5 अगस्त 2020 का दिन भारतीय इतिहास की बड़ी घटनाओं के तौर पर दर्ज हो जाएगा. इस दिन अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण की विधिवत शुरुआत हो जाएगी क्योंकि इस दिन मंदिर निर्माण का भूमि पूजन होने के साथ ही आधारशिला रखी जाएगी. इसके साथ ही राम भक्तों का सैकड़ों वर्ष इंतजार खत्म हो जाएगा और उनकी मनोकामना पूरी होगी. हालांकि, इस अवसर तक पहुंचने में कई साल लगे और इसलिए ये जानना जरूरी है कि आखिर कितने सालों के राम भक्तों को इसका इंतजार करना पड़ा.


आजाद हिंदुस्तान के सबसे लंबे समय तक चलने वाले मुकदमे और सबसे विवादास्पद मुद्दे पर सालों-साल देश की नजरें गढ़ी रहीं. एक आंदोलन से शुरू होकर ये मुद्दा देश की राजनीति की धुरी बन गया और भारतीय जनता पार्टी के उद्भव से लेकर शीर्ष तक पहुंचने का प्रमुख मार्ग बना. इतना ही देश में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की जड़ों को इस मुद्दे ने ही मजबूती दी. ऐसे में इस पूरे मुद्दे के अहम पड़ावों के बारे में जानना जरूरी है.


बाबर ने मंदिर गिराया, मस्जिद बनवाई


भारत में 15वीं सदी में मुगलों ने आक्रमण किया था बाबर देश में पहला मुगल शासक बना था. इस दौरान सन् 1527-28 के दरम्यान बाबर अपनी फौज के साथ अयोध्या पहुंचा था और यहां पहले से मौजूद मंदिरों को गिराने का आदेश दिया था. इन्हीं में से एक मंदिर भगवान श्रीराम का था, जो उनके जन्मस्थान पर कई सदियों पहले बनाया गया था. इतिहास में दर्ज तथ्यों के मुताबिक, इस मंदिर को गिराने के बाद बाबर के सेनापति मीर बकी ने यहां एक मस्जिद का निर्माण कराया था.


हालांकि, यह भी माना जाता है, कि इस ढांचे को बड़ी मस्जिद के रूप में विकसित करने का काम औरंगजेब ने किया था और उसने ही इसका नाम बाबरी मस्जिद रखा था. हालांकि, औरंगजेब से पहले अकबर के शासनकाल में इसी जगह पर एक चबूतरे में बेहद छोटा सा मंदिर बनाकर हिंदुओं को पूजा करने की इजाजत दी गई थी, जिसे बाद में औरंगजेब के शासन में नष्ट कर दिया.


19वीं सदी में पहली बार विवाद और पहला कोर्ट केस


हालांकि, पहली बार इसको लेकर दोनों धर्म के लोगों के बीच पहला विवाद या पहली हिंसा 1853 में हुई थी. इस दौरान हिंदुओं ने आरोप लगाया था कि यहां पर राम मंदिर को गिराकर मस्जिद बनाई गई थी. इसके बाद 1857-58 में भी इस मस्जिद को लेकर विवाद हुआ था और फिर 1859 में अंग्रेजी हुकूमत ने मंदिर में बाड़ लगा दी थी, जिसके बाद बाहरी हिस्से में हिंदुओं को और अंदर के हिस्से में मुसलमानों को प्रार्थना की इजाजत दी गई.


इस विवाद पर पहली बार 1885 में अदालत का रुख किया गया. महंत रघुबीर दास ने फैजाबाद की एक अदालत में मुकदमा दर्ज करवाकर यहां पर मस्जिद की जगह मंदिर निर्माण की मांग की, लेकिन असली लड़ाई आजादी के बाद शुरू हुई.


1949 से पड़ी आंदोलन की नींव


1947 में सरकार ने इस मस्जिद में ताला जड़ दिया था और साथ ही मुस्लिमों को इससे दूर रहने का आदेश दिया था, लेकिन हिंदुओं को इसमें प्रवेश मिलता रहा. 1949 में जाकर ये आजाद भारत में पहली बार ये विवाद कोर्ट में पहुंचा. 1949 में मस्जिद के भीतर भगवान राम की मूर्ति मिली थी. आरोप था कि कुछ हिंदू नेताओं ने ये मूर्ति मस्जिद में रखी, जिसके बाद दोनों पक्षों ने मुकदमा दर्ज करा दिया. नतीजा ये हुआ कि सरकार ने इस स्थान को विवादित घोषित किया और ताला लगा दिया, जिसके बाद सभी का प्रवेश वर्जित हो गया.


