नई दिल्ली: केरल के सबरीमला मामले पर सुप्रीम कोर्ट ने आज कोई फैसला नहीं आया. पांच जजों की बेंच ने आज पुनर्विचार याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए इसे बड़ी बेंच को भेज दिया है. कोर्ट ने कहा कि इन सभी सवालों को हम बहुमत से (3 जज) बड़ी बेंच (7 जज) को सौंप रहे हैं, तब तक इस मामले में तय सवालों का जवाब लंबित माना जाए.
पांच जजों की बेंच में दो जजों ने अपने पुराने फैसले को बरकरार रखा है. इनमें जस्टिस नरीमन और जस्टिस चंद्रचूड़ शामिल हैं. इसके साथ ही बड़ी खबर है कि कोर्ट ने अपने पिछले फैसले पर किसी तरह का कोई स्टे नहीं लगाया है. कोर्ट ने पिछले फैसले में कहा था कि मंदिर में जाने से किसी महिला को नहीं रोका जा सकता.
फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा, ''हमने इस मामले में रिव्यू के साथ नई याचिकाओं को भी सुना. याचिकाकर्ताओं की कोशिश परंपरा का हवाला देनी की, उसके प्रति संविधान में दर्ज संविधान के बारे में बताने की थी. जब तक धार्मिक नियम कानून-व्यवस्था, नैतिकता के खिलाफ न हो, उसकी अनुमति होती है.''
सुप्रीम कोर्ट ने कहा, ''इस सवाल का आयाम दूसरे धर्मों से भी जुड़ता है। दरगाह, मस्ज़िद जाना, पारसी महिलाओं का हक आदि, सब एक-दूसरे से जुड़े हैं दाउदी वोहरा समुदाय में महिलाओं का खतना भी ऐसा ही सवाल है.''
एससी ने कहा, ''क्या धर्म के लिए अनिवार्य व्यवस्था तक बात को छोड़ दिया जाए या बाकी अधिकारों को भी देखा जाए.'' कोर्ट ने यह भी कहा कि शिरूर मठ केस में 7 जजों की बेंच ने कहा अनिवार्य परंपरा का सवाल किसी मत को मानने वालों पर छोड़ दिया जाए.
धार्मिक मान्यता क्या है
केरल की राजधानी तिरुअनंतपुरम से करीब 100 किलोमीटर दूर सबरीमाला मंदिर में भगवान अयप्पा की पूजा होती है. धार्मिक मान्यता के मुताबिक उन्हें नैसिक ब्रह्मचारी माना जाता है. इसलिए, सदियों से वहां युवा महिलाओं को नहीं जाने की परंपरा रही है. साथ ही मंदिर की यात्रा से पहले 41 दिन तक पूरी शुद्धता बनाए रखने का नियम है. रजस्वला स्त्रियों के लिए 41 दिन तक शुद्धता बनाए रखने के व्रत का पालन संभव नहीं है. इसलिए भी वह वहां नहीं जातीं.
क्या था पिछले साल आया फैसला
सुप्रीम कोर्ट के 5 जजों की बेंच 4:1 के बहुमत से दिए फैसले में मंदिर में युवा महिलाओं को जाने से रोकने को लिंग के आधार पर भेदभाव कहा था. कोर्ट ने आदेश दिया था कि मंदिर में जाने से किसी महिला को नहीं रोका जा सकता. बेंच की इकलौती महिला सदस्य जस्टिस इंदु मल्होत्रा ने बहुमत के फैसले का विरोध किया था. उन्होंने कहा था कि धार्मिक मान्यताओं में कोर्ट को दखल नहीं देना चाहिए. हिंदू परंपरा में हर मंदिर के अपने नियम होते हैं.