिकार- आर्टिकल 21 के तहत आता है. इस फैसले के बाद इस बहस ने ज़ोर पकड़ लिया कि कोर्ट के इस फैसले को इससे भी जोड़कर देखा जा सकता है कि अगर दो व्यस्क अपने निजी स्पेस में कुछ भी कर रहे हों तो इसे अपराध नहीं माना जाना चाहिए.


जो जैसा है उसे वैसे ही स्वीकार किया जाना चाहिए
आज आए ताज़ा फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने भी यही बात कही कि निजता का अधिकार मौलिक अधिकार है. कोर्ट ने कहा कि दो व्यस्कों के बीच आपसी सहमति से बनाए गए संबंधों को अपराध नहीं माना जाएगा और इसी के साथ धारा 377 आंशिक रूप से समाप्त हो गई. पांच जजों की संवैधानिक पीठ ने अपने फैसले में कहा है कि जो जैसा है उसे वैसे ही स्वीकार किया जाना चाहिए. खुद चीफ जस्टिस दीपक मिक्षा ने कहा, "मैं जैसा हूं, मुझे वैसे ही स्वीकार किया जाए."


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