Tripura CPI(M) Congress: राजनीतिक दलों को इस साल सबसे पहले मेघालय और नागालैंड के साथ त्रिपुरा के सियासी अग्नि परीक्षा से गुजरना है.  इनमें से त्रिपुरा की लड़ाई सबसे दिलचस्प है. यहां बीजेपी सत्ता बरकरार रखने की जद्दोजहद से जूझ रही है. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) यानी CPI(M) अपने गढ़ को वापस पाने के लिए इस बार कुछ भी करने को तैयार है. वहीं त्रिपुरा की राजनीति में कभी बड़ी ताकत रही कांग्रेस फिर से अपनी पहचान बनाने के इरादे से रणनीति बनाने में  जुटी है.


त्रिपुरा विधानसभा का कार्यकाल 22 मार्च 2023 को खत्म हो रहा है. यहां कुल 60 विधानसभा सीट है. त्रिपुरा में मेघालय और नागालैंड के साथ फरवरी- मार्च में चुनाव होने की संभावना है.


धुर विरोधी रहे हैं सीपीआई (एम) और कांग्रेस


त्रिपुरा की राजनीति में सीपीआई(एम) और कांग्रेस हमेशा से ही धुर विरोधी रहे हैं. 2018 से पहले त्रिपुरा की सत्ता के लिए इन दोनों पार्टियों के बीच ही रस्साकशी होते रही है.  लेकिन इस बार हालात बिल्कुल बदल चुका है. दोनों ही पार्टियों के सामने बीजेपी के विजय रथ को रोकने की चुनौती है. ये चुनौती इतनी बड़ी है कि सीपीआई(एम) और कांग्रेस इस बार मिलकर भी चुनाव लड़ सकते हैं. जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आते जा रहे हैं, वैसे-वैसे इन दोनों के बीच गठबंधन की संभावना बढ़ती जा रही है.  राजनीति में खुद के अस्तित्व पर खतरा आता है, तो धुर विरोधी भी हाथ मिलाने को मजबूर हो जाते हैं और कुछ ऐसा ही त्रिपुरा में होने के आसार बन रहे हैं.  


बीजेपी को रोकने के लिए गठबंधन


सीपीआई(एम) पुरानी परंपरा को तोड़ते हुए बीजेपी विरोधी ताकतों को एक साथ लाने की दिशा में पहल कर रही है. बीजेपी से मुकाबले के लिए कांग्रेस और वाम दल धर्मनिरपेक्ष ताकतों के महागठबंधन की संभावना तलाश रहे हैं. इसमें The Indigenous Progressive Regional Alliance यानी टिपरा मोथा को भी शामिल करने की कवायद चल रही है. सीपीएम (एम) के राज्य सचिव जितेंद्र चौधरी (Jitendra Chowdhury) ने तो दावा किया है कि बीजेपी को हराने के लिए धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक ताकतों को साथ लाने की CPI(M)की साझा पहल अंतिम चरण में पहुंच गई है. हालांकि उन्होंने किसी पार्टी का नाम नहीं लिया है. 


