तमिलनाडु क्यों बना बिहारी मजदूरों के लिए परेशानी वाला राज्य? 10 लाख मजदूरों के लिए कैसे दुश्मन बन गई 'भोजपुरी'
2008 में महाराष्ट्र में भी बिहारी मजदूरों पर हमले किए गए थे. तब राज ठाकरे ने बिहारियों के छठ पूजा की भी निंदा की थी. अब हिंदी भाषियों के लिए ये लड़ाई पेट के साथ -साथ भाषा और कल्चर की भी बन गई है.
तमिलनाडु में कथित तौर पर बिहारी मजदूरों पर हुए हमले का मामला थमता हुआ नहीं दिख रहा है. अब इसे लेकर सियासत भी गर्म हो रही है. एक तरफ तमिल सरकार ने हिंदी भाषी लोगों पर हमला किए जाने के वीडियो को खारिज किया है. तो वहीं बिहार सरकार ने तमिलनाडु में एक टीम भेज कर मामले की जांच करने की बात कही. इस मुद्दे पर बिहार विधानसभा में विपक्षी पार्टी बीजेपी ने जमकर हंगामा किया और बाद में वॉकआउट कर दिया.
तमिलनाडु में लगभग 10 लाख प्रवासी मजदूर काम करते हैं. मारपीट की बात के बाद बिहारी मजदूर धीरे-धीरे अपने राज्य लौट रहे हैं. जिस तरह के वीडियो और खबरें पिछले दिनों तमिलनाडु से आई उसे देखकर ये सवाल उठता है कि भाषा कैसे इन मजदूरों की दुश्मन बन गई है, और भाषा और प्रतिकूल मौसम की दिक्कत होने के बावजूद ये मजदूर अपना राज्य छोड़कर दूसरे राज्य जाने पर क्यों मजबूर हैं. आईये इन सवालों के जवाब समझने की कोशिश करते हैं.
हाल के सालों में बिहार झारखंड जैसे राज्यों के मजदूर बड़ी तादाद में तमिलनाडु का रुख कर रहे हैं. तमिलनाडु के पश्चिमी हिस्से में तिरुपुर और कोयंबटूर के आस पास पिछले कुछ सालों में प्रवासी मजदूरों की संख्या बढ़ी है.
बिहार एसोसिएशन के सचिव मुकेश कुमार ठाकुर ने बीबीसी को बताया कि पहले बिहार के मजदूर तमिलनाडु में कम ही आते थे. लेकिन कोरोना के बाद ये संख्या बढ़ी है.
तमिलनाडु की राजधानी चेन्नई में बीते करीब 50 साल से मौजूद बिहार एसोसिएशन के सचिव मुकेश कुमार ठाकुर के मुताबिक पहले तमिलनाडु में बिहार के कम मजदूर काम करते थे. वहीं तमिलनाडु केतिरुपुर की कंपनियों का कहना है कि स्थानीय मजदूरों की कमी की वजह से बाहर के लोगों का काम पर रख रहे हैं. इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक तमिलनाडु में लगभग 10 लाख बिहारी मजदूर काम करते हैं. ऐसे में तमिलनाडु के उद्योग निकायों को राज्य का औद्योगिक और विनिर्माण क्षेत्र पर खतरा मंडराता भी नजर आ रहा है.
प्रवासन को लेकर क्या कहता है डाटा
देश के भीतर प्रवासन को लेकर व्यापक सरकारी डाटा नहीं है. 2011 की जनगणना में भारत में आंतरिक प्रवासियों यानी एक राज्य से दूसरे राज्य में प्रवासन करने वाले मजदूरों की संख्या 45.36 करोड़ बताई गई. जो देश की आबादी का का 37% है.
2011 की जनगणना के मुताबिक , भारत का वर्कफोर्स 48.2 करोड़ था. यह आंकड़ा 2016 में 50 करोड़ से भी ज्यादा होने का अनुमान है .
2016-17 के आर्थिक सर्वेक्षण में जिलेवार प्रवासन आंकड़ों से पता चला है कि देश के भीतर प्रवासियों की सबसे ज्यादा आमद गुरुग्राम, दिल्ली और मुंबई जैसे शहरों में थी. इसके अलावा यूपी के गौतम बुद्ध नगर (उत्तर प्रदेश), इंदौर और भोपाल (मध्य प्रदेश), बेंगलुरु (कर्नाटक); और तिरुवल्लूर, चेन्नई, कांचीपुरम, इरोड और कोयंबटूर (तमिलनाडु) जैसे जिलों में प्रवासी मजदूरों की संख्या सबसे ज्यादा थी.
