धर्मनिरपेक्ष, हिंदुत्व और समाजवाद शब्द को संविधान से हटाने से जुड़ी कई याचिकाओं पर सोमवार (21 अक्टूबर 2024) को सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई. कई दलीलों के बाद सुप्रीम कोर्ट ने इन याचिकाओं पर नवंबर में विस्तार से सुनवाई के लिए हामी भरी है, लेकिन हिंदुत्व शब्द पर सुनवाई करने से सीजेआई ने साफतौर पर इंकार कर दिया.
अब इस मामले में 15 नवंबर के बाद सुनवाई होगी. याचिका दायर करने वालों के वकीलों ने सोमवार को सुनवाई के दौरान दलील दी थी कि ये दोनों शब्द इमरजेंसी के दौरान जब संविधान में जोड़े गए थे, तब संसद में विपक्ष नहीं था. यानी विपक्ष की भागीदारी के बिना ही इन शब्दों को संविधान में जोड़ा गया. था.
कब जोड़े गए थे ये शब्द?
बता दें कि भीम राव अंबेडकर ने जो संविधान बनाया था, उसमें धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी शब्द शामिल नहीं थे. आसान शब्दों में कहें तो 1950 में देश में लागू संविधान के मूल प्रस्ताव में ये शब्द नहीं थे. संविधान के प्रस्ताव में ये शब्द बाद में जोड़े गए थे. दरअसल, ये शब्द इंदिरा गांधी की सरकार के दौरान 1976 में 42वें संविधान संशोधन के तहत जोड़े गए थे. इस संशोधन के बाद संविधान के प्रस्तावना में भारत का उल्लेख "संप्रभु, लोकतांत्रिक गणराज्य" से "संप्रभु, समाजवादी, लोकतांत्रिक गणराज्य" हो गया था.
पहले क्या था संविधान का रूप?
वर्ष 1950 में देश में जो संविधान लागू किया गया था, उसका मूल प्रस्ताव “हम, भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व-संपन्न, लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने के लिए और उसके समग्र नागरिकों को: सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करते हैं” लिखा था.
क्या था इन शब्दों को जोड़ने के पीछे मकसद?
कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि "समाजवादी" शब्द को शामिल करने का उद्देश्य यह दर्शाना था कि भारतीय राज्य की ओर से समाजवाद को लक्ष्य और दर्शन के रूप में देखा जाए. इससे गरीबी समाजवाद और समाजवाद पर ध्यान केंद्रित किया गया. वहीं अब धर्म निरपेक्ष या पंथ निरपेक्ष की बात करें तो इस शब्द को जोड़ने के पीछे का मकसद यह संदेश देना था कि देश के नीति निर्धारक पंथ निरपेक्ष रूप से देश को आगे ले जाने के लिए काम करेंगे. इसमें सभी धर्मों को समान व्यवहार और तटस्थता के साथ बनाए रखने की अनुमति दी गई है.
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