'फ्रीडम ऑफ स्पीच' पर सुप्रीम कोर्ट की 'सुप्रीम सख्ती', जानिए कब 'खत्म' हो जाती है बोलने की आजादी?
सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक मलयाली न्यूज चैनल पर लगे प्रतिबंध हटा को दिया है. इसका हटना प्रेस की स्वतंत्रता के लिहाज से बेहद ही अहम माना जा रहा है.
पिछले 15 दिनों से अभिव्यक्ति की आजादी का मामला (फ्रीडम ऑफ स्पीच) चर्चा का विषय बना हुआ है. दरअसल सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में दूसरी बार सख्ती दिखाई है. पहला मामला हेट स्पीच से जुड़ा था. और ताज़ा जुड़ा है केरल के एक न्यूज़ चैनल पर बैन से. पिछले मामले में तो सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को नपुंसक तक कह दिया था. वहीं न्यूज चैनल बैन के मामले में कहा गया है कि अगर किसी मीडिया संस्थान की कवरेज या राय में सरकार की आलोचना की जाती है. तो इसे देश विरोधी नहीं माना जाएगा.
मीडिया के सवाल उठाने के अधिकार पर टिप्पणी करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने देश विरोध जैसे शब्दों के इस्तेमाल करने पर भी सख्त टिप्पणी की है.
क्या है पूरा मामला
ताज़ा मामला केरल से चलने वाले चैनल वन से जुड़ा हुआ है. इस मलयाली न्यूज़ चैनल पर बैन लगा दिया गया था. सुप्रीम कोर्ट ने ये बैन हटा दिया है. इस बैन का हटना प्रेस की स्वतंत्रता के लिहाज से बेहद ही अहम माना जा रहा है. दरअसल सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि सरकार की आलोचना से जुड़ी ख़बर चलाना या सरकार की आलोचना करना देश विरोधी नहीं है. कहा ये भी गया है कि ऐसी क्रिटिकल कवरेज को देश की सुरक्षा के लिए खतरा बताकर किसी मीडिया संस्थान के खिलाफ कार्रवाई नहीं की जा सकती.
आगे ये भी कहा गया कि इस तरह से किसी मीडिया चैनल के सिक्योरिटी क्लीयरेंस पर रोक नहीं लगाई जा सकती. मीडिया अपने विचार रखने के लिए स्वतंत्र है. ओपिनियन रखने की स्वतंत्रता को देश की सुरक्षा के नाम पर रोकने से अभिव्यक्ति की आजादी और प्रेस की स्वतंत्रता पर बहुत बुरा असर पड़ेगा.
सुप्रीम कोर्ट ने ये भी कहा कि चैनल के शेयर होलडर्स के जमाते इस्लामी के साथ लिंक होने जैसी हवा-हवाई बातों की वजह से भी चैनल पर बैन सही नहीं है. सुप्रीम कोर्ट ने तो केरल हाई कोर्ट के फैसले पर भी अचरज जताया. एससी ने कहा कि केरल हाई कोर्ट को बंद लिफ़ाफ़े (सील्ड कवर) में जो जानकारी दी गई थी उसके बावजूद केरल हाई कोर्ट ने चैनल पर बैन को सही कैसे ठहराया?
आखिर क्या है बंद लिफाफे (सील्ड कवर)
इस टर्म को अदालती कार्रवाई के दौरान इस्तेमाल किया जाता है. यह एक ऐसा दस्तावेज है, जिसे सरकार दूसरे पक्ष के साथ साझा नहीं करना चाहती. आमतौर पर इसे राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दों पर दिया जाता है. सीलबंद लिफाफे में दी गई जानकारी सार्वजनिक होने से राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरा हो सकता है.
कुछ मामलों में सुप्रीम कोर्ट खुद ही सीलबंद रिपोर्ट मांगती है. वहीं कई बार सरकार और एजेंसियां भी सीलबंद कवर कोर्ट को सौंपती हैं. इसमें जो जानकारी दी जाती है वो अन्य पक्षों या पार्टियों को तब तक नहीं बताई जाती, जब तक कोर्ट खुद से ऐसा करने की नहीं कहती.