कांग्रेस से गठबंधन सीपीआई(एम) के लिए है मजबूरी


दशकों से वाम दलों (खासकर CPI(M))और कांग्रेस के इर्द-गिर्द ही त्रिपुरा की सियासत घूमते रही है. लेकिन 2018 के चुनाव में बीजेपी ने  बिल्कुल माहौल ही बदल दिया. 2018  में बीजेपी ने लेफ्ट की 25 साल से चली आ रही सत्ता को उघाड़ फेंकने के लिए त्रिपुरा में 'चलो पलटाई' (आओ बदलाव करें) का नारा दिया. नतीजों ने इस नारे को सही भी साबित कर दिया. बीजेपी और इंडीजेनस पीपुल्स फ्रंट ऑफ त्रिपुरा (IPFT)मिलकर चुनाव लड़ी.  बीजेपी को 36 और IPFT को 8 सीटों पर जीत मिली. इस तरह बीजेपी गठबंधन के खाते में 60 में से 44 सीटें आ गई. वहीं सीपीआई(एम) महज़ 16 सीटों पर सिमट गई. बीजेपी-IPFT गठबंधन  का काट खोजना सीपीआई (एम) के लिए आसान नहीं है. यही वजह है कि वो कांग्रेस से गठबंधन की संभावना को टटोल रही है.  माणिक सरकार ने कहा भी था कि हमारी पार्टी के शीर्ष निकाय सीपीआई (एम) पोलित ब्यूरो ने पहले ही स्थानीय नेताओं से धर्मनिरपेक्ष ताकतों के बीच चुनावी गठबंधन के मुद्दे पर गौर करने को कहा है और किसी भी धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक ताकत का स्वागत है. माणिक सरकार के इस बयान से अक्टूबर-नवंबर में ही संकेत मिल गए थे कि इस बार त्रिपुरा में लेफ्ट और कांग्रेस के बीच चुनाव पूर्व गठबंधन होने की प्रबल संभावना है.


लेफ्ट से गठबंधन कांग्रेस की भी है मजबूरी


त्रिपुरा की राजनीति में कांग्रेस 2018 में शून्य पर पहुंच गई. 2018 में 59 सीटों पर चुनाव लड़ी, लेकिन एक भी सीट जीत नहीं पाई. उसका वोट बैंक भी सिमट कर 1.79% रह गया. 2013 में कांग्रेस 10 सीटों पर जीतकर मुख्य विपक्षी दल बनी थी. उसका वोट शेयर भी 36.53% रहा था. इससे साफ है कि 2018 में  त्रिपुरा की जनता के बीच कांग्रेस धुंधली तस्वीर बन गई. एक तरह से बीजेपी के लहर में कांग्रेस का नामोनिशान ही मिट गया. 1963 से 1993 तक त्रिपुरा में  18 साल कांग्रेस की सत्ता रही है.  1993 से 2018 तक कांग्रेस यहां मुख्य विपक्षी पार्टी थी.  अब त्रिपुरा में कांग्रेस उस हैसियत में नहीं रह गई कि अकेले दम पर यहां की सत्ता हासिल कर पाए या फिर मुख्य विपक्षी दल ही बन पाए. कांग्रेस के लिए अस्तित्व बचाने का संकट है और ऐसे में उसके लिए सीपीआई (एम) और टिपरा मोथा के साथ हाथ मिलाने के अलावा और कोई चारा नहीं बच रहा है.


सुदीप रॉय बर्मन से कांग्रेस को है उम्मीद


फरवरी 2022 में बीजेपी को छोड़कर सुदीप रॉय बर्मन (Sudip Roy Barman) ने कांग्रेस का दामन थामा था. कभी कांग्रेस के दिग्गज नेता रहे सुदीप रॉय बर्मन 2016 में तृणमूल कांग्रेस में शामिल हो गए थे. कांग्रेस ने 2013 का विधानसभा चुनाव सुदीप रॉय बर्मन की अगुवाई में ही लड़ी थी. अगस्त 2017 में वे टीएमसी छोड़कर बीजेपी में शामिल हो गए. 2018 में वे बीजेपी के टिकट पर अगरतला से विधानसभा चुनाव जीते. बीजेपी की बिप्लव देब सरकार में वे  मंत्री भी रहे.  बिप्लव देब से टकराव की वजह से उन्हें जून 2019 में मंत्री पद से हटा दिया गया. इसके बाद सुदीप बर्मन फरवरी 2022 में बीजेपी को छोड़कर एक बार फिर से पुरानी पार्टी कांग्रेस में शामिल हो गए और उपचुनाव में कांग्रेस के टिकट पर अगरतला से जीतने में कामयाब भी रहे. वे 6 बार लगातार अगरतला सीट से जीतने में कामयाब रहें हैं. सुदीप बर्मन के लौटने से कांग्रेस को इस बार उम्मीद है कि त्रिपुरा में पार्टी बेहतर प्रदर्शन करेगी. सुदीप बर्मन चाहते भी है कि बीजेपी के खिलाफ कांग्रेस, लेफ्ट और टिपरा मोथा को एक साथ आना चाहिए. इसके लिए वे सीपीआई (एम) और टिपरा मोथा के नेताओं के साथ संपर्क में हैं.  सुदीप रॉय बर्मन ने बहुत पहले ही कह दिया था कि 2023 में बीजेपी को हराने के लिए कांग्रेस कोई कोर कसर नहीं छोड़ेगी. उनके इस बयान से गठबंधन के संकेत मिलने लगे थे. 
 