हालांकि इसके बाद भी इसको लेकर छिटपुट आंदोलन चलते रहे, लेकिन 1980 में बीजेपी के गठन के साथ ही ये राजनीतिक मुद्दा भी बन गया. इस बीच 1986 में फैजाबाद की जिला मजिस्ट्रेट ने हिंदुओं के पक्ष में फैसला दिया लेकिन मुस्लिम पक्ष ने इसका विरोध किया और बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी का गठन किया.


1989 मे इलाहाबाद हाई कोर्ट ने विवादित स्थान पर 1949 से लगे ताले को खोलने का आदेश दे दिया और कहा कि इस जमीन को हिंदुओं के हवाले करना चाहिए. इसके साथ ही विश्व हिंदू परिषद ने इस जगह के पास ही राम मंदिर की नींव भी रख दी. हालांकि फिर भी विवाद कम नहीं हुआ और 1990 में हजारों रामभक्त कार सेवा के लिए अयोध्या पहुंचे. उत्तर प्रदेश के तत्तकालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने विवादित स्थल पर किसी के भी प्रवेश पर रोकग लगाई थी, लेकिन कार सेवक 30 अक्टूबर को विवादित स्थल पर घुस गए और मस्जिद के गुम्बद पर भगवा झंडा लगा दिया.


इस घटना के 2 दिन बाद ही मुलायम सिंह ने कार सेवकों पर गोली चलाने का आदेश दिया, जिसमें कई लोगों की जान चली गई. हालांकि इसके कारण उन्हें अपने पद से इस्तीफा भी देना पड़ा.


6 दिसंबर 1992 का वो दिन


इस पूरे विवाद में सबसे बड़ा दिन साबित हुआ 6 दिसंबर 1992. बीजेपी, विश्व हिंदू परिषद और आरएसएस के नेताओं ने अयोध्या में विशाल रैली का आयोजन किया था. इसके लिए लाखों कार सेवक भी पहुंचे. 6 दिसंबर को एक तरफ लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी जैसे नेताओं के भाषण चल रहे थे, तो अचानक सैकड़ों कार सेवक विवादित ढ़ांचे में चढ़ गए और कुछ ही घंटों में इसे पूरी तरह ढहा दिया.


इसका नतीजा हुआ कि देश में सांप्रदायिक दंगे हुए और सैकड़ों लोगों की जान इसमें चली गई. वहीं कई नेताओं के खिलाफ मुकदमे दर्ज हुए. साथ ही घटना की जांच के लिए लिब्राहन आयोग का गठन हुआ, जिसे रिपोर्ट तो 3 महीनों में देनी थी, लेकिन इसमें उन्हें 17 साल लग गए.


इलाहाबाद हाई कोर्ट का बराबरी का फैसला, लेकिन कोई भी राजी नहीं


इस विवाद में अगला बड़ा पड़ाव आया 30 सितंबर 2010 को, जब इलाहाबाद हाई कोर्ट ने विवादित 2.77 एकड़ की जमीन पर अपना फैसला सुनाया. अदालत इस भूमि को 3 हिस्सों में बांटने का फैसला लिया. इसमें प्रमुख हिस्से को राम जन्मस्थान माना गया और इसको मिलाकर एक-तिहाई जमीन राम जन्मभूमि न्यास को देने का फैसला किया गया. वहीं एक तिहाई भूमि निर्मोही अखाड़े को और एक तिहाई मुस्लिम पक्ष को देने का फैसला किया गया. हालांकि, किसी पक्ष को ये फैसला रास नहीं आया और सुप्रीम कोर्ट में इसके खिलाफ अपील की गई.


सुप्रीम कोर्ट में भी इसकी सुनवाई कई बार टाली गई, लेकिन 6 अगस्त 2019 से 16 अक्टूबर तक इस मामले की नियमित अंतिम सुनवाई सुप्रीम कोर्ट में शुरू हुई. इसके बाद मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली 5 जजों की संविधान पीठ ने इस पर अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था.


5-0 से आया ऐतिहासिक फैसला


आखिरकार 9 नवंबर 2019 को सुप्रीम कोर्ट ने अपना ऐतिहासिक फैसला सुनाया और एकमत होकर विवादित 2.77 एकड़ स्थल को राम जन्मस्थान बताकर इसे रामजन्मभूमि न्यास के हवाले करने का आदेश दिया. इसके साथ ही कोर्ट ने केंद्र सरकार को एक ट्रस्ट के गठन का आदेश दिया और मुस्लिम पक्ष को 5 एकड़ जमीन मस्जिद के लिए देने का आदेश दिया.


फरवरी 2020 में केंद्र सरकार ने राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र नाम से ट्रस्ट की स्थापना की और मंदिर निर्माण का काम शुरू हुआ. इसी ट्रस्ट ने आखिरकार 5 अगस्त को भूमि पूजन और शिलान्यास का एलान किया, जिसके साथ ही सदियों पुरानी राम भक्तों की इच्छा भी पूरी हुई.


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