क्योंकि इस लिफाफे की जो जानकारी कोर्ट में पेश की गई है उसके बारे में दूसरे पक्ष को नहीं पता होता इसलिए मामले में शामिल अन्य पार्टियां अपना बचाव करने के लिए डॉक्यूमेंट के दावों के विरोध में कोई तर्क नहीं दे पाती हैं.
वैसे तो पुरानी सरकारों के समय पर भी किसी भी तरह की जानकारी को बंद लिफाफे में कोर्ट को देने को लेकर कोर्ट ने कई बार असहमति जताई है. लेकिन अभी के समय में चीफ जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ इसे लेकर बेहद सख़्त हैं. और वो इस बंदे लिफाफे में जानकारी देने पर हमेशा ही असहमति जताते रहे हैं. माना ये जाता है कि बंद लिफाफे में जानकारी देने से मीडिया और मीडिया के जरिए जनता तक जो बातें पहुंचनी चाहिए वो नहीं पहुंच पाती.
ऊपर से कई मामलों में पीड़ित पक्ष को बंद लिफाफे वाली जानकारी का नुकसान होता है. वजह ये होती है कि पीड़ित पक्ष को पता ही नहीं होता कि बंद लिफाफे में उसके बारे में क्या कहा गया है. जैसे केरल हाई कोर्ट को बंद लिफाफे में चैनल वन के बारे में जो जानकारी दी गई थी उसके बारे में चैनल वन को कुछ पता ही नहीं होगा.
बंद लिफाफे के कल्चर पर सवाल
वैसे तो बंद लिफाफे का कल्चर अपने आप में अलग टॉपिक है. लेकिन चैनल वन के ताज़ा मामले में भी सुप्रीम कोर्ट ने बंद लिफाफे के चलने पर गंभीर सवाल खड़े किए हैं. बंद लिफाफे के कल्चर पर सवाल उठाते हुए कोर्ट ने कहा कि इसकी वजह से पीड़ित पक्ष के अपील करने के अधिकार पर असर पड़ता है.
ऐसे में बंद लिफाफे में दी गई जानकारी के खिलाफ अपना पक्ष रखना उनके लिए असंभव था. और फैसले उनके ख़िलाफ़ गया. इसी वजह से सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि जो भी प्रभावित पार्टी है उसे बंद लिफाफे के अंदर की जानकारी का पता होना चाहिए.
बंद लिफाफे के ट्रेंड को कम करने की जरूरत
सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रीय सुरक्षा के गंभीर मामलों में बंद लिफाफे में दी जाने वाली जानकारी की अहमियत को नहीं नकारा. लेकिन इसके ट्रेंड को कम करने की बात कही है.
बोलने की आजादी को लेकर क्या कहता है देश का कानून?
देश आजाद होने यानी 1947 के बाद जब संविधान बना, तो भारतीय नागरिकों को अनुच्छेद 19 में वो सारे अधिकार दे दिए गए, जिसके लिए उन्होंने लंबी लड़ाई लड़ी थी. संविधान में अनुच्छेद 19 से 22 तक कई सारे अधिकार दिए गए हैं.
अनुच्छेद 19(1)(A) के तहत देश के सभी नागरिकों को वाक और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार दिया गया है. अनुच्छेद 19 के ये अधिकार केवल भारतीय नागरिकों को ही मिले हैं. अगर कोई बाहर का यानी विदेशी नागरिक है तो उसे ये अधिकार नहीं दिए गए हैं.
वाक और अभिव्यक्ति की आजादी को आसान भाषा में समझे तो एक भारतीय नागरिक इस देश में लिखकर, बोलकर, छापकर, इशारे से या किसी भी तरीके से अपने विचारों को व्यक्त कर सकता है.