यहां पर आने वाले प्रवासी श्रमिक मुजफ्फरनगर, बिजनौर, मुरादाबाद, रामपुर, कौशांबी, फैजाबाद और उत्तर प्रदेश के 33 दूसरे जिलों से थी. वहीं उत्तराखंड के उत्तरकाशी, चमोली, रुद्र प्रयाग, टिहरी गढ़वाल, पौड़ी गढ़वाल, पिथौरागढ़, बागेश्वर, अल्मोड़ा और चंपावत, राजस्थान के चुरू, झुंझुनू और पाली, बिहार में दरभंगा, गोपालगंज, सीवान, सारण, शेखपुरा, भोजपुर, बक्सर और जहानाबाद, झारखंड में धनबाद, लोहरदगा और गुमला, और महाराष्ट्र में रत्नागिरी और सिंधुदुर्ग से भारी संख्या में मजदूर आते हैं.
आवास और शहरी गरीबी उन्मूलन मंत्रालय के तहत प्रवासन पर कार्य समूह, 2017 की रिपोर्ट के मुताबिक, 17 जिलों से प्रवासन करने वाले मजदूरों की साझेदारी 25 प्रतिशत है. इनमें से दस जिले उत्तर प्रदेश में, छह बिहार में और एक ओडिशा में है.
साफ है कि बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे अपेक्षाकृत कम विकसित राज्यों से मजदूरों का प्रवासन सबसे ज्यादा है. ये मजदूर गोवा, दिल्ली, महाराष्ट्र, गुजरात, तमिलनाडु, केरल और कर्नाटक की तरफ अपना रुख करते हैं. इनमें दिल्ली टॉप पर है. दिल्ली में 2015-16 में सबसे ज्यादा प्रवासी मजदूरों ने अपना रुख किया. वहीं महाराष्ट्र, गोवा और तमिलनाडु में भी बड़े पैमाने पर मजदूरों का पलायन हुआ.
हाल के आंकड़े क्या बताते हैं
जून 2022 में सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय की तरफ से जारी एक रिपोर्ट में, जुलाई 2020-जून 2021 के बीच देश की 0.7 प्रतिशत आबादी अपने राज्यों में लौटी थी. ये आंकड़े कोविड की शुरुआत के बाद के हैं. ये मजदूर कम से कम 15 दिन और ज्यादा से ज्यादा 6 महीने तक अपने घरों में रहे. मजदूरों का ये 0.7 प्रतिशत का आंकड़ा उस कैटेगरी से ताल्लुक रखता था जिन्होंने कोरोना की वजह से अपनी नौकरी खो दी.
तमिलनाडु मामले में कई बिहारी मजदूर ये कहते नजर आए कि "वे लोग हिंदी बोलते ही पिटाई शुरू कर देते हैं. वहां के लोग बिहारी मजदूरों की जगह अपने स्थानीय लोगों को रोजगार में तरजीह देने की बात कर रहे हैं. मीडिया को कई मजदूरों ने बताया कि हमसे पहले अपना आधार कार्ड दिखाने को कहा जाता है. फिर हमारी पिटाई शुरू कर दी जाती है. मजदूरों ने ये भी कहा कि जो वहां की भाषा जानता है उसे कुछ नहीं हो रहा है. यानी तमिलनाडु में चल रही ये पेट की लड़ाई के साथ भाषा की भी लड़ाई है.
हिंदी भाषी प्रवासी श्रमिकों का दावा है कि तमिलनाडु से भागते समय ट्रेनों में भी उनके साथ मारपीट की जा रही है. एक मार्च को झारखंड के रांची के रहने वाले कुछ मजदूर भी तमिलनाडु से अपने वतन लौटे थे. उनका कहना था कि दक्षिण भारतीय राज्य में पिछले 20 दिनों से माहौल खराब है. "वहां के स्थानीय लोग किसी से भी ये पूछते हैं कि तुम कहाँ से आए है, अगर वे हिंदी भाषी राज्य से बताते हैं, तो उन्हें तमिल में गाली दी जाती है और पीटा जाता है.
2008 में महाराष्ट्र में भी उत्तर प्रदेश और बिहारी प्रवासियों मजदूरों पर हमले किए गए थे. तब राज ठाकरे ने बिहारियों के लोकप्रिय छठ पूजा की भी निंदा की थी. ठाकरे ने छठ पूजा 'नाटक' और 'अहंकार का प्रदर्शन' बताया था. ये भी मांग की गई थी बिहारियों को केवल महाराष्ट्रीयन त्योहारों को ही मनाना चाहिए. छठ. पूजा पर उनकी टिप्पणी के बाद 8 फरवरी को पटना सिविल कोर्ट में उनके खिलाफ एक याचिका भी दायर की गई थी.
खोखले साबित हुए सरकार के वादे
जब नीतीश कुमार ने 2005 में सत्ता संभाली थी, तब पूरे देश के मुकाबले बिहार में सबसे ज्यादा बेरोजगारी थी. और नीतीश कुमार ने बिहारियों को आजीविका की तलाश में बाहर जाने से रोकने का वादा किया था. लेकिन बिहार के प्रवासी संकट का पैमाना तब लोगों के सामने आया जब 2020 की कोविड-19 महामारी के दौरान 15 लाख से ज्यादा श्रमिक घर जाने के लिए निकल पड़े.
