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'संन्यासी बनना, आश्रम में रहना... हमारी मर्जी', सुप्रीम कोर्ट के सवाल पर क्यों ऐसे बोलीं ईशा फाउंडेशन में रह रही महिलाएं?

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ईशा फाउंडेशन के वकील के अनुसार दोनों महिलाओं की आयु, परिपक्वता और इच्छा को ध्यान में रखते हुए दूसरी बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर करने पर विचार नहीं किया जाना चाहिए था.

सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार (3 अक्टूबर, 2024) को तमिलनाडु के कोयंबटूर में आध्यात्मिक गुरु जग्गी वासुदेव के ईशा फाउंडेशन आश्रम की जांच रुकवा दी है. इसी हफ्ते मद्रास हाईकोर्ट के आदेश के बाद 150 पुलिसकर्मियों की टीम जांच के लिए ईशा फाउंडेशन पहुंची थी. यह कार्रवाई दो महिलाओं के माता-पिता की अर्जी पर शुरू हुई थी, जिसमें कहा गया कि महिलाओं को अवैध रूप से बंधक बनाकर रखा गया है. हाईकोर्ट ने इस मामले में सुनवाई करते हुए यह भी कहा था कि जब सदगुरु की बेटी शादीशुदा हैं तो वह दूसरी लड़कियों संन्यासी बनने के लिए क्यों कहते हैं.

सुनवाई के दौरान जब मुख्य न्यायाधीश डी. वाई. चंद्रचूड़, जस्टिस जे.बी. पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा की बेंच ने दोनों महिलाओं से संन्यासी बनने और आश्रम में रहने पर सवाल किया तो उन्होंने बताया कि वह अपनी मर्जी से रह रही हैं और वह मद्रास हाईकोर्ट में भी यह वह बात बता चुकी हैं. बेंच ने कहा कि फाउंडेशन के वकील ने बताया कि हाईकोर्ट के समक्ष बातचीत के दौरान दोनों महिलाओं ने कहा था कि वे स्वेच्छा से और बिना किसी दबाव के आश्रम में रह रही हैं. बेंच ने कहा, 'सुनवाई के दौरान हमारा विचार था कि इस अदालत के लिए दोनों संबंधित व्यक्तियों से बातचीत करना उचित होगा और ऐसा हमने कक्ष में ऑनलाइन सुनवाई के दौरान किया है.'

सुप्रीम कोर्ट को बताया गया कि दोनों महिलाएं वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए अदालत में उपस्थित थीं. कोर्ट ने एक महिला से संक्षिप्त बातचीत की और पूछा, 'क्या आप इस तथ्य से अवगत हैं कि आपके पिता ने बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर की है?' महिला ने जवाब दिया, 'हां. हम इसी मामले में हाईकोर्ट में उपस्थित हुए थे और हमने बताया था कि हम अपनी इच्छा से ईशा योग केंद्र में हैं.'

सुप्रीम कोर्ट ने दोनों महिलाओं के परिवार की बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका को उच्च न्यायालय से सुप्रीम कोर्ट स्थानांतरित कर दिया था. बेंच ने तमिलनाडु पुलिस को निर्देश दिया कि वह मद्रास हाईकोर्ट के उस आदेश के अनुपालन में आगे कार्रवाई न करे. बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका किसी लापता व्यक्ति या अवैध रूप से हिरासत में लिए गए व्यक्ति को कोर्ट के समक्ष पेश करने के निर्देश देने का अनुरोध करते हुए दायर की जाती है.

सुनवाई के दौरान बेंच ने कहा कि आप इस तरह के प्रतिष्ठान में सेना या पुलिस को प्रवेश नहीं दे सकते. पुलिस मद्रास हाईकोर्ट के निर्देशानुसार सुप्रीम कोर्ट के समक्ष वस्तु-स्थिति पर रिपोर्ट दाखिल करेगी. ईशा फाउंडेशन ने हाईकोर्ट के उस आदेश को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया, जिसमें कोयंबटूर पुलिस को निर्देश दिया गया था कि वह उसके खिलाफ दर्ज सभी मामलों का विवरण एकत्र करे और आगे विचार के लिए उन्हें अदालत के समक्ष पेश करे.