टिपरा मोथा को साथ लाना क्यों है जरूरी?


हाल के कुछ सालों में पूर्व शाही परिवार के वंशज प्रद्योत देब बर्मन की अगुवाई वाली Tipra Motha त्रिपुरा में बड़ी क्षेत्रीय राजनीतिक ताकत के तौर पर उभरी है. टिपरा मोथा ने अप्रैल 2021 में हुए त्रिपुरा आदिवासी क्षेत्र स्वशासी जिला परिषद (TTAAD) के चुनावों में  BJP-IPFT गठबंधन को सीधे चुनौती देते हुए 28 में से 18 सीटों पर जीत दर्ज की थी. त्रिपुरा में 60 में से 20 सीटें अनुसूचित जनजातियों यानी ST के लिए आरक्षित हैं. बाकी बचे 40 सीटों में से कई पर आदिवासियों की संख्या अच्छी खासी है. त्रिपुरा की आबादी में एसटी समुदाय की हिस्सेदारी 32% है. 2018 के चुनाव में बीजेपी-IPFT गठबंधन को आदिवासियों का जमकर समर्थन मिला था. इस गठबंधन को एसटी के लिए आरक्षित सभी 20 सीटों पर जीत मिली थी. लेकिन Greater Tipraland के नाम से अलग राज्य की मांग उठाकर टिपरा मोथा त्रिपुरा के आदिवासियों के बीच दो-तीन सालों में काफी लोकप्रिय हो गई है. त्रिपुरा की सत्ता को बीजेपी से छीनने के लिए सीपीएम और कांग्रेस को आदिवासियों के बीच अपनी पैठ बढ़ानी होगी और इस लिहाज से गठबंधन  होने पर ये दोनों ही चाहेंगे कि टिपरा मोथा भी उसका हिस्सा बने.  


बीजेपी के खिलाफ गठबंधन कितना असरकारक?


बीजेपी एक बार फिर से  IPFT के साथ मिलकर ही चुनाव लड़ेगी. पिछली बार इनकी जोड़ी का जादू चला था. इस जोड़ी की काट को देखते हुए ही सीपीआई (एम)-कांग्रेस गठबंधन की संभावना दिख रही है. 2018 में बीजेपी-IPFT गठबंधन 44 सीटों पर जीतने में कामयाब हुई.  यहां पर दिलचस्प बात ये है कि बीजेपी और सीपीआई (एम) के बीच 20 सीटों का फासला था, लेकिन इन दोनों के बीच वोट शयर का फर्क महज़ 1.37% का ही था. बीजेपी को 43.59% वोट मिले थे. वहीं सीपीआई (एम) को 42.22% वोट हासिल हुआ था. असल अंतर IPFT के वोट बैंक से आया था. बीजेपी की सहयोगी IPFT को 7.5% वोट मिल गए और इस तरह से बीजेपी गठबंधन का वोट शेयर 51 % के पार चला गया और उसकी बदौलत त्रिपुरा से 25 साल का लेफ्ट शासन खत्म हो गया. सीपीआई (एम) के साथ बाकी वाम दलों का वोट जोड़ दें, तो 2018 में वाम दलों को 44.35% वोट मिले थे. इनमें CPI(M) के साथ ही CPI, रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी (RSP) और  ऑल इंडिया फॉरवर्ड ब्लॉक (AIFB) के वोट भी शामिल है. कांग्रेस का वोट (1.79%) अगर वाम मोर्चे से जोड़ दिया जाए, तो 2018 में वाम मोर्चा और कांग्रेस का वोट शेयर 46.14 फीसदी होता है.  ऐसे में वोट शेयर को ही लेकर चलें तो IPFT से बीजेपी को होने वाले फायदे को साधने के लिए वाम दल और कांग्रेस गठबंधन को  टिपरा मोथा के साथ की जरुरत पड़ेगी.   
 
