Supreme Court Acquitted A Convicted Man: सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक ऐसे दोषी शख्स को बरी कर दिया. इसे लगभग 22 साल पहले अपनी पत्नी की हत्या के लिए दोषी ठहराया गया था. एससी से ये फैसला यह देखने के बाद लिया कि अदालतों ने उसे केवल एक संदेह पर दोषी पाया. ये बात कोर्ट ने गुनो महतो बनाम झारखंड (Guno Mahto v. State of Jharkhand) केस की सुनवाई के दौरान कही.


जस्टिस बीआर गवई और संजय करोल की बेंच का विचार था कि निचली अदालतों ने अपीलकर्ता को केवल इस वजह से दोषी ठहराया है कि वह आखिरी बार अपनी मृत पत्नी के साथ देखा गया था. अपीलकर्ता को अपराध से जोड़ने वाली परिस्थितियां बिल्कुल भी साबित नहीं हुई हैं, ये सही तरह से संदेह करने लायक भी नहीं थी.


क्या कहा सुप्रीम कोर्ट ने?


सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा, "संदेह कितना भी गंभीर क्यों न हो, अभियोजन पक्ष के किसी भी उचित संदेह से परे अपने मामले को स्थापित करने के लिए बताई गई कहानी में केवल एक संदिग्ध (Doubtful Pigment) जैसा ही बना रहता है ... इसको छोड़कर, आंखों देखा कोई सबूत, हालात नहीं है जो आरोपी के आरोप को स्थापित कर सकता है. आरोपी को अपराध से जोड़ने के लिए किसी भी तथ्य की खोज नहीं की गई है, जिसे साबित करने की मांग की गई है. अभियोजन पक्ष ने बेहद कम तर्कसम्मत संदेह स्थापित किए." 


कोर्ट ने कहा कि वो यह साफ करेगा कि निचली अदालतों ने सबूतों की गलत और अधूरी विवेचना के आधार पर दोषसिद्धि का आदेश पारित करने में किस तरह गंभीर चूक की है. कोर्ट  2004 के झारखंड हाई कोर्ट के एक फैसले को चुनौती देने वाली अपील पर सुनवाई कर रहा था. इसमें निचली अदालत ने अभियुक्त-अपीलकर्ता की दोषसिद्धि और आजीवन कारावास की सजा की पुष्टि की थी.


क्या था मामला ?


दरअसल अपीलकर्ता की पत्नी की लगभग 35 साल पहले अगस्त 1988 में हत्या कर दी गई थी. उसका शव गांव के कुएं में मिला था. 


अभियोजन पक्ष ने आरोप लगाया कि आरोपी ने अपनी पत्नी की हत्या की और उसके बाद सबूत मिटाने के इरादे से उसके शव को गांव के कुएं में फेंक दिया.


उस पर ऐसा आरोप था कि बाद में आरोपी ने गंदे हाथों से पुलिस से संपर्क किया और झूठी कहानी गढ़ी कि उसकी पत्नी 'गुमशुदा' है.


ट्रायल दौरान अभियोजन पक्ष ने दस गवाहों का परीक्षण कराया. हालांकि जांच अधिकारी से पूछताछ नहीं की गई. ट्रायल कोर्ट ने अपीलकर्ता को भारतीय दंड संहिता 1860 (आईपीसी) की धारा 302 के तहत आजीवन कारावास और आईपीसी की धारा 201 (अपराध के सबूत मिटाने) के तहत अपराध के संबंध में दो साल के सश्रम कारावास की सजा सुनाई. 


हाई कोर्ट में अपील करने पर उसने  निचली अदालत की सजा की सही ठहराते हुए उसकी पुष्टि की थी. हाई कोर्ट ने केवल तीन गवाहों के आंखों देखे सुबूत पर भरोसा किया था. इसके बाद अपीलकर्ता ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया.


यह मानते हुए कि पूरा मामला परिस्थितिजन्य साक्ष्यों पर आधारित था, अदालत ने शरद बर्धीचंद सारदा बनाम महाराष्ट्र राज्य (1984) में अपने फैसले का हवाला दिया. इसमें कोर्ट ने परिस्थितिजन्य सुबूतों के आधार पर किसी आरोपी को दोषी ठहराए जाने से पहले पूरी की जाने वाली आवश्यक शर्तें निर्धारित की हैं


कोर्ट ने कहा कि जांच अधिकारी से पूछताछ नहीं की गई. इसके अलावा, यह दिखाने के लिए कि अपीलकर्ता ने पुलिस को सूचना देकर सबूतों को गायब करने का कोई भी सबूत, ऑक्यूलर या डॉक्यूमेंट्री मौजूद नहीं है.


सुप्रीम कोर्ट ने इस तरह निष्कर्ष निकाला कि नीचे की अदालतों ने सबूतों की गलत और अधूरी विवेचना के आधार पर अपीलकर्ता को दोषी ठहराने में गंभीर गलती की है, जिससे उसके प्रति गंभीर पूर्वाग्रह पैदा हुआ है. इसका नतीजा ये निकला कि न्याय का मजाक उड़ा.


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