6 दिसंबर: इन कोशिशों के बावजूद अब तक नहीं सुलझा राम मंदिर विवाद, जानें पूरी जानकारी
अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का विवाद सालों पुराना है और इसे सुलझाने के लिए फिलहाल पुरजोर कोशिशें करने का दावा किया जा रहा है. हालांकि आपके लिए ये जानना जरुरी है कि जब से ये मामला शुरू हुआ है तबसे लेकर अब तक इसके लिए क्या प्रयास किए जा चुके हैं.
नई दिल्ली: भारतीय राजनीति में 1990 के दौर के बाद से ही लगभग हर चुनाव में राम मंदिर का मुद्दा प्रमुखता से गरमाता रहा है. अयोध्या की विवादित जमीन को लेकर सभी पक्षों के अपने-अपने तर्क और दावे हैं. एक पक्ष का कहना है कि राम मंदिर ध्वंस और बाबरी मस्जिद के निर्माण के लिए हजारों हिंदुओं का कत्ल किया गया था, तो दूसरे पक्ष का कहना कि बाबर अपने जीवन काल में कभी अयोध्या गया ही नहीं. इन्हीं आरोप-प्रत्यारोप के बीच भारतीय राजनीति में सबसे बड़ा मोड़ 6 दिसंबर 1992 को आया. इस दिन आक्रोशित भीड़ ने किसी कानून की परवाह किए बिना बाबरी मस्जिद के विवादित ढांचे को धवस्त कर दिया.
राम मंदिर को लेकर जब से आंदोलन शुरू हुआ है माना जाता है कि इसका सबसे ज्यादा फायदा बीजेपी को मिला है. कभी महज दो सीटों पर सिमट जाने वाली पार्टी ने देखते-देखते क्रेंद में सरकार बना ली और अटल बिहारी वाजपेयी इस सरकार के मुखिया बने. लेकिन सरकार में आने के बाद से बीजेपी पर बार बार राम मंदिर निर्माण को लेकर सवाल दागे जाने लगे, तब बीजेपी का कहना था कि हमारे पास बहुमत नहीं है. 2014 में गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की लहर में बीजेपी ने सभी पार्टियों के किले धवस्त करके हुए लगभग 30 साल बाद पूर्ण बहुमत की सरकार बना ली.
मोदी सरकार के गठन के बाद से ही लगातार बीजेपी पर राम मंदिर निर्माण को लेकर दबाव बनाया जाने लगा. अब जबकि मोदी सरकार को पांच साल पूरे होने वाले हैं और 2019 का लोकसभा चुनाव सर पर है ऐसे में एक बार फिर से राम मंदिर निर्माण की गूंज सुनाई देनी लगी है. कुछ पक्ष इस मामले को शांति पूर्वक हल करने के लिए बातचीत करने की हिमायत कर रहे हैं. लेकिन इस मुद्दे को सुलाझाने की मांग विवादित ढांचे के विध्वंस के पहले से ही होती रही है. आज हम आपको ऐसी ही कोशिशों के बारे में बताते हैं जब बात शुरुआती स्तर पर ही बिगड़ गई या फिर बनते-बनते रह गई.
साल 1990 प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने इस मुद्दे को सुलझाने के लिए वीएचपी और अखिल भारतीय बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी दोनों को एक टेबल पर लाने में सफलता हासिल की थी. दोनों संगठनों के प्रतिनिधियों ने केंद्र सरकार के सामने अपना-अपना पक्ष और सबूत पेश भी किये थे. लेकिन इसी बीच कुछ वीएचपी वालंटियर्स के ऊपर मस्जिद के एक हिस्से को तोड़ने का आरोप लगा और बातचीत बीच में ही बंद हो गई.
दिसंबर 1992 विवादित ढांचे को गिराए जाने के 10 दिन बाद इस मामले को सुलझाने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने जस्टिस लिब्रहान के नेतृत्व में 'लिब्रहान आयोग' का गठन किया था. इस आयोग ने 17 साल के बाद 2009 में अपनी रिपोर्ट पेश की. हालांकि तब तक दोनों पक्षों के बीच बात इतनी बिगड़ चुकी थी कि इस रिपोर्ट का कोई मतलब नहीं निकल पाया.
जून 2002 अटल बिहारी वाजपेयी ने इस मामले के निपटारे के लिए 'अयोध्या सेल' का गठन किया था. इस सेल का हेड शत्रुघ्न सिन्हा को नियुक्त किया गया था. शत्रुघ्न सिन्हा ने दोनों समुदायों के नेताओं से बात भी की थी. लेकिन बाबरी मस्जिद ऐक्शन कमेटी के संयोजक ज़फरयाब जिलानी ने वीएचपी से किसी भी तरह की बात करने से इंकार कर दिया था.
जून-जुलाई 2003 वाजपेयी सरकार ने मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के साथ इस मुद्दे पर बातचीत करने के लिए कांची के शंकरचार्य जयेंद्र सरस्वती की कोशिशों के बारे में जानकारी दी. हालांकि, मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने इस मुद्दे पर सरकार की ईमानदारी पर सवाल उठाते हुए शंकराचार्य के प्रस्तावों को खारिज कर दिया था. वीएचपी ने भी शंकराचार्य और मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के बीच बातचीत का विरोध किया था.
दिसंबर 2003 अयोध्या जामा मस्जिद ट्रस्ट (एजेएमटी) ने इस विवाद को हल करने को लेकर एक त्रिस्तरीय फॉर्मूला सुझाया था. एजेएमटी ने अपने फॉर्मूले के पहले भाग में कहा था कि मुस्लिमों को विवादित जमीन पर अपना दावा छोड़ देना चाहिए. दूसरे भाग में कहा गया था कि उन्हें मूल दावेदार हाशिम अंसारी के घर के करीब जमीन आवंटित की जाएगी. वहीं तीसरे भाग में कहा गया कि जमीन आवंटित करने के बाद, सरकार नई साइट पर एक मस्जिद बनाने के लिए 400 करोड़ आवंटित करेगी. लेकिन ये फॉर्मूला भी फेल हो गया था.
अप्रैल 2011 2010 में इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले के बाद हनुमानगढ़ी मंदिर के महंत ज्ञान दास और हाशिम अंसारी ने इस मुद्दे को हल करने के लिए बातचीत की थी. इस बातचीत में जो फॉर्मूला निकल कर आया था उसमें विवादित 70 एकड़ जमीन पर मंदिर और एक मस्जिद दोनों के लिए प्रावधान था. साथ ही तय किया गया था कि दोनों धार्मिक स्थलों के बीच 100 फुट की दीवार बनाई जाएगी.
अगस्त 2010-13 इलाहाबाद हाई कोर्ट के रिटायर्ड जज जस्टिस पलक बसु ने विवाद को हल करने के लिए अयोध्या और फैजाबाद के निवासियों के "स्थानीय" प्रयास का नेतृत्व किया था. इसमें तय किया गया था कि विवादित स्थल पर एक राम मंदिर और इसके 400 मीटर दूर एक मस्जिद बनाई जाएगी.
मार्च 2017 सुप्रीम कोर्ट ने इस सारे विवाद को आपसी बातचीत के जरिए हल करने के लिए कहा था. साथ ही कोर्ट ने ये भी कहा था कि वो इस सारे मामले में मीडिएटर बनने को तैयार है.