वोट शेयर सीट जीतने का नहीं है मानक


संसदीय प्रणाली में जहां First-past-the-post (FPTP) सिस्टम से नतीजों का फैसला होता है, वहां वोट शेयर का गणित सीट जीतने की संख्या से मैच नहीं करता है. इसके आधार पर सिर्फ ये अनुमान लगाया जा सकता है कि जनता के बीच पार्टी का जनाधार बचा है या नहीं. भारत में जिस तरह की संसदीय प्रणाली है, उसमें FPTP के जरिए ही लोकसभा और विधानसभा में जीत का फैसला होता है, यानी जो उम्मीदवार सबसे ज्यादा वोट लाते हैं वो जीत जाते हैं. इस वजह से वोट शेयर बहुमत लाने या सीट जीतने का आधार नहीं है. बस इससे जनाधार मौजूद रहने का अनुमान लग पाता है. इस सिस्टम में ये आम बात है कि ज्यादा वोट हासिल करने के बावजूद कम वोट हासिल करने वाली पार्टी को ज्यादा सीटें आ जाती हैं. जैसे 2018 में कर्नाटक विधानसभा चुनाव में हुआ था. वहां कांग्रेस को ज्यादा वोट मिले थे, लेकिन बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी बनी थी. और वो भी दोनों के बीच 24 सीटों का फासला था. त्रिपुरा में वोट शेयर के गणित के साथ गठबंधन होने पर लेफ्ट और कांग्रेस को इस समीकरण को भी साधने की चुनौती होगी. 


IPFT से नाराज है आदिवासी समुदाय


बीजेपी की सहयोगी इंडीजेनस पीपुल्स फ्रंट ऑफ त्रिपुरा (IPFT) को पिछली बार आदिवासियों का भरपूर समर्थन मिला था. इसी वजह से उसके 9 में 8 उम्मीदवार चुनाव जीतने में कामयाब रहे. हालांकि बीजेपी के साथ सरकार में शामिल होने के बाद IPFT यहां के मूल निवासियों के लिए अलग राज्य की मांग पर सुस्त पड़ गई. इसी का नतीजा था कि प्रद्योत किशोर देबबर्मा की अगुवाई वाली Tipra Motha आदिवासियों के बीच बेहद लोकप्रिय हो गई है. सीपीआई (एम) और कांग्रेस आदिवासियों के IPFT से नाराजगी को अपने पक्ष में करना चाहती है. इस लिहाज से अगर लेफ्ट, कांग्रेस और टिपरामोथा का गठबंधन हो जाता है, तो इससे बीजेपी के लिए मुश्किलें खड़ा हो सकती हैं. 
 
