नई दिल्ली: आधुनिकिकरण की जद्दोजहद से जूझ रही भारतीय सेना के जंगी बेड़े में जो हथियार और साजो-सामान हैं, उनमें भी बेहद खामियां हैं. ऐसी खामियां कि अगर दुश्मन देशों से जंग छिड़ी तो भारतीय सेना के लिए काफी मुश्किल आ सकती हैं. यहां तक की सर्जिकल स्ट्राइक जैसे ऑपरेशन में जरूरी संचार-उपकरण और ट्रैकिंग सिस्टम तक स्पेशल फोर्स के कमांडोज़ के पास नहीं हैं. ये हम नहीं कह रहे हैं. ये कहना है खुद सेना का.


जनरल बिपिन रावत ने जारी की रिपोर्ट


आर्मी डिजाइन ब्यूरो ने अपने टैंक, तोप और इलेक्ट्रोनिक कम्युनिकेशन की इन कमियों और खामियों को उजागर करते हुए एक रिपोर्ट तैयार कर प्राईवेट कंपनियों से मदद मांगी है. इस रिपोर्ट की कॉपी एबीपी न्यूज के पास भी है. थलसेना प्रमुख जनरल बिपिन रावत ने हाल ही में‘कॉम्पेनडियम ऑफ प्रोबल्मस’ नाम की इस रिपोर्ट को जारी किया है.


रिपोर्ट के मुताबिक, हमारे इंफेंट्री डिवीजन्स के पास ‘कॉम्बेट जोन ट्रैकिंग सिस्टम’ तक नहीं है. ये सिस्टम सेना की स्पेशल फोर्स, स्कॉउट्स और घातक-प्लाटून के लिए बेहद जरुरत है. क्योंकि सेना की ये खास टुकड़ियां ‘ऐनेमी-लाइंस’ के पीछे  यानि दुश्मन के इलाको में जाकर सर्जिकल-स्ट्राइक या फिर दूसरी कारवाईयां करती हैं. ऐसे में दुश्मन कौन है और दोस्त कौन ये पता लगाने बेहद मुश्किल हो जाता है. इसके लिए ये ट्रैकिंग सिस्टम बेहद जरुरी है.


बताते चलें कि पिछले साल ही भारतीय सेना के स्पेशल फोर्स के कमांडोज़ ने पाकिस्तान के कब्जे वाली कश्मीर यानि पीओके में घुसकर सर्जिकल स्ट्राइक की थी. साल 2015 में भी एसएफ कमांडोज़ ने म्यांमार सीमा मों घुसकर ऐसे ही एक ऑपरेशन में उग्रवादियों के कैंपों को तहस-नहस कर करीब 60 उग्रवादियों को ढेर कर दिया था.


भारतीय सेना के पास नहीं है ‘ब्लू फोर्स ट्रैकिंग सिस्टम'


रिपोर्ट के मुताबिक, अमेरिकी सेना एक खास तरह का ‘ब्लू फोर्स ट्रैकिंग सिस्टम’ इस्तेमाल करती है. जिसके जरिए अमेरिकी सेना के सैनिक दुनिया के किसी भी कोने में ऑपरेट कर रहे हों उन्हे आसानी से चिहिंत किया जा सकता है. ऐसे में युद्ध-क्षेत्र में सैनिकों को ये पता लगाना आसान हो जाता है कि दोस्त कौन है और दुश्मन कौन. जबकि भारतीय सेना के पास ऐसा कोई भी सिस्टम नहीं है, जिससे अपने सैनिकों की पहचान हो सके. हमारे सैनिक और कमांडोज़ अभी भी पहले दुश्मन के इलाके में रेकी करने जाते हैं और फिर उस इलाके से वाकिफ होने के बाद अपने ऑपरेशन्स को अंजाम देते हैं.


रिपोर्ट में साफ तौर से कहा गया है कि अगर किसी सर्जिकल स्ट्राइक के दौरान हमारे सैनिक दुश्मन के इलाके में फंस जाते हैं और वहां से निकालने के लिए उन्हें हेलीकॉप्टर भेजे जाते हैं तो पायलट और ग्राउंड-कमांडर्स के बीच कम्युनिकेशन यानि बातचीत बेहद मुश्किल है. ऐसे में बेहद जरुरी है कि दोनों के पास बेहद हाई-फ्रिक्युंसी रेडियो सेट हो, जिससे वे आपस में बातचीत कर सकें.


