नई दिल्ली: अफगानिस्तान में तालिबानी निबंध निजाम काबिज होने पर पाकिस्तान भले ही तालियां बजा रहा हो. इसे अपनी जीत समझ नए मंसूबे बना रहा हो लेकिन अफगान बिसात की दरारें उसकी उम्मीदों पर पानी भी फेर सकती है. इतना ही नहीं साम्राज्य की कब्रगाह कहलाने वाले अफगानिस्तान में चीन अगर पैसे के दम पर रणनीतिक विस्तार की योजना बना रहा है तो यह उसकी बड़ी भूल भी साबित हो सकता है.
जानकारों के मुताबिक अफगानिस्तान और पाकिस्तान के रिश्तो में एक बड़ी फॉल्टलाइन है डूरंड रेखा जो ब्रिटिश साम्राज्य के समय खींची गई थी. इसके तहत अफगानिस्तान का एक हिस्सा ब्रिटिश साम्राज्य को दिया गया था जो अब पाकिस्तान के पास है. यह समझौता केवल 100 सालों के लिए हुआ था और अब इसकी मियाद पूरी हो चुकी हैं. पाकिस्तान लंबे समय से इस कोशिश में लगा है कि किसी तरीके से डूरंड रेखा के इस समझौते को अंतर्राष्ट्रीय सीमा में बदल लिया जाए. तालिबान जब पिछली बार 90 के दशक में सत्ता में आए थे तब भी पाकिस्तान ने इसकी कोशिश की थी लेकिन उसे कामयाबी नहीं मिल पाई.
जाहिर है एक बार फिर पाकिस्तान की कोशिश होगी कि वह तालिबान नेताओं पर अपने एहसानों के बदले में डूरंड रेखा पर समझाता हासिल कर ले. हालांकि अफगान जमीन का सौदा तालिबान के लिए भी भारी पड़ सकता है. वहीं अगर ऐसा नहीं होता है तालिबान की जिद पाकिस्तान की नाखुशी और नाराजगी का सबब हो सकती है. यह समीकरण सुनने में भले ही सीधे लग रहे हों, लेकिन जमीन में पर काफी पेचीदा हैं. क्योंकि पाकिस्तान के इलाके में भी पश्तून अपनी आजादी और अधिकारों के लिए आवाज बुलंद कर रहे हैं. ऐसे में पश्तून नेताओं की बहुलता वाले तालिबानी नेतृत्व के लिए उनके आंदोलन को नजरअंदाज करना आसान नहीं होगा.
सरकारी सूत्रों के मुताबिक पाकिस्तान इस बात की पूरी कोशिश कर रहा है कि अफगानिस्तान में बनने वाली नई तालिबानी सरकार में उसके समर्थक नेताओं को बड़ी और महत्वपूर्ण भूमिका मिले. जाहिर है इसके सहारे उसी कोशिश अपने रणनीतिक हितों को साधने की भी होगी. लेकिन अभी इस बात पर ठोस नहीं कहा जा सकता कि विभिन्न गुटों में बंटे तालिबान नेता कितना कुछ पाकिस्तान की मर्जी से करते हैं.
कभी पाकिस्तान पर निर्भर रहे तालिबान के नेता अफगानिस्तान की सत्ता हाथ में आने के बाद अपने आप को स्वतंत्र दिखाने की कोशिश ही अधिक करेंगे. इस बीच काबुल में सरकार बनने से पहले ही गैरों से तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान के आतंकियों की रिहाई इस्लामाबाद के लिए फिक्र बढ़ाने को काफी है. आतंकी संगठन टीटीपी पाकिस्तान इमरान खान सरकार के लिए पहले ही एक सिरदर्द है.
इसके अलावा पाकिस्तान का दबाव इस चीज के लिए भी होगा कि उसके यहां मौजूद अफगान शरणार्थियों को भी नई सरकार वापस ले. जर्जर अर्थव्यवस्था और विदेशी मदद पर निर्भर काबुल की सत्ता तालिबान के हाथ में आने पर भी पाकिस्तान से बड़ी संख्या में लोगों को वापस लेने का निर्णय आसान नहीं है. एक आकलन के मुताबिक पाकिस्तान में करीब 30 लाख अफगान शरणार्थी हैं. इतनी बड़ी संख्या में लोगों को तभी वापस लिया जा सकता है जब अर्थव्यवस्था उनका बोझ उठाने के लिए तैयार हो.
अफगानिस्तान के ताजा घटनाक्रमों को लगातार देख रहे जानकार सूत्रों के अनुसार अफगानिस्तान में धनबल के जरिए अपने प्रभाव को बनाने की चीन अगर कोशिश करता है तो उसके लिए भी रास्ता कठिन होगा. ऐसे में अफगानिस्तान को मदद के बहाने अपने बेल्ट एंड रोड प्रयास का विस्तार और खनन क्षेत्र में वर्चस्व जैसी कोशिशें उलटी भी पड़ सकती हैं.इतिहास गवाह है कि ब्रिटिश सम्राज्य से लेकर सोवियत संघ और अमेरिका ने अब तक खरबों रुपये अफगानिस्तान में बहा दिए हैं. लेकिन आर्थिक ताकत झोंकने के बाद भी अफगानिस्तान में न तो वो टिक सके और न ही अपना मनचाहा मुकाम स्थायी कर पाए.
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