गठबंधन का TMC नहीं होगी हिस्सा


कांग्रेस नेता सुदीप रॉय बर्मन ने पहले ही साफ कर दिया है कि ममता बनर्जी की टीएमसी त्रिपुरा में बीजेपी के खिलाफ बनने वाले किसी गठबंधन का हिस्सा नहीं होगी.  उनका दावा है कि त्रिपुरा में टीएमसी का कोई वजूद नहीं है और वो सिर्फ चंद वोट काटकर बीजेपी को ही फायदा पहुंचाएगी. एक और वजह है जिसकी वजह से कांग्रेस टीएमसी से बेहद खफा है. दिसंबर में त्रिपुरा कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष पीजूष कांति बिस्वास (Pijush Kanti Biswas) समेत 6 बड़े नेता पार्टी छोड़कर टीएमसी में शामिल हो गए थे. उन्हें टीएमसी ने त्रिपुरा का नया अध्यक्ष बनाते हुए चुनावी रणनीति बनाने की जिम्मेदारी दी है. लेफ्ट पार्टियां तो पहले ही कह चुकी है कि टीएमसी के साथ किसी तरह के सहयोग का सवाल ही नहीं उठता है. ऐसे भी टीएमसी के प्रदेश अध्यक्ष पीजूष कांति बिस्वास ने भी कह दिया है कि उनकी पार्टी ऐसे किसी के साथ नहीं आ सकती जिसका संबंध सीपीआई (एम) के साथ हो.   


माणिक सरकार नहीं लड़ सकते हैं चुनाव


चार बार त्रिपुरा के मुख्यमंत्री रहे और सीपीआई(एम) पोलित ब्यूरो के सदस्य माणिक सरकार इस बार चुनाव नहीं लड़ सकते हैं. ऐसी खबरें सामने आ रही हैं कि उन्होंने पार्टी पोलित ब्यूरो को इसके बारे में जानकारी दे दी है. पिछली बार उन्होंने धनपुर विधानसभा सीट पर बीजेपी उम्मीदवार और मौजूदा केंद्रीय मंत्री प्रतिमा भौमिक (Pratima Bhoumik) को हराया था.  10 जनवरी को CPI(M) की राज्य समिति की बैठक होनी है. इसमें पार्टी महासचिव सीताराम येचुरी और पूर्व महासचिव प्रकाश करात भी मौजूद रहेंगे. इस बैठक में उम्मीदवारों की सूची पर अंतिम फैसला हो सकता है. तभी पता चलेगा कि माणिक सरकार चुनाव लड़ेंगे या नहीं.  73 साल के माणिक सरकार बीते कुछ महीनों से पार्टी के पक्ष में माहौल बनाने के लिए बेहद सक्रिय नजर आ रहे हैं.


माणिक सरकार ही सीपीआई (एम)  के होंगे चेहरे


माणिक सरकार त्रिपुरा में अभी भी बेहद लोकप्रिय नेता हैं.  सीपीआई (एम)  पोलित ब्यूरो के सदस्य माणिक सरकार 1998 से लेकर 2018 तक लगातार 20 साल तक सूबे के मुख्यमंत्री रहे हैं. अभी वे त्रिपुरा विधानसभा में नेता विपक्ष हैं. उनकी छवि एक ईमानदार और सरल नेता की है. 2018 के चुनाव में उनके हलफनामे से पता चलता था कि वे देश में सबसे कम संपत्ति वाले मुख्यमंत्री थे.  भारत के किसी राज्य में सबसे ज्यादा समय तक मुख्यमंत्री रहने के मामले में माणिक सरकार का सातवां नंबर है. अभी भी त्रिपुरा में  माणिक सरकार ही सीपीआई (एम)  के सबसे बड़े चेहरे हैं.  पार्टी को उम्मीद है कि 2023 में उनके व्यक्तित्व की वजह से ही सीपीआई(एम) एक बार फिर से त्रिपुरा में सत्ता हासिल करने में कामयाब हो पाएगी. ऐसे में सीपीआई(एम) चाहेगी कि माणिक सरकार विधानसभा चुनाव लड़ें. 


