सुप्रीम कोर्ट ने तलाक के एक मामले में सुनवाई करते हुए पति को फटकार लगाई और फैमिली कोर्ट के फैसले पर भी नाराजगी जाहिर की. तीस साल से महिला अपने बेटे के साथ पति से अलग रह रही है, लेकिन इतने सालों में पति की तरफ से पत्नी को कोई गुजाराभत्ता नहीं दिया गया. महिला ने कई बार फैमिली कोर्ट में अर्जी दी, लेकिन हर बार कोर्ट ने पति के पक्षा में फैसला सुनाया और इस बात को भी नजरअंदाज किया कि पति पत्नी और अपने बेटे के पालन-पोषण के लिए कोई भत्ता नहीं दे रहा है. सुप्रीम कोर्ट ने फैमिली कोर्ट के इस रवैया पर नाराजगी जताई और महिला के दर्द पर संज्ञान लेते हुए कहा कि न्याय प्रणाली महिला के प्रति अविवेकपूर्ण रही.


महिला का विवाह 1991 में हुआ था और एक साल बाद उसका एक बेटे हुआ. बच्चे के जन्म के बाद ही पति ने उसे छोड़ दिया. इसके बाद पति ने कर्नाटक की फैमिली कोर्ट में तलाक की अर्जी दाखिल की जिसने एक बार नहीं बल्कि तीन बार महिला के पति के पक्ष में तलाक का आदेश दिया. वहीं, महिला तलाक नहीं चाहती थी. 


फैमिली कोर्ट के तलाक के फैसले के बाद महिला ने हाईकोर्ट का भी रुख किया और कोर्ट ने कई बार फैमिली कोर्ट से कहा कि पति की याचिका पर नए सिरे से फैसला किया जाए. हाईकोर्ट ने तीसरी बार 20 लाख रुपये स्थायी गुजारा भत्ता का भुगतान करने पर पति के पक्ष में तलाक के फैमिली कोर्ट के फैसले को मंजूरी दे दी. स्थानीय अदालत ने महिला को 25 लाख रुपये दिए जाने का फैसला सुनाया था.


महिला को करीब तीन दशक तक बिना पर्याप्त गुजारा भत्ता मिले जीवन यापन करने पर जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस उज्जल भुइयां की पीठ का ध्यान गया. बेंच ने कहा, 'रिकॉर्ड का अध्ययन करने के बाद ऐसा लगता है कि अपीलकर्ता और उनके नाबालिग बेटे, जो अब बालिग हो गया है, के लिए न्याय प्रणाली बहुत अविवेकपूर्ण रही. हम ऐसा इसलिए कह रहे हैं क्योंकि प्रतिवादी ने इतने साल तक अपीलकर्ता के साथ अत्यंत क्रूरता की और अपने बेटे के बेहतर भविष्य के लिए कोई सहायता नहीं दी या उसकी स्कूली शिक्षा के लिए भी भुगतान नहीं किया.'


कोर्ट ने कहा, 'प्रतिवादी की मां इतने साल से अपनी बहू/अपीलकर्ता के साथ रह रही हैं और उसके (अपने बेटे के) खिलाफ आगे आई हैं. जिस यांत्रिक तरीके से फैमिली कोर्ट अपीलकर्ता के खिलाफ तलाक के आदेश पारित करता रहा, वह न सिर्फ संवेदनशीलता की कमी को दर्शाता है, बल्कि अपीलकर्ता के खिलाफ छिपे हुए पूर्वाग्रह को भी दर्शाता है.' हालांकि, अदालत ने कहा कि वह इस तथ्य से अनभिज्ञ नहीं हो सकती कि दोनों पक्ष 1992 से अलग-अलग रह रहे हैं और इसलिए फैमिली द्वारा शर्त के साथ दिए गए तलाक के आदेश को बरकरार रखा जाता है.


सुप्रीम कोर्ट ने न सिर्फ 20 लाख रुपये के गुजारा भत्ते में 10 लाख रुपये की वृद्धि की, बल्कि यह भी आदेश दिया कि वर्तमान में महिला, उसका पुत्र और सास जिस मकान में रह रहे हैं, वह उनके पास ही रहेगा और उसने व्यक्ति को संपत्ति के शांतिपूर्ण कब्जे में हस्तक्षेप करने से रोक दिया. बेंच ने कहा, 'अगर प्रतिवादी के पास कोई अन्य अचल संपत्ति है, तो प्रतिवादी द्वारा स्वामित्व के किसी भी हस्तांतरण के बावजूद पक्षों के बेटे को उसमें अधिमान्य स्वामित्व अधिकार प्राप्त होगा. यह निर्देश इस कारण से आवश्यक है कि उनके (दंपति के बेटे के) पास अपने स्कूल और उच्च शिक्षा के लिए भरणपोषण और पर्याप्त राशि मांगने का एक अपरिवर्तनीय और लागू करने योग्य अधिकार है.'


निर्देशों को अनिवार्य रूप से लागू किए जाने योग्य बनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने व्यक्ति को चेतावनी दी कि इसका पालन न करने पर तलाक का आदेश स्वतः ही अमान्य हो जाएगा. कोर्ट ने व्यक्ति को तीन महीने के भीतर गुजारा भत्ता देने को कहा, जिसमें 3 अगस्त 2006 से सात प्रतिशत वार्षिक ब्याज भी शामिल होगा, जिस दिन तलाक का पहला आदेश पारित किया गया था.


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