ईशा फाउंडेशन ने एक बयान में कहा, 'हम इस मामले में माननीय उच्चतम न्यायालय के हस्तक्षेप का स्वागत करते हैं, क्योंकि मामला न्यायालय में विचाराधीन है, इसलिए हम इस पर और कोई टिप्पणी नहीं कर पाएंगे.' फाउंडेशन की ओर से सीनियर एडवोकेट मुकुल रोहतगी ने हाईकोर्ट के आदेश पर रोक लगाने का अनुरोध किया और कहा कि लगभग 150 पुलिस अधिकारियों ने फाउंडेशन के आश्रम पर छापेमारी की है और हर कोने की जांच कर रहे हैं.

सुप्रीम कोर्ट ने वीडियो कॉन्फ्रेंस के जरिए दोनों महिलाओं से बातचीत की. दोनों महिलाओं ने अदालत को बताया है कि वे स्वेच्छा से फाउंडेशन में रह रही हैं. बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका पर सुनवाई करते हुए बेंच ने दोनों महिलाओं के पिता को वीडियो कॉन्फ्रेंस के जरिए कोर्ट के समक्ष उपस्थित होने की अनुमति दे दी. बेंच ने कहा, 'पुलिस 30 सितंबर, 2024 के आदेश के पैरा चार में जारी निर्देशों के अनुपालन में इस अदालत में वस्तु-स्थिति पर रिपोर्ट प्रस्तुत करने के अलावा कोई और कार्रवाई नहीं करेगी.'

न्यायालय ने मामले की अगली सुनवाई की तिथि 18 अक्टूबर तय की. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि बातचीत के दौरान दोनों महिलाओं ने बताया कि वे क्रमशः 24 और 27 साल की आयु में आश्रम से जुड़ी थीं. हाईकोर्ट के आदेश से पता चलता है कि अब उनकी आयु क्रमशः 42 और 39 साल है.

बेंच ने कहा कि दोनों महिलाओं ने कहा है कि वे आश्रम से बाहर जाने के लिए स्वतंत्र हैं और उन्होंने समय-समय पर ऐसा किया है और उनके माता-पिता भी उनसे मिलने के लिए वहां आते रहे हैं. इसने कहा कि दोनों व्यक्तियों में से एक ने बताया है कि उन्होंने हैदराबाद में आयोजित मैराथन में भी भाग लिया था. सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर गौर किया कि उसके समक्ष यह प्रस्तुत किया गया था कि दोनों व्यक्तियों की मां ने लगभग आठ साल पहले ऐसी ही याचिका दायर की थी, जिसमें पिता भी उपस्थित हुए थे. कोर्ट ने कहा कि फाउंडेशन के वकील के अनुसार इन तथ्यों के आधार पर, विशेष रूप से दोनों महिलाओं की आयु, परिपक्वता और इच्छा को ध्यान में रखते हुए दूसरी बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर करने पर विचार नहीं किया जाना चाहिए था.

केंद्र की ओर से पेश सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि हाईकोर्ट को बहुत सतर्क रहना चाहिए था. हाईकोर्ट ने 30 सितंबर को डॉ. एस कामराज की ओर से दायर बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका पर अंतरिम आदेश पारित किया था, जिसमें उन्होंने पुलिस को निर्देश देने का अनुरोध किया था कि वह उनकी दो बेटियों को अदालत के समक्ष पेश करे, जिनके बारे में उनका आरोप है कि उन्हें ईशा फाउंडेशन के अंदर बंदी बनाकर रखा गया है और उन्हें रिहा किया जाए. याचिकाकर्ता तमिलनाडु कृषि विश्वविद्यालय, कोयंबटूर से रिटायर्ड प्रोफेसर हैं. उनकी दो बेटियां हैं और दोनों ने इंजीनियरिंग में ग्रेजुएशन की है. दोनों ही ईशा फाउंडेशन से जुड़ी थीं. याचिकाकर्ता की शिकायत यह थी कि फाउंडेशन कुछ लोगों को गुमराह करके उनका धर्म परिवर्तन कर उन्हें संन्यासी बना रहा है और उनके माता-पिता और रिश्तेदारों को उनसे मिलने भी नहीं दे रहा है.

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