दहेज मृत्यु के मुकदमों पर SC का अहम निर्देश- ये साबित करना ज़रूरी नहीं कि महिला की मौत से बिल्कुल पहले ही दहेज की मांग हुई
धारा 304B के मुताबिक अगर शादी के 7 साल के भीतर किसी महिला की जलने, चोट लगने या किसी भी अप्राकृतिक वजह से मृत्यु हुई हो और यह साबित होता है कि मृत्यु से पहले महिला को दहेज के लिए प्रताड़ित किया जा रहा था, तो यह दहेज मृत्यु का मामला बनेगा.
नई दिल्ली: दहेज मृत्यु के मामलों से जुड़े मुकदमों पर सुप्रीम कोर्ट ने नए निर्देश जारी किए हैं. कोर्ट ने कहा है कि ऐसे मामलों में यह साबित करना जरूरी नहीं है कि महिला की अप्राकृतिक मृत्यु से बिल्कुल पहले ही दहेज की मांग की गई हो. अगर मृत्यु से कुछ समय पहले भी दहेज के लिए दबाव बनाने और उत्पीड़न करने की बात साबित होती है, तो यह ऐसे मामलों में सजा देने के लिए पर्याप्त होगा.
दहेज मृत्यु के एक मामले में दोषियों को निचली अदालत और हाई कोर्ट से मिली 7 साल की सजा को सही ठहराते हुए सुप्रीम कोर्ट ने आईपीसी की धारा 304B से जुड़े मुकदमों पर निचली अदालतों को कुछ अहम निर्देश दिए हैं. 'सतबीर सिंह बनाम हरियाणा' मामले में आज चीफ जस्टिस एन वी रमना की अध्यक्षता वाली बेंच से जारी इन निर्देशों की बात करने से पहले यह समझ लेना जरूरी है कि आईपीसी की यह धारा क्या कहती है?
धारा 304B के मुताबिक अगर शादी के 7 साल के भीतर किसी महिला की जलने, चोट लगने या किसी भी अप्राकृतिक वजह से मृत्यु हुई हो और यह साबित होता है कि मृत्यु से पहले महिला को दहेज के लिए प्रताड़ित किया जा रहा था, तो यह दहेज मृत्यु का मामला बनेगा. ऐसे मामलों में एविडेंस एक्ट की धारा 113B लागू होगी. दूसरे मामलों की तरह इसमें अपराध साबित करने की जिम्मेदारी आरोप पक्ष की नहीं होगी, बल्कि बचाव पक्ष की जिम्मेदारी होगी कि वह खुद को निर्दोष साबित करे. अगर आरोपी महिला की मृत्यु में अपनी भूमिका को लेकर खुद को बेगुनाह बताने वाला सबूत नहीं दे पाता, तो उसे दोषी माना जाएगा. इस धारा के तहत दोषी को न्यूनतम 7 साल और अधिकतम उम्र कैद तक की सजा हो सकती है.
सुप्रीम कोर्ट ने आईपीसी की धारा 304 बी के तहत चलने वाले मुकदमों के बारे में बेहद अहम निर्देश देते हुए कहा है कि :-
i. मुकदमे के दौरान इस धारा के उद्देश्य को याद रखा जाना चाहिए. इसे महिलाओं की जला कर की जाने वाली हत्याओं और दहेज की मांग जैसी सामाजिक बुराई पर नियंत्रण के लिए आईपीसी में जोड़ा गया था.
ii. इस बात का भी ध्यान रखा जाए कि इस धारा में हत्या, आत्महत्या और दुर्घटना से मृत्यु को अलग-अलग नहीं किया गया है. सिर्फ अप्राकृतिक मृत्यु की बात कही गई है.
ii. CrPC 232 के तहत कोर्ट आरोप पक्ष और बचाव पक्ष की बातें सुने. आरोपी के बयान और उसके खिलाफ रखे गए सबूतों को देखने के बाद तय करे कि क्या आरोपी को बरी कर दिया जाना चाहिए? अगर कोर्ट का निष्कर्ष बरी न करने का हो तो बचाव पक्ष को अपनी दलीलें रखने के लिए एक तय समय दे.
iii. CrPC 313 के तहत आरोपी का बयान दर्ज करते समय पूरी गंभीरता बरती जाए. कोर्ट आरोपी को उसके खिलाफ मौजूद सबूत बताए और मौका दे कि वह उस बारे में अपनी सफाई दे सके. बता सके कि उसे मौत के लिए ज़िम्मेदार क्यों नहीं माना जाना चाहिए.
iv. यह ज़रूरी नहीं कि धारा 304B में लिखे 'ठीक पहले' को मौत से बिल्कुल नज़दीक का समय ही समझा जाए. अगर कोर्ट को उससे कुछ पहले भी दहेज प्रताड़ना के ठोस सबूत मिलते हैं तो उसके आधार पर दोष साबित हो सकता है.
v. यह देखा गया है कि पीड़िता का परिवार कई बार ससुराल पक्ष के उन रिश्तेदारों का भी नाम मुकदमे में जोड़ देता है, जो कहीं दूर रहते हों. जिनका मामले से कोई संबंध न हो. जज मुकदमे के दौरान इस पहलू पर भी ध्यान दें.