Tripura  BJP Challenge: अगले साल जिन 9 राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं, उनमें से 4 पूर्वोत्तर के राज्य हैं. इनमें नागालैंड, मेघालय, त्रिपुरा और मिजोरम शामिल हैं. नागालैंड, मेघालय, त्रिपुरा में मौजूदा विधानसभा का कार्यकाल अगले साल 12 से 22 मार्च के बीच खत्म हो रहा है. ऐसे में इन 3 राज्यों में फरवरी के आखिर में चुनाव होने की संभावना है. 


सीटों के हिसाब से तो पूर्वोत्तर के ये राज्य छोटे हैं, लेकिन त्रिपुरा के चुनाव पर सबकी खास निगाह है. 2023 में त्रिपुरा के लिए 13वीं विधानसभा का चुनाव होगा.  ये ऐसा राज्य है जो एक वक्त वामपंथी शासन का गढ़ था, लेकिन पिछली बार 2018 के चुनाव में बीजेपी ने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) यानी सीपीएम की सत्ता को यहां से उघाड़ फेंका.


अब आम लोगों से लेकर राजनीतिक विश्लेषकों के जेहन में ये सवाल गूंज रहा है कि क्या इस बार बीजेपी अपनी सत्ता बरकरार रख पाएगी या सीपीएम को  फिर से मौका मिलेगा. क्या टीएमसी के रूप में राज्य के लोगों को नया विकल्प मिल सकता है. इन सभी सवालों के जवाब के लिए यहां के सियासी समीकरणों को समझना बेहद जरूरी है. 


2018 के चुनाव में बीजेपी का ऐतिहासिक प्रदर्शन


त्रिपुरा में 2018 में हुए चुनाव में बीजेपी ने इंडीजेनस पीपुल्स फ्रंट ऑफ त्रिपुरा (IPFT) के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था. बीजेपी ने कुल 60 में से 51 सीटों पर चुनाव लड़ा था. बीजेपी को इनमें से 36 सीटों पर जीत हासिल हुई थी. उसके सहयोगी IPFT 8 सीट पर जीत हासिल करने में सफल रही. बीजेपी को  43.59% वोट हासिल हुए और IPFT को 7.38% वोट मिले. बीजेपी गठबंधन को 44 सीटों पर जीत मिली और 51 फीसदी से ज्यादा वोट हासिल हुए. इसके साथ ही बीजेपी पहली बार यहां सरकार बनाने में कामयाब हुई. 25 साल से शासन कर रहे सीपीएम को उसी के गढ़ में मात देकर बीजेपी ने त्रिपुरा की राजनीति में नए युग की शुरुआत कर दी.


सीपीएम का मजबूत किला ध्वस्त हुआ


कई साल से त्रिपुरा की सत्ता को संभाल रही सीपीएम 2018 के चुनाव में बुरी तरह से हार गई. सीपीएम ने 57 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे. इनमें से वो सिर्फ 16 सीटें जीत पाई. हालांकि  सीपीएम के वोट शेयर और बीजेपी के वोट शेयर में एक फीसदी से थोड़ा सा ही ज्यादा गैप था. सीपीएम को 42.22% वोट हासिल हुए. इससे पहले हुए 8 चुनावों में कभी भी सीपीएम का वोटशेयर 45% से कम नहीं हुआ था. इससे जाहिर है कि बीजेपी का IPFT के साथ गठबंधन के फैसले ने सीपीएम को काफी नुकसान पहुंचाया और त्रिपुरा को नया विकल्प मिल गया.


2018 में कांग्रेस का नहीं खुला खाता


त्रिपुरा की राजनीति में कभी कांग्रेस की गिनती भी दमदार खिलाड़ियों में होती थी, लेकिन पिछली बार विधानसभा चुनाव में उसका खाता तक नहीं खुला. कांग्रेस ने 59 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे. उसे दो फीसदी से भी कम वोट मिले. यहीं हश्र तृणमूल कांग्रेस (ATMC) का भी हुआ.  टीएमसी ने 24 सीटों पर किस्मत आजमाई थी, लेकिन वो एक भी सीट जीतने में कामयाब नहीं रही. टीएमसी को सिर्फ 0.3% ही वोट मिले. 