'जन विश्वास यात्रा' के साथ बीजेपी भी है तैयार


बीजेपी त्रिपुरा में सत्ता बरकरार रखने के लिए दमख़म के साथ जुटी है. इसी के तहत 5 जनवरी को केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने उत्तर त्रिपुरा के धर्मनगर और दक्षिण त्रिपुरा के सबरूम  से बीजेपी की दो रथ यात्राओं की शुरुआत की.  बीजेपी ने इसे 'जन विश्वास यात्रा' का नाम दिया है.  बीजेपी त्रिपुरा के प्रदेश अध्यक्ष  राजीव भट्टाचार्जी (Rajib Bhattacharjee) ने जानकारी दी है कि 12 जनवरी को खत्म होने से पहले ये यात्रा सभी 60 निर्वाचन क्षेत्रों से गुजरते हुए  एक हजार किलोमीटर की दूरी तय करेगी. इसके तहत कुल 100 रैलियां और रोड शो होंगे. यात्रा के जरिए त्रिपुरा के लोगों को पिछले 5 साल में बीजेपी सरकार की ओर से किए गए काम के बारे में जानकारी दी जाएगी. अमित शाह ने दावा किया है कि इस बार बीजेपी दो तिहाई सीटें जीतने में कामयाब होगी. हालांकि बीजेपी के 4 विधायक 2022 में पार्टी छोड़कर जा चुके हैं. अभी हाल ही में दीबा चंद्र हरंगखाल (Diba Chandra Hrangkhawl) पार्टी छोड़ कांग्रेस में शामिल हो गए हैं. वहीं उसकी सहयोगी आईपीएफटी के 3 विधायक भी पाला बदल चुके हैं.


त्रिपुरा पर 1963 से किसकी रही सत्ता?


त्रिपुरा में 1963 से मुख्यमंत्री पद की व्यवस्था है. कांग्रेस 1963 से 1971, फिर 1972 से 1977 और 1988 से 1993 तक त्रिपुरा की सत्ता पर काबिज रही. इस तरह से कांग्रेस 18 साल से ज्यादा यहां सत्ता में रही है.  जुलाई 1977 से नवंबर 1977 तक यहां राधिका रंजन गुप्ता की अगुवाई में जनता पार्टी की सरकार भी रही है.  त्रिपुरा में  1978 में पहली बार सीपीआई (एम) की सरकार बनी. 1978 से 1988 के बीच नृपेन चक्रबर्ती (Nripen Chakraborty) की अगुवाई में सीपीआई (एम) की सत्ता रही थी. उसके बाद 1993 से 1998 तक दशरथ देबबर्मा (Dasarath Debbarma) की अगुवाई में सीपीआई (एम) की सरकार रही. 1998 से माणिक सरकार का दौर शुरू हुआ. माणिक सरकार की अगुवाई में मार्च 1998 से लेकर मार्च  2018 तक त्रिपुरा में वाम दलों का शासन रहा. यानी त्रिपुरा के 60 साल की चुनावी राजनीति में 35 साल सूबे की सत्ता पर वाम दलों का कब्जा रहा है. वहीं  त्रिपुरा में अब तक तीन बार राष्ट्रपति शासन भी लगा है. इन तीन बार में कुल 231 दिन यहां राष्ट्रपति शासन रहा है. मार्च 2018 से यहां बीजेपी-IPFT गठबंधन की सरकार है.  इस बार त्रिपुरा में माणिक बनाम माणिक की लड़ाई देखने को मिलेगी. बीजेपी त्रिपुरा के मुख्यमंत्री माणिक साहा की अगुवाई में ही चुनाव लड़ेगी. वहीं वाम दलों की अगुवाई माणिक सरकार  करने वाले हैं. 


नए चेहरे को मौका देगी CPI(M)


इस बार सीपीआई (एम) किसी भी तरह से त्रिपुरा की सत्ता वापस अपने पास लाना चाहती है. इसके लिए चुनावी रणनीति में भी बदलाव की तैयारी है. इसके तहत करीब 60 फीसदी सीटों पर सीपीएम नए चेहरों को मौका दे सकती है. ये पहली बार होगा जब इतने बड़े पैमाने पर पार्टी नए चेहरों पर भरोसा जताएगी. 


ये भी पढ़ें:


Meghalaya Politics: क्या मेघालय में TMC बन पाएगी विकल्प, कोनराड संगमा और BJP के लिए कैसी राह, कांग्रेस के लिए अस्तित्व की लड़ाई, जानें हर समीकरण