Supreme Court: सुप्रीम कोर्ट ने कामगार अधिनियम, 1923 से जुड़े मुआवजे के मामले में एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया है. शीर्ष अदालत ने उदार रुख अपनाते हुए मृतक ड्राइवर के परिवार को बढ़ा हुआ मुआवजा देने का आदेश दिया. कोर्ट ने अपनी टिप्पणी में कहा कि अधिनियम का उद्देश्य सामाजिक न्याय देना है 


जस्टिस केजे माहेश्वरी और जस्टिस अरविंद कुमार की खंडपीठ ने अपना फैसला सुनाते हुए कहा कि जब मृत कर्मचारी की पत्नी ने हलफनामा देकर उसकी आय बताई है और नियोक्ता ने इसे स्वीकार किया है तो किसी भी कल्पना के आधार पर कम मुआवजे का आदेश नहीं दे सकते थे. 


क्या है पूरा मामला ?


वकील चौधरी ट्रक चालक के रूप में काम करते थे. 2011 में वे एक सड़क हादसे का शिकार हो गए थे, जिसमें उनकी मौत हो गई थी. मौत के बाद वकील चौधरी की पत्नी, बेटे और माता-पिता ने मुआवजे के लिए डिप्टी लेबर कमिश्नर के सामने दावा याचिका दायर की थी. याचिकाकर्ताओं ने रोजगार के दौरान हुई मौत के लिए मुआवजे की मांग करते हुए दावा किया था कि वकील चौधरी हर महीने 6000 रुपये वेतन पा रहे थे. वेतन की राशि को नियोक्ता ने स्वीकार किया था.


मामले में बीमा देने वाली रिलायंस जनरल इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड ने अपना बयान दायर किया. आय के किसी प्रमाण पत्र के अभाव में डिप्टी लेबर कमिश्रनर ने 150 रुपये प्रतिदिन की न्यूनतम मजदूरी के आधार पर मृतक की आय 3900 रुपये प्रति महीने मानी. इसके आधार पर ब्याज समेत सब मिलाकर 4,31,671 रुपये मुआवजा देने का आदेश दिया.


हाई कोर्ट से नहीं मिली राहत


अपीलकर्ताओं ने फैसले को हाई कोर्ट में चुनौती दी लेकिन वहां भी फैसला हक में नहीं आया, जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की गई. सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ ने नोटिस किया कि लिखित बयान दर्ज करने के बाद बीमारकर्ता ने कोई जिरह नहीं की, इसलिए दावे को विवादित नहीं कहा जा सकता है.


सुप्रीम कोर्ट का फैसला


खंडपीठ पाया कि डिप्टी लेबर कमिश्रनर ने मृत कर्मचारी के वेतन का गलत तरीके से आकलन किया जबकि उसकी पत्नी ने शपथ पर मासिक वेतन के संबंध में बयान दिया था, जिसे नियोक्ता ने स्वीकार किया था. खंडपीठ ने कहा कि इस तथ्य पर कोई विवाद नहीं है कि मृत कर्मचारी 6000 रुपये प्रतिमाह कमा रहा था. मृतक की पत्नी का बयान सच के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए.


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