बीजेपी के लिए कैसा रहा है सियासी सफर


बीजेपी ने 2013 से 2018 के बीच त्रिपुरा की राजनीति में लंबी छलांग लगाई. 2013 में हुए विधानसभा चुनाव में बीजेपी का राज्य में कोई नामोनिशान नहीं था. बीजेपी 50 सीटों पर चुनाव लड़ी जरूर थी, लेकिन कोई भी सीट जीत नहीं पाई थी. उसे मात्र डेढ़ प्रतिशत वोट ही मिल पाए थे. बीजेपी के लिए त्रिपुरा की डगर कितनी मुश्किल थी वो इस बात से समझा जा सकता है कि 2013 के चुनाव में उसके 50 में से 49 उम्मीदवार एक बार फिर से अपनी जमानत बचाने में नाकाम रहे. सीपीएम इस चुनाव में 48 फीसदी वोटशेयर के साथ  49 सीट लाकर सत्ता बरकरार रखने में कामयाब रही थी. वहीं कांग्रेस 36.53% वोटशेयर के साथ 10 सीटें जीत पाई थी. 


2013 से 2018 के बीच कांग्रेस का हो गया सफाया


जहां बीजेपी इस दौरान त्रिपुरा सियासत की गद्दी पर विराजमान हो गई. वहीं 2013 से 2018 आते-आते कांग्रेस का लगभग सफाया हो गया. सीट के साथ ही कांग्रेस का जनाधार भी बिल्कुल खत्म हो गया. 2018 में कांग्रेस को न सिर्फ सभी दसों सीट गवांने पड़े बल्कि जनता के बीच उसकी सियासी जमीन ही गायब हो गई. 2013 तक यहां की राजनीति में कांग्रेस मुख्य विपक्षी पार्टी थी. कांग्रेस के कमजोर होने का लाभ बीजेपी को मिला. 


2008 में बीजेपी के सभी प्रत्याशियों की जमानत जब्त


बीजेपी ने 2008 के विधानसभा चुनाव में भी किस्मत आजमाई थी. लेकिन नतीजे उसके लिए बुरे सपने से कम नहीं था. बीजेपी के सभी 59 उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई. सीपीएम को 46 सीट (48% वोट) और कांग्रेस को 10 सीट (36.38% वोट)) पर जीत मिली. 2008 में टीएमसी की स्थिति नहीं सुधरी. उसके सभी 22 उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई. 


क्या कहता है 2003 विधानसभा चुनाव का गणित 


2003 में भी त्रिपुरा के सियासी जंग में सीपीएम को ही फतह मिली थी. सीपीएम 38 सीट (46.82% वोट) जीतने में कामयाब रही थी. कांग्रेस 13 सीटों (32.84% वोट) पर जीतने में सफल रही थी. बीजेपी के लिए 2004 का चुनाव भी निराशाजनक ही रहा. उसके सभी 21 प्रत्याशियों की जमानत जब्त हो गई. उसे डेढ़ फीसदी से भी कम वोट मिले. 1998 में बीजेपी ने लोगों के बीच में जो थोड़ी बहुत जमीन तैयार की थी, वो इस बार खिसक गई. 2004 में टीएमसी ने यहां के चुनावी बिसात पर पहली बार अपने प्यादे उतारे. हालांकि उसके सभी 18 उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई. 


1998 में बीजेपी को उम्मीद की किरण दिखी


1998 में बीजेपी को पहली बार त्रिपुरा के लोगों के बीच थोड़ा जनाधार होने का संकेत मिला. बीजेपी के लिए संतोष की बात थी कि उसे करीब 6 फीसदी वोट हासिल हुए. हालांकि बीजेपी को किसी सीट पर जीत नहीं मिल सकी. उसके 60 में से 58 उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई. सीपीएम को 38 सीटें (45.49% वोट) मिली और उसकी सत्ता बरकरार रही. कांग्रेस महज 13 सीट (33.96% वोट) ही जीत सकी.


1993 में भी बीजेपी का नहीं सुधरा प्रदर्शन


बीजेपी ने 1993 के विधानसभा चुनाव में 38 उम्मीदवार उतारे थे, जिनमें से 36 की जमानत जब्त हो गई. उसे दो फीसदी वोट हासिल हुए. सीपीएम 44 सीट (44.78% वोट) जीतकर सत्ता में बरकरार रही. कांग्रेस को 10 सीटें (32.73% वोट) मिली. 