वहीं अनुच्छेद 19 (2) में उन नियमों के बारे में भी जानकारी दी गई है जब बोलने की आजादी को प्रतिबंधित किया जा सकता है. वो परिस्थितियां हैं-
- कुछ ऐसा नहीं बोला जाना चाहिए जिससे भारत की संप्रभुता और अखंडता को खतरा हो. राज्य की सुरक्षा को खतरा हो. पड़ोसी देश या विदेशी देशों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध बिगड़ने का खतरा हो, सार्वजनिक व्यवस्था के खराब होने का खतरा हो, शिष्टाचार या सदाचार के हित खराब हो, कोर्ट की अवमानना हो, किसी की मानहानि हो, अपराध को बढ़ावा मिलता हो.
पहले भी चैनल और प्रकाशन पर लगाए जा चुके हैं बैन
साल 1950: मद्रास सरकार जो अब तमिलनाडु सरकार है ने साप्ताहिक मैग्जीन 'क्रॉस रोड्स' पर बैन लगा दिया था. कथित रूप से ये मैग्जीन तत्कालीन नेहरू सरकार की नीतियों की आलोचना करता था. हालांकि इस प्रतिबंध को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी और बाद में इस प्रतिबंध को हटा दिया.
सुप्रीम कोर्ट ने प्रतिबंध हटाने के आदेश के साथ कहा 'राज्य की सुरक्षा' की आड़ में कानून व्यवस्था को सही नहीं ठहराया जा सकता. कोर्ट ने कहा कि ये प्रतिबंध न सिर्फ असंवैधानिक है, बल्कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर भी कुछ हद तक प्रतिबंध करता है.
साल 1950: एक अंग्रेजी मैगजीन ऑर्गनाइज़र पर भी इसी तरह का बैन लगाया गया था. उस वक्त दिल्ली के चीफ कमिश्नर ने इस मैगजीन में कुछ भी छपने से पहले अनुमति लेने की बात कही थी. इस मामले पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि आदेश फ्री स्पीच के संवैधानिक आदर्श को प्रभावित करती है, छापने से पहले अनुमति लेना उसकी स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाती है.
हेट स्पीच के मामले पर भी सख्त हुई सुप्रीम कोर्ट
इसके पहले सुप्रीम कोर्ट ने एक और मामले की सुनवाई के दौरान सरकार को नपुंसक तक कह दिया था. कोर्ट का कहना है कि सरकार नपुंसक है और समय पर एक्शन नहीं लेती. हेट स्पीच के इस मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने ये तक कह दिया था कि अगर नफरती भाषणों पर रोक नहीं लग रही तो आख़िर सरकार के होने ना होने से क्या फर्क पड़ता है.
क्या है मामला
सुप्रीम कोर्ट ने मुस्लिम समुदाय के खिलाफ आपत्तिजनक बयानबाजी पर सवाल उठाया. बीते दिनों मुंबई में हुए हिंदू जन आक्रोश रैली के मामले में सुनवाई करते हुए जस्टिस केएम जोसेफ ने राज्य सरकार को भटकार लगाई. उन्होंने कहा, ' महाराष्ट्र सरकार नपुंसक है और कुछ नहीं कर रही. शांत है, इसलिए सबकुछ हो रहा है. जस्टिस जोसेफ कहा कि कहा कि जिस वक्त राजनीति और धर्म को अलग कर दिया जाएगा है. यह सब समाप्त हो जाएगा. अगर राजनेता धर्म का इस्तेमाल बंद कर देंगे. ये सब बंद हो जाएगा.'
हेट स्पीच को आईपीसी में शामिल करने की पहल
हाल ही में भड़काऊ भाषण और हेट स्पीच को इंडियन पीनल कोड (आईपीसी) के तहत शामिल करने की पहल की गई. गृह मंत्रालय ने इसके लिए कुछ प्रस्ताव पर विचार भी किया. लेकिन यह अभी भी बड़ी चुनौती बनी हुई है. दरअसल गृह मंत्रालय ने हेट स्पीच पर अंकुश लगाने और इसे सजा दिलाने का प्रावधान भले ही बनाने की पहल की हो लेकिन इसके लिए रास्ता आसान नहीं है. सबसे बड़ी चुनौती जो कमिटी के सामने आएगी वह यह कि आखिर हेट स्पीच को परिभाषित कैसे किया जाए. ऐसे कई मसले अभी देश की अलग-अलग अदालतों में भी हैं.