Electoral Bonds Scheme: चुनावी बॉन्ड पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद सियासी हलकों में अब बहस जोर पकड़ने लगी है. कहा जा रहा है कि देश के 58 प्रतिशत क्षेत्र और 57% जनसंख्या पर दबदबा बना चुकी बीजेपी को अगर पूरे इलेक्टोरल बॉन्ड का 57 प्रतिशत हिस्सा मिला है तो इसमें हर्ज क्या है? जब एक राज्य में सिमटी टीएमसी को कुल बॉन्ड का एक बड़ा हिस्सा मिल रहा है तो फिर भाजपा जैसी दुनिया की सबसे बड़ी सियासी पार्टी का अंश तो इसके सामने कुछ भी नहीं है।
इस पूरे बहस में यह मुद्दा केंद्र में बना हुआ है. इसके साथ ही सियासी हलकों में यह भी बहस का केंद्र बन गया है कि चुनावी बॉन्ड पर उन चंदा दाताओं के कानूनी अधिकारों के बारे में क्या होगा जो अब तक इस बात की गारंटी के तहत काम कर रहे थे कि उनके नाम को सार्वजनिक नहीं किया जाएगा? जब दानदाताओं ने ये चुनावी बॉन्ड खरीदे तो उन्हें कानूनी गारंटी दी गई कि उनके नाम का खुलासा नहीं किया जाएगा.
ऐसे में उन्होंने बिना किसी सोच और किसी उद्देश्य के या उनके नाम पर अनुचित कीचड़ उछलने के डर के बिना दान दिया था, लेकिन अब सुप्रीम कोर्ट को जो फैसला आया, उसके अनुसार एसबीआई को सभी चंदादाताओं के नाम चुनाव आयोग को सौंपने और चुनाव आयोग से उसकी लिस्ट सार्वजनिक करने के बारे में कहा गया।
चर्चा क्या हो रही है?
अब, चर्चा इस बात पर हो रही है कि क्या यह दान दाताओं या भारतीय नागरिकों के अधिकारों का उल्लंघन नहीं है. जो कानूनी गारंटी के आधार पर काम कर रहे थे. क्या संसद की बनाई गई कानूनी व्यवस्था की कोई वैल्यू नहीं है?
ऐसे में चर्चा इस बात को लेकर भी है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश में यह कहा जा सकता था कि संभावित रूप से नामों का खुलासा करें. यह ठीक होता क्योंकि किसी भी नए चंदादाता को कानूनी परिणामों के बारे में पता होता, लेकिन, पहले दिए गए चंदादाता के नाम की घोषणा कानूनी दृष्टि से अत्यधिक संदिग्ध है.
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