राज्यपाल एन रवि कुमार के एक नाटकीय फैसले ने तमिलनाडु में संवैधानिक संकट खड़ा कर दिया है. मंत्री सेंथिल बालाजी की बर्खास्तगी के बाद राज्यपाल के दायित्व पर सवाल उठ रहे हैं हालांकि, यह पहली बार नहीं है जब कोई राज्यपाल अपने संवैधानिक दायित्व को लेकर विवादों में है.


2005 में बिहार के राज्यपाल बूटा सिंह हों चाहे 2019 में महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी, सबके फैसलों ने राज्यपाल के दायित्व को सवालों के घेरे में रखा. संविधान के फेडरल स्ट्रक्चर में राज्यपाल का पद बनाया गया है और गृह मंत्रालय के संस्तुति पर राष्ट्रपति इसे नियुक्त करती है.


गृह मंत्रालय की एक रिपोर्ट के मुताबिक एक राज्यपाल के वेतन-भत्ते पर औसत 10 लाख रुपए महीना खर्च होता है. सालाना देखा जाए तो यह राशि 1 करोड़ 20 लाख के आसपास की है. इसके अलावा राजभवन में काम करने के लिए सैकड़ों कर्मचारी रखे जाते हैं, जिस पर करोड़ों का खर्च होता है.




टैक्सपेयर्स के करोड़ों रुपए खर्च करने वाले राज्यपालों के असंवैधानिक फैसलों ने हाल के वर्षों में नई बहस छेड़ दी है. पश्चिम बंगाल के मंत्री शोभनदेब चटर्जी ने राज्यपाल पद को खत्म करने की मांग कर चुके हैं. 2016 में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी इसे खत्म करने की डिमांड की थी. 


ऐसे में आइए राज्यपाल पद पर विवाद और उसकी जरूरत को विस्तार से जानते हैं...


तमिलनाडु में राज्यपाल और सरकार के बीच टकराव क्यों?
सेंथिल बालाजी तमिलनाडु की एमके स्टालिन सरकार में परिवहन मंत्री हैं. 'कैश फॉर जॉब' स्कैम में उन्हें 14 जून को ईडी ने गिरफ्तार किया था. उस वक्त स्टालिन ने राज्यपाल को एक प्रस्ताव भेजा था, जिसमें कहा गया था कि सेंथिल के विभाग को दूसरे मंत्री को दे दिया जाए.


मुख्यमंत्री के इस प्रस्ताव को ठुकराते हुए राज्यपाल ने 15 दिन बाद मंत्री बालाजी को कैबिनेट से बर्खास्तगी का फरमान जारी कर दिया. मामले ने तूल पकड़ा तो राज्यपाल ने एक अन्य आदेश जारी कर दिया इसमें कहा गया कि राज्यपाल ने अपना फैसला वापस ले लिया है.


सुप्रीम कोर्ट के वकील विराग गुप्ता के मुताबिक राज्यपाल ने पहले मंत्री को बर्खास्तगी का नोटिफिकेशन जारी कर दिया और अब बहाल की बात कर रहे हैं. यह कैसे हो सकता है? मंत्री को बहाल करने के लिए अब नए सिरे से नियुक्ति और शपथ की प्रक्रिया अपनानी पड़ेगी.


भारत के संविधान में राज्यपाल का पद और उसका दायित्व
भारत में राज्यपाल का पद एक संवैधानिक पद है. संविधान अनुच्‍छेद 153 मुताबिक भारत गणराज्य के प्रत्‍येक राज्‍य के लिए एक राज्‍यपाल होगा. केंद्र की सिफारिश पर राष्ट्रपति ही राज्यपाल को नियुक्त करते हैं. राज्यपाल का कार्यकाल राष्ट्रपति पर निर्भर करता है.


पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के मुताबिक राज्यपाल केंद्र और राज्‍यों के बीच सेतु की भूमिका निभाते हैं. राज्यपाल के पास वित्तीय, विधायी, कार्यपालिका और न्यायिक शक्तियां मिली हुई है. राज्यपाल के पास बहुमत के आधार पर सरकर गठन करने, सदन बुलाने और विधानसभा भंग की सिफारिश का भी अधिकार है. 


राज्यपाल राज्य की सभी विश्वविद्यालयों के कुलपति होते हैं. राज्य के एडवोकेट जनरल, लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्ति भी राज्यपाल करते हैं. राज्यपाल की अनुमति के बिना फाइनेंस बिल को विधानसभा में पेश नहीं किया जा सकता. कोई भी बिल राज्यपाल की अनुमति के बगैर कानून नहीं बनता.


विराग गुप्ता के मुताबिक संघीय व्यवस्था में राज्यपाल केंद्र के प्रतिनिधि होते हैं. संविधान में यह साफ कहा गया है कि राज्यपाल को मंत्रिमंडल की सलाह पर ही कोई भी फैसला लेना चाहिए. इसलिए बहुमत की सरकार में राज्यपाल की भूमिका सीमित हो जाती है.


वेतन और भत्ते पर होने वाला खर्च, एक रिपोर्ट...


राजभवन के साज-सज्जा के लिए- राज्यपाल को राजभवन के साज-सज्जा के लिए भी पैसे मिलते हैं. इसले लिए राज्यवार अलग-अलग प्रावधान है. नियम के मुताबिक राज्यपाल को जब जरूरत होगी, तब राजभवन के फर्निचर का रिन्यूवल करा सकते हैं.




(Source- MHA)


बिहार में साज-सज्जा के लिए सबसे अधिक पैसे का प्रावधान है. बिहार के राज्यपाल साज-सज्जा पर 62 लाख रुपए तक खर्च कर सकते हैं. सिक्किम के राजभवन को सबसे कम बजट आवंटित है, वहां राज्यपाल सिर्फ 3 लाख 85 हजार रुपए खर्च कर सकते हैं.