तमिलनाडु की घटना के बाद फिर से पुराना सवाल खड़ा हो रहा है कि आखिर बिहार के लाखों मजदूरों के सामने ऐसी कौन सी मजबूरी है जिसके लिए वो अपना घर-परिवार तक छोड़ देते हैं.
2005 में बिहार में गरीबी दर 54.5 प्रतिशत थी. यह देश का सबसे गरीब राज्य था. नीतीश कुमार ने गरीबी हटाने का वादा किया. वादे के बाद आज भी बिहार सबसे गरीब राज्य बना हुआ है. बिहार में गरीबी दर 519 प्रतिशत है. नीति आयोग की एक रिपोर्ट के मुताबिक, बिहार की आधी से ज्यादा आबादी गरीब है.
सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) के आंकड़ों के मुताबिक, फरवरी 2023 में बिहार की बेरोजगारी दर बढ़कर 12.3 प्रतिशत हो गई. बिहार ने हरियाणा, राजस्थान और झारखंड जैसे राज्यों से भी खराब प्रदर्शन किया. बेरोजगारी दर की वजह राज्यों के लोगों का कम पढ़ा लिखा होना है.
अनपढ़ और थोड़े बहुत पढ़े लिखे नौजवानों को खेतिहर मजदूरी, बिल्डिंग निर्माण और सफाई कर्मचारी, फेरीवाले, चौकीदार, धोबी, रिक्शा चालक, ऑटो-रिक्शा चालक और अब लिफ्ट अटेंडेंट के रूप दूसरे राज्यों में काम करने के लिए मजबूर होना पड़ता है.
पूरे देश में 33 मिलियन बोलते हैं भोजपुरी
समताली (ओडिशा), भेली (राजस्थान), मिजो (मिजोरम) और अन्य भारतीय भाषाएं तेजी से विकास करने वाली भाषाएं हैं. इस लिस्ट में भोजपुरी सबसे ऊपर है. भारत की 2001 की जनगणना के मुताबिक, पूरे देश में भोजपुरी बोलने वाले 33 मिलियन लोग हैं. इसके अलावा, नेपाल, मॉरीशस, फिजी, सूरीनाम, गुयाना, युगांडा, सिंगापुर, त्रिनिदाद और टोबैगो, सेंट विंसेंट और ग्रेनेडाइंस में लगभग छह मिलियन भोजपुरी भाषी लोग हैं. ये इस देश के बाहर तीसरी सबसे व्यापक रूप से बोली जाने वाली भारतीय भाषा बनाते हैं.
भोजपूरी शर्म नहीं गर्व है
दिलचस्प बात यह है कि पलायन के बावजूद प्रवासी मजदूर न केवल अपनी भाषा से जुड़े हैं, बल्कि अपनी भाषा को फैला भी रहे हैं. भाषा रिसर्च के डायरेक्टर गणेश देवी का कहना है कि एक दशक पहले आप कह सकते थे कि भोजपुरी गरीबों की भाषा है. लोगों को भोजपुरी को मातृभाषा बताने में शर्म आती थी. लेकिन अब ये पहचान गायब हो रही है. दिक्कत ये है कि दूसरी भाषा के लोग इसे नहीं अपना पा रहे हैं.
डुमरांव में जन्में फिल्म निर्माता, नितिन चंद्रा, जो पिछले कुछ वर्षों से मुंबई में हैं, उन्होंने मिड डे को बताया कि मैंने ग्रेजुएशन दिल्ली से किया है. तब भोजपूरी बोलने पर मुझे शर्म आती थी. उन्होंने कहा, 'मैं यह देखकर हैरान रह गया कि दिल्ली में लोगों ने बिहारी शब्द का इस्तेमाल अपशब्द के तौर पर किया.
वो कहते हैं कि मैं 19 साल का था और मुझे नहीं पता था कि इस बर्ताव पर दिल्ली वालों को कैसा रिस्पॉन्स किया जाए. "वह कहते हैं कि बाद में उन्होंने देखा कि महानगरों में रहने वाले कई बिहारियों को ये बताने में भी शर्म आती थी कि वो बिहार से ताल्लुक रखते हैं. चंद्रा ने इसका जवाब देने के लिए फिल्में बनानी शुरू की.
चंपारण टॉकीज के बैनर तले सामाजिक मुद्दों पर इनकी फिल्में अब खूब जानी जाती है. 2016 में उनकी फिल्म "मिथिला माखन" ने 63 वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों में सर्वश्रेष्ठ मैथिली भाषा फिल्म जीती. 2011 में नितिन चंद्रा के निर्देशन में बनी पहली फिल्म देसवा को अंतरराष्ट्रीय फिल्म सर्किट पर भी सराहा गया था.
इस फिल्म में बिहार के हालातों को दिखाया गया था. वो कहते हैं कि भाषाई पहचान की वजह से बिहारियों को दिक्कत का सामना करना पड़ता है. लेकिन कोई भी भाषा अपने लोगों के इतिहास और सभ्यता का प्रतिनिधित्व करता है.