Swami Vivekananda: स्वामी विवेकानंद, ये वो नाम जिन्होंने खाली हाथों के साथ भगवा वस्त्र धारण कर पूरी दुनिया में घूमकर लोगों के जीवन का मार्ग प्रशस्त किया. स्वामी विवेकानंद को आज भी उनके विश्व धर्म-महासभा में दिए गए भाषण के लिए जाना जाता है. लेकिन, क्या स्वामी जी उस समय शिकागो केवल इस धर्मसभा के लिए गए थे या इसके पीछे उनका कोई और भी उद्देश्य था, यहां जानिए
स्वामी विवेकानंद का जन्म एवं परिचय
स्वामी विवेकानंद का जन्म साल 1863 में 12 जवनरी को हुआ था. स्वामी विवेकानंद के बचपन का नाम नरेन्द्र था. स्वामी जी को बचपन से रामायण-महाभारत की कथाएं कंठस्थ हो गईं थीं. इसके पीछे की वजह थी कि उनके घर में रोजाना इन कथाओं का पाठ होता था. बेटा नरेंद्र अपनी माता भुवनेश्वरी देवी की गोद में बैठकर हर दिन ये कहानियां सुना करता था. वहीं, पिता विश्वनाथ के वकील होने के चलते घर में शिक्षा का माहौल भी उच्च था.
नरेन्द्र से कैसे बने स्वामी विवेकानंद
स्वामी विवेकानंद के गुरु रामकृष्ण परमहंस थे. पठन-पाठन के कार्य के साथ ही नरेन्द्र, रामकृष्ण परमहंस के संपर्क में आए. नरेन्द्र, रामकृष्ण परमहंस के सबसे प्रिय शिष्य थे. अपने जीवन में स्वामी जी ने रामकृष्ण परमहंस की दी हुई शिक्षा को ही अपने जीवन का मूल उद्देश्य बनाया. इसी शिक्षा को पूरी दुनिया में फैलाने के चलते नरेन्द्र, एक आम बालक से स्वामी विवेकानंद बने.
नरेन्द्र के पिता के घर में ऐशो-आराम की अच्छी व्यवस्था थी. साथ ही खाने-पीने के भी भंडार थे. लेकिन, उनके पिता जितना कमाते थे, उसे कहीं अधिक खर्च कर दिया करते थे. पिता विश्वनाथ की मृत्यु के बाद घर पर दरिद्रता का पहाड़ टूट पड़ा. घर में रोटी खाने की भी अपार समस्या उत्पन्न हो गई.
उद्देश्य की खातिर छोड़ दिया घर
स्वामी विवेकानंद के गुरु रामकृष्ण परमहंस ने कहा था कि तुम्हारा जन्म पूरे विश्व के कल्याण के लिए हुआ है. अपने गुरु के आदेश पर स्वामी जी ने घर की समस्याओं के बावजूद संन्यास ग्रहण किया. संन्यासी जीवन में नरेन्द्र को नाम मिला- विवेकानंद.
स्वामी विवेकानंद की भारत यात्रा
जुलाई, 1890 में स्वामी विवेकानंद ने हिमालय से कन्याकुमारी तक की यात्रा शुरू की. स्वामी जी भिक्षा मांगकर अपना जीवन-यापन करते थे. विवेकानंद का उद्देश्य था कि लोगों के बीच हिन्दू धर्म का प्रचार करना. लेकिन अपनी इस यात्रा के दौरान स्वामी जी ने देश की गरीबी को बहुत ही करीब से देखा. स्वामी जी ने समझा कि जब देश में गरीब लोगों के पास खाने को दो वक्त की रोटी न हो, तो उन्हें किसी भी धर्म का पालन करने के लिए किस तरह कहा जा सकता है. इसलिए स्वामी जी ने निश्चय किया कि वे पहले देश से गरीबी मिटायेंगे. देश के राजाओं और उच्च वर्ग से मदद न मिलने के पश्चात् स्वामी जी ने विदेश का रुख किया.
स्वामी जी की अमेरिका यात्रा
31 मई, 1893 को स्वामी विवेकानंद मुंबई से अमेरिका के लिए जहाज पर सवार हुए. स्वामी जी विदेशी धरती पर अपने देशवासियों के लिए मदद मांगने के उद्देश्य से गए थे. लेकिन, जल्द ही स्वामी जी को पता चल गया कि यहां भी लोगों के बीच कई मतभेद हैं. उसी दौरान, अमेरिका में धर्म-महासभा का आयोजन था. लेकिन, किसी धर्म के प्रतिनिधि के रूप में शामिल होने का समय निकल चुका था. इसके बाद भी स्वामी जी को अवसर मिला. हार्वर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जे.एच.राइट के लिखे पत्र ने स्वामी जी को विश्व धर्म-महासभा में हिन्दू धर्म का प्रतिनिधि बना दिया.
विश्व धर्म-महासभा में स्वामी विवेकानंद का भाषण
स्वामी विवेकानंद ने 11 सितंबर, 1893 को विश्व धर्म-महासभा में अपना भाषण दिया. विवेकानंद का वो अद्भुत भाषण, जिसकी शुरुआत स्वामी जी ने "बहनों और भाइयों!" से की थी, वह आज भी इतिहास में दर्ज है. स्वामी विवेकानंद की इस अपनेपन की भावना से धर्म-महासभा का पूरा हॉल तालियों से गूंज उठा था. स्वामी विवेकानंद के इस भाषण के बाद समस्त संसार में उन्हें पहचाना गया.
इस धर्म-महासभा से मिली ख्याति के बाद स्वामी जी ने वेदांत का प्रचार किया. देश-विदेश में लोगों को वेद-शास्त्रों से जुड़ी शिक्षा दीं. स्वामी विवेकानंद ने अंधविश्वास से दूर रहने के साथ ही धर्म में अंधा होने के लिए भी मना किया. जब स्वामी जी भारत लौटे, तब उन्होंने देशवासियों से गरीब लोगों की मदद करने की अपील की.