साज-सज्जा पर खर्च होने वाली रुपयों का औसत देखा जाए तो यह 10 लाख के करीब है. कई राज्यपाल साल भर में ही इसे खर्च कर देते हैं. राजभवन की साज-सज्जा में खर्च करने को लेकर कई राज्यपाल विवादों में रह चुके हैं. इनमें यूपी के पूर्व राज्यपाल रोमेश भंडारी का भी नाम शामिल हैं. 




मनोरंजन और टूर के नाम पर भी लाखों खर्च- राज्यपाल को मनोरंजन, टूर, हेल्थ आदि के लिए भी भत्ते मिलते हैं. यह भत्ता सालाना दिया जाता है. नियमों में इस खर्च को सर्टेन मैटर्स की सूची में रखा गया है. 




मनोरंजन, टूर, हेल्थ और ऑफिस खर्च आदि में पश्चिम बंगाल सबसे अधिक खर्च करता है. बंगाल में इस मद में सालाना 1 करोड़ 81 लाख रुपए राज्यपाल खर्च कर सकते हैं. अगर सभी राज्यों का औसत देखा जाए तो इस मद में 60 लाख रुपए औसत राज्यपाल पर खर्च होता है यानी एक महीने में 5 लाख रुपए.


पानी, बिजली और गार्डन आदि के लिए भी भत्ते- पानी, बिजली, गार्डन, रिपेयरिंग आदि के लिए भी राज्यपाल को भत्ते मिलते हैं. रिनोवेशन, पानी, बिजली और गार्डन आदि के लिए मिलने वाले इस भत्ते को मेंटेनेंस भत्ता कहा जाता है. 




सबसे अधिक तमिलनाडु के राज्यपाल को यह भत्ता मिलता है. तमिलनाडु के राज्यपाल अधिकतम 6 करोड़ खर्च कर सकते हैं.  वहीं यूपी के राज्यपाल 3.53, महाराष्ट्र के राज्यपाल को 1.80 करोड़ रुपए मिलते हैं. 


औसतन देखा जाए तो एक राज्यपाल को साल में 50 लाख रुपए मेंटेनेंस चार्ज मिलता है. यानी महीने में करीब 4.5 लाख रुपए. इस सबके अलावा राज्यपाल को प्रतिमाह 3.5 लाख रुपए की सैलरी मिलती है. कुल वेतन भत्ता औसतन 12 लाख रुपए से अधिक है. 




क्या गैर-जरूरी है राज्यपाल का पद?


अप्रैल 2023 में सीपीआई के राज्यसभा सांसद विनॉय विश्वम ने राज्यपाल के पद को गैर-जरूरी बताते हुए खत्म करने की मांग की थी. विश्वम ने प्राइवेट बिल का नोटिस भी दिया था. विश्वम कहते हैं- राज्यपाल का पद एक बोझ है. यह सजावटी है और इसमें कोई वास्तविक शक्ति नहीं है.


विश्वम राजभवन को केंद्र की सत्ताधारी दल का कैंप कार्यालय बताते हैं. उनके मुताबिक केंद्र के एजेंडा को पूरा करने के लिए लोग राज्यपाल बनाए जा रहे हैं. 


अशोका यूनिवर्सिटी के अनन्य और नीलेश ने देश के 503 पूर्व राज्यपालों पर एक शोध किया. शोध के मुताबिक औसतन 2 साल तक ही एक राज्यपाल अपने पद पर रह पाए. इसमें आगे कहा गया कि आजादी के बाद राजस्थान में सबसे अधिक 44 राज्यपाल बने. 


शोध के मुताबिक 503 में से 77 राज्यपाल ही रिटायर्ड सैन्य अधिकारी और जज को बनाया गया. बाकी के सभी राज्यपाल राजनीति से जुड़े व्यक्ति ही बने. अभी 28 में से 20 राज्यपाल केंद्र की सत्तधारी पार्टी से जुड़े रहे हैं. 


2006 में एक केस की सुनवाई दौरान सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल की नियुक्ति को लेकर दिशा निर्देश तय करने की बात कही थी. 


हाल ही में विधि फॉर सेंटर पॉलिसी ने एक किताब प्रकाशित की है, जिसका नाम हेड्स हेल्ड हाई : साल्वेजिंग स्टेट गवर्नर्स फॉर 21वीं सेंचुरी इंडिया हैं. किताब में लेखक शंकर नारायणन, केविन जेम्स और ललित पांडा के मुताबिक राज्यपाल का पद खत्म करना भी कई संवैधानिक समस्याओं को उत्पन्न कर सकता है. 


राज्यपाल केंद्र और राज्य के बीच सामंजस्य बनाने के साथ-साथ राज्य विधानसभा के कानूनों की समीक्षा भी करता है. यह जिम्मेदारी अगर किसी और को दी गई तो संवैधानिक संकट उत्पन्न होगा. 


वहीं विराग गुप्ता कहते हैं- राज्यपाल अगर संविधान सम्मत फैसला लेंगे तो कोई विवाद नहीं होगा. संविधान सभा की बैठक में भी राज्यपाल पद पर बहस के बाद उनकी सीमित भूमिका और विशेष परिस्थितियों में उनके अधिकार तय किए गए थे. 


उस वक्त डॉ अंबेडकर ने कहा था कि संविधान की श्रेष्ठता उसके चलाने वाले लोगों के आचरण पर निर्भर रहेगी. इसलिए राज्यपाल पद की समीक्षा से ज्यादा जरूरी उनके द्वारा स्वस्थ्य परंपराओ को मानना है.