उंचाई पर सेना के टैंक और इंफेंट्री कॉम्बेट व्हीकल के इंजन नहीं करते ठीक से काम


आर्मी डिजाइन ब्यूरो की रिपोर्ट के मुताबिक, 13 हजार से 17 हजार फीट की उंचाई पर सेना के टैंक और इंफेंट्री कॉम्बेट व्हीकल के इंजन ठीक से काम नहीं करते हैं. जिसके चलते टैंक औप आईसीवी को इस्तेमाल करने वालें मैकेनाइजेड फोर्सेज़ को काफी दिक्कत का सामना करना पड़ता है. रिपोर्ट के मुताबिक इसका कारण है इतनी उंचाई पर ऑक्सीजन की कमी और वहां की बेहद ठंडी जलवायु. आर्मी डिजाइन ब्यूरो की रिपोर्ट के मुताबिक, हाई ऑल्टीट्यूड एरिया में ब्रिज बनाने वाले टी-72 टैंक को भी प्री-हीटर की जरुरत पड़ती है. क्योंकि उंचाई वाले इलाकों में तापमान बेहद कम होता है जिसके चलते इन टैंकों को स्टार्ट करने के लिए प्री-हीटर की जरुरत पड़ती है. सेना ने इस कमियों को दूर करने के लिए निजी कंपनियों से सीधे आर्मी डिजाइन ब्यूरो या फिर डायरेक्टरेट जनरल ऑफ मैकेनाइजेड फोर्सेज़ सें संपर्क करने के लिए कहा है.


टैंकों के इंजनों में बदलाव के लिए प्राईवेट कंपनियों से  मांगी गई मदद


भारतीय सेना को इस कमी का पता हाल ही में तब लगा जब टैंकों की एक ब्रिगेड को चीन की सीमा से सटे लद्दाख और सिक्किम में तैनात किया गया. इन इलाकों में चीन से सटी सीमा करीब 13 हजार से 17 हजार फीट पर है और ये बेहद ठंडे इलाके हैं. ऐसे में सेना को इस बात की चिंता है कि अगर इतनी उंचाई पर अगर युद्ध हुआ तो हमारे टैंक अपनी क्षमता के अनुसार काम नहीं कर पाएंगे. इसी लिए इन टैंकों के इंजनों में बदलाव लाने के लिए प्राईवेट कंपनियों से मदद मांगी गई है.


सेना के वर्क-होर्स माने जाने वाले टी-90 (नाईन्टी) टैंकों में सिर्फ उंचाई वाले इलाकों में ही खामियां नहीं हैं. बल्कि राजस्थान के थार जैसे गर्म इलाकों में भी इन टैंकों को लंबे समय तक ऑपरेट करने में काफी दिक्कत का सामना करना पड़ता है. यहां हम ये भी बताते चलें कि भारत की एक लंबी सीमा जो पाकिस्तान से सटी हुई है वहां रेगिस्तान और बेहद गर्म जलवायु है. रिपोर्ट के मुताबिक, इन टी-90 टैंकों के रेडियटर जल्दी गर्म हो जाते हैं, जिसके चलते इन टैंकों को लंबे समय तक ज्यादा तापमान वाले इलाकों में तैनात नहीं किया जा सकता है. यहां तक की इन टैंकों के डिजाइन में काफी खामियां पाई गई हैं. रिपोर्ट में कहा गया है कि टैंक कमांडर को टैंक चलाने के लिए कोपला उठाकर अपने सिर को बाहर निकालकर चलाना पड़ता है नहीं तो वो दिशा भूल जाता है. लेकिन असल युद्ध-क्षेत्र में ऐसा करना टैंक कमांडर और बाकी क्रू के लिए खतरे से खाली नहीं है.


युद्ध के समय टैंकों की सुरक्षा करना बेहद मुश्किल


रिपोर्ट में टैंकों की सुरक्षा पर बेहद गंभीर सवाल खड़े किए गए हैं. रिपोर्ट के मुताबिक, अगर युद्ध हुआ तो टैंकों की सुरक्षा करना बेहद मुश्किल हो जायेगा. क्योंकि भारतीय सेना टैंकों की ब्रिगेड को नेट यानि जाल से 'कैमोफैलाज' (छद्यावरण) करती है. लेकिन ऐसी स्थिति में दुश्मन के हेलीकॉप्टर, यूएवी और सैटेलाइट इनकी मूवमेंट और ठिकानों को आसानी से पता लगाकर इनपर सीधे मिसाइल से हमला बोल सकती है. इसके लिए जरुरत है कि टैंकों में ऐसे इलेक्ट्रोनिक-सेंसर्स लगे हो कि टैंक अपने आस-पास के इनवायरमेंट में मेल हो जाए और दुश्मन इनकी लोकेशन का पता ना लगा सके. इस तरह के सेंसर्स बनाने के लिए सेना ने प्राईवेट कंपनियों से मदद मांगी है.


खामियां सिर्फ सेना की इंफंट्री डिवीजन और आर्मर्ड या मैकेनाइजेड फोर्सेज़ में ही नहीं है, इस तरह की ऑपरेशनल दिक्कतें सेना की एयर-डिफेंस हो या आर्टेलेरी सभी में पाई गई हैं. सेना को उम्मीद है कि इस रिपोर्ट को सीआईआई को सौंपने से रक्षा क्षेत्र की निजी कंपनियां इस दिशा में रिसर्च एंड डेवलेपमेंट करेंगी और सैन्य साजो-सामान में आ रही खामियों को दूर किया जा सकेगा. क्योंकि खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी मेक इन इंडिया के तहत स्वदेशीकरण पर खासा जोर दे रहे हैं. ऐसे में ये सेना की ये पहल भी एक सार्थक कदम है.