1988 में बीजेपी का बेहद खराब प्रदर्शन 


त्रिपुरा में 1988 के चुनाव  में बीजेपी 10 सीटों पर चुनाव लड़ी और किसी सीट पर जमानत नहीं बच पाई. बीजेपी को राज्य में कुल 1757 वोट (0.15% वोट) मिले. सीपीएम को 26 और कांग्रेस को 25 सीटें मिली. कांग्रेस ने अपने सहयोगियों के साथ मिलकर सरकार बनाई.   


1983 में बीजेपी पहली बार त्रिपुरा में लड़ी चुनाव


त्रिपुरा के सियासी पिच पर बीजेपी पहली बार 1983 के विधानसभा चुनाव में उतरी. उसने 4 कैंडिडेट खड़े किए, लेकिन कोई भी जमानत नहीं बचा पाया. बीजेपी को राज्य में महज 578 वोट (0.06%) मिले. सीपीएम को 37 और कांग्रेस को 12 सीट पर जीत मिली.


त्रिपुरा सीपीएम का था मजबूत किला


21 जनवरी 1972 को त्रिपुरा पूर्ण राज्य बना. उसके पहले त्रिपुरा केंद्रशासित प्रदेश था. पूर्ण राज्य बनने के बाद त्रिपुरा में पहली बार विधानसभा चुनाव मार्च 1972 में हुआ. पूर्ण राज्य बनने के बाद त्रिपुरा में अब तक 10 बार विधानसभा चुनाव हुए हैं. इनमें से पहले और तीसरे विधानसभा चुनाव के बाद कांग्रेस की सरकार बनी. वहीं 7 बार सीपीएम की सरकार रही है और एक बार 2018 से बीजेपी की सरकार रही है. इससे पहले त्रिपुरा में 1993 से लगातार पांच बार सीपीएम की सरकार बनते आ रही थी.  


2018 में शून्य से सत्ता के शीर्ष पर पहुंची बीजेपी


1983 से अब तक के चुनावी नतीजों के विश्लेषण से कोई भी समझ सकता है कि त्रिपुरा की राजनीति में बीजेपी का सफर कितना मुश्किल भरा रहा है. 2018 से पहले कोई सोच भी नहीं सकता था कि आने वाले वक्त में त्रिपुरा की सत्ता बीजेपी संभालेगी. इसकी एक बड़ी वजह थी. 2018 से पहले बीजेपी राज्य में किसी भी विधानसभा चुनाव में एक भी सीट जीतने में कामयाब नहीं हुई थी. त्रिपुरा की राजनीति में बीजेपी 1983 में उतरी. सीटों के हिसाब से शून्य के साथ शुरुआत हुई. 30 साल बाद भी 2013 में सीटों के लिहाज से बीजेपी शून्य पर ही टिकी रही. लेकिन 35 साल के लंबे इंतजार के बाद बीजेपी 2018 में शून्य से सीधे सत्ता के शीर्ष पर जा पहुंची. 


सीपीएम के किले को भेदना आसान नहीं था


2018 चुनाव से पहले सीपीएम लगातार पांच विधानसभा चुनाव जीत चुकी थी. उसके दिग्गज नेता माणिक सरकार 2003 से 2018 तक लगातार 15 साल से मुख्यमंत्री थे. माणिक सरकार की देश के सबसे ईमानदार और सरल राजनेताओं में गिनती होती है. त्रिपुरा के हर वर्ग से उन्हें भरपूर प्यार मिलता था. त्रिपुरा में माणिक सरकार की लोकप्रियता का लोग दूसरे राज्यों में उदाहरण देते थे. इन सबके बावजूद बीजेपी त्रिपुरा में लेफ्ट के किले को ध्वस्त करने में कामयाब रही. बीजेपी गठबंधन ने दो तिहाई से ज्याद बहुमत के साथ सीपीएम को पटखनी दी. 2018 में बीजेपी की रणनीति ने सत्ताधारी सीपीएम और माणिक सरकार की लोकप्रियता से बने चक्रव्यूह को भी भेद दिया.  


2018 चुनाव के लिए ख़ास रणनीति पर काम


बीजेपी 2018 में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ना चाहती थी. चुनाव से दो साल पहले से ही अपनी रणनीति पर काम करने लगी थी. एक बड़ी टीम को त्रिपुरा की जनता के बीच केंद्र सरकार की योजनाओं और उपलब्धियों के प्रचार में लगाया. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर कई केंद्रीय मंत्रियों ने लगातार त्रिपुरा का दौरा किया. बीजेपी त्रिपुरा की जनता को ये समझाने में सफल रही कि माणिक सरकार ने राज्य को विकास के दूर रखने का काम किया है. 42 हजार पन्ना प्रमुक नियुक्त कर एक-एक वोटर को साधने की कोशिश की. पन्ना प्रमुख का आइडिया बीजेपी के वोटरों को पोलिंग बूथ तक लाने में बेहद कारगर साबित हुई. राज्य में बीजेपी कार्यकर्ताओं ने मोदी सरकार की उपलब्धियों को क्षेत्रीय भाषा में पहुंचाने पर खूब काम किया. संघ से जुड़े एकल विद्यालय, वनवासी कल्याण आश्रम जैसे संगठन आदिवासियों के बीच कई साल से काम कर रहे थे. इससे आदिवासी इलाकों में बीजेपी का बड़ा जनाधार तैयार हुआ.


IPFT के साथ गठबंधन से मिला था फायदा


पिछले चुनाव में इंडीजेनस पीपुल्स फ्रंट ऑफ त्रिपुरा के साथ मिलकर चुनाव लड़ने का भी बहुत फायदा मिला. इससे ये फायदा हुआ कि राज्य में सीपीएम के वोट शेयर में ज्यादा कमी नहीं होने के बावजूद भी  बीजेपी गठबंधन आसानी से दो तिहाई बहुमत लाकर लेफ्ट के किले को रौंद दिया. यहीं वजह है कि बीजेपी ने साफ किया है कि वो इस बार भी इंडीजेनस पीपुल्स फ्रंट ऑफ त्रिपुरा के साथ ही चुनाव लड़ेगी. हालांकि त्रिपुरा में IPFT अब उतनी मजबूत नहीं रही है जितनी 2018 में थी. बीजेपी को इस गैप को भी भरना होगा. 


चुनाव के नौ महीने पहले बदलना पड़ा सीएम


2018 में बीजेपी ने युवा चेहरे के तौर पर बिप्लब देब को मुख्यमंत्री बनाया था. लेकिन चुनाव से नौ महीने पहले इस साल मई में बीजेपी ने  बिप्लब देब की जगह माणिक साहा को मुख्यमंत्री बना दिया. बीजेपी के कई विधायक बिप्लब देव के कामकाज के तरीके से नाराज थे. इन विधायकों ने दिल्ली तक शिकायत दर्ज कराई थी. बीजेपी 2023 के चुनाव में कोई खतरा मोल नहीं लेना चाहती थी. यहीं वजह थी कि  6 साल पहले कांग्रेस से पार्टी में आए माणिक साहा को कमान दिया गया. 
इसे बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व की ओर से मिड-कोर्स करेक्शन के तौर पर देखा गया.


क्या माणिक साहा बीजेपी की नैया पार लगाएंगे ?


 
माणिक साहा को मुख्यमंत्री बनाना बीजेपी का बड़ा दांव है. बिप्लव देव से राज्य के कार्यकर्ताओं में भी नाराजगी की खबर थी. 2016 में बीजेपी में आने के बाद से ही कार्यकर्ताओं में माणिक साहा का कद लगातार बढ़ता गया. माना जा रहा है कि माणिक साहा कार्यकर्ताओं के बीच एकता बनाए रखने में ज्यादा सक्षम हैं और दोबारा सत्ता वापसी के लिए ये बेहद जरूरी है.


टिपरा मोथा के बढ़ते प्रभाव का खोजना होगा काट


सत्ता में वापसी के लिए  The Indigenous Progressive Regional Alliance या टिपरा मोथा से मिलने वाली चुनौती से भी निपटना होगा. पूर्व शाही परिवार के वंशज प्रद्योत किशोर देबबर्मा की अगुवाई वाला ये क्षेत्रीय संगठन है.  त्रिपुरा के आदिवासियों के बीच पिछले तीन साल के भीतर टिपरा मोथा (Tipra Motha) की पैठ अच्छी खासी बन गई है. ये त्रिपुरा के आदिवासियों के लिए ग्रेटर टिपरालैंड के नाम से अलग राज्य की मांग कर रहा है.  टिपरा मोथा ने अप्रैल 2021 में हुए त्रिपुरा आदिवासी क्षेत्र स्वशासी जिला परिषद (TTAAD) के चुनावों में  BJP-IPFT गठबंधन को सीधे चुनौती देते हुए 28 में से 18 सीटों पर जीत दर्ज की थी. त्रिपुरा में 60 में से 20 सीटें अनुसूचित जनजातियों यानी एसटी के लिए और 10 सीटें अनुसूचित जाति या एससी के आरक्षित हैं. इन सीटों पर तो आदिवासी निर्णायक हैं ही,  इनके अलावा सामान्य 40 सीटों में से भी कई पर उनका वोट खास महत्व रखता है. 2018 में इनके वोटबैंक से ही बीजेपी को ऐतिहासिक जीत मिली थी. त्रिपुरा की आबादी में एसटी समुदाय की हिस्सेदारी 32% है.


आदिवासी वोटबैंक को बचाने की चुनौती


बीजेपी को टिपरा मोथा से होने वाले नुकसान से बचने का भी रास्ता खोजना होगा. अलग राज्य की मांग उठाकर टिपरा मोथा ने त्रिपुरा का राजनीति में नया एंगल ला दिया है. टिपरा मोथा ने 40 सामान्य सीटों में से 25 पर अपने उम्मीदवार उतारने की भी चेतावनी दी है. त्रिपुरा बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष राजीव भट्टाचार्य ने साफ कर दिया है कि टिपरा मोथा से गठबंधन का कोई इरादा नहीं है. ऐसे में बीजेपी के सामने आदिवासी वोटबैंक को बचाने की चुनौती होगी.


मुस्लिम और ईसाई वोटबैंक पर नजर


त्रिपुरा में मुस्लिम आबादी करीब 9 फीसदी के आसपास है. ईसाई भी साढे़ चार प्रतिशत के आस-पास हैं.  टीएमसी के साथ ही कांग्रेस और  सीपीएम की भी नजर इन समुदायों के वोटबैंक पर है. इन समुदायों का वोट किसी एक विरोधी के खेमे में जाना बीजेपी के लिए महंगा साबित हो सकता है.  बीजेपी के पास इस समीकरण को साधने की भी चुनौती है. 


मोदी फैक्टर का फिर से चलेगा जादू !


2014  में सत्ता संभालने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पूर्वोत्तर राज्यों में विकास तो प्राथमिकता दी. इसके साथ ही नरेंद्र मोदी और उस वक्त बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने पूर्वोत्तर राज्यों में बीजेपी का जनाधार बढ़ाने की रणनीति पर भी काम किया. इस रणनीति से भी पिछली बार त्रिपुरा चुनाव में बीजेपी को काफी लाभ हुआ है. पिछली बार बीजेपी ने त्रिपुरा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ही पार्टी का चेहरा बनाकर चुनाव लड़ी थी. मोदी फैक्टर ने कमाल भी कर दिखाया था. इस बार ये कितना कारगर साबित होगी, इसपर भी बीजेपी की सत्ता वापसी निर्भर करता है.  बीजेपी त्रिपुरा में 'घरे-घरे बीजेपी' अभियान भी चला रही है. इसके जरिए वो लोगों  तक राज्य सरकार के पिछले पांच साल का रिपोर्ट कार्ड पहुंचा रही है. इसके अलावा केंद्र की योजना की जानकारी भी दे रही है.  एंटी इनकंबेंसी से बचने के लिए बीजेपी का ये कदम फायदेमंद साबित हो सकता है. 


टीएमसी का बढ़ता जनाधार बीजेपी के लिए चिंता का सबब


चुनावी सरगर्मी तेज़ होते ही त्रिपुरा में दल-बदल करने वाले नेताओं और संभावित गठबंधन को लेकर बीजेपी के साथ ही सीपीएम और कांग्रेस ने भी रणनीति बनाना शुरु कर दिया है. इस बार बीजेपी को टीएमसी से भी कड़ी टक्कर मिल सकती है. पिछले पांच साल में कांग्रेस के कई नेताओं ने टीएमसी का दामन थामा है. 7 दिसंबर को ही कांग्रेस के 6 बड़े नेता टीएमसी में शामिल हुए हैं. इनमें त्रिपