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चुनाव में 'फ्री योजनाओं' की घोषणाओं पर रोक की मांग, सुप्रीम कोर्ट ने तीन सदस्यीय बेंच को भेजा मामला

बीजेपी नेता और वकील अश्विनी उपाध्याय समेत कई याचिकाकर्ताओं ने मुफ्त की चीजें बांटने का वादा करने वाली पार्टियों की मान्यता रद्द करने की मांग की है.

Freebies Issue: चुनाव में मुफ्त की योजनाओं की घोषणा पर सुप्रीम कोर्ट ने अहम आदेश दिया है. कोर्ट ने 2013 में इसी मसले पर आए एक फैसले की समीक्षा की मांग मान ली है. अगर कोर्ट 'एस सुब्रमण्यम बालाजी बनाम तमिलनाडु सरकार' मामले में आए इस फैसले को पलट देता है, तो राजनीतिक पार्टियों के लिए चुनाव में मुफ्त की घोषणाएं करना काफी कठिन हो जाएगा.

क्या है मामला?

बीजेपी नेता और वकील अश्विनी उपाध्याय समेत कई याचिकाकर्ताओं ने मुफ्त की चीजें बांटने का वादा करने वाली पार्टियों की मान्यता रद्द करने की मांग की है. उनकी याचिका में कहा गया है कि इस तरह की घोषणाएं एक तरह से मतदाता को रिश्वत देने जैसी बात है. यह न सिर्फ चुनाव में प्रत्याशियों को असमान स्थिति में खड़ा कर देती हैं, बल्कि चुनाव के बाद सरकारी ख़ज़ाने पर भी अनावश्यक बोझ डालती हैं. इस याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने 25 जनवरी को नोटिस जारी किया था.

सुप्रीम कोर्ट का आदेश

सुनवाई के दौरान चीफ जस्टिस एन वी रमना की अध्यक्षता वाली बेंच ने इस मसले पर विशेषज्ञ कमिटी बनाने की मंशा जताई थी. कोर्ट ने यह सुझाव भी दिया था कि सरकार को सर्वदलीय बैठक बुला कर मसले का हल निकालना चाहिए. लेकिन कोर्ट ने आज कहा कि सबसे पहले 2013 में आए फैसले की समीक्षा ज़रूरी है. इस मसले पर 2 हफ्ते बाद 3 जजों की विशेष बेंच सुनवाई करेगी.

क्या है 'बालाजी बनाम तमिलनाडु' फैसला?

2013 का एस सुब्रमण्यम बालाजी फैसला 2 जजों की बेंच का था. इसमें कहा गया था कि राजनीतिक पार्टियों की तरफ से चुनाव घोषणपत्र में की जाने वाली जनकल्याण की घोषणाएं संविधान के नीति निदेशक तत्वों के मुताबिक हैं. उस फैसले में यह भी कहा गया था कि चुनाव में भ्रष्ट आचरण के लिए लागू होने वाली जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 123 भी सिर्फ प्रत्याशी पर लागू होती है, पार्टी पर नहीं.

समीक्षा का संभावित असर

एस सुब्रमण्यम बालाजी फैसले में चुनाव आयोग के हाथ बांध रखे हैं. आयोग पार्टियों के घोषणा पत्र या चुनावी वायदों पर नियंत्रण नहीं कर सकता है. सुनवाई के दौरान चुनाव आयोग ने दलील दी थी कि मुफ्त की घोषणा को कोर्ट ने ही नीति निदेशक तत्व के मुताबिक कह रखा है. ऐसे में चुनाव आयोग किसी पार्टी को कोई घोषणा करने से कैसे मना कर सकता है. अगर सुप्रीम कोर्ट 2013 के फैसले को पलट देता है, तो इससे चुनाव आयोग को अधिक शक्ति मिल जाएगी.

रिप्रेजेंटेशन आफ पीपल्स एक्ट यानी जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 123 के सिर्फ प्रत्याशियों पर लागू होने का नियम भी इस फैसले की समीक्षा के बाद बदल सकता है. यानी कोई राजनीतिक पार्टी अगर गैरजरूरी मुफ्त की चीजों का वादा करके चुनाव जीतने का प्रयास करती है, तो उसे धारा 123 के तहत भ्रष्ट आचरण मानते हुए पार्टी के खिलाफ भी कार्रवाई हो सकती है. फिलहाल धारा 123 के तहत सिर्फ उम्मीदवारों पर कार्रवाई होती है. वह भी तब, जब वह मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए पैसे, शराब या कोई दूसरी चीज़ें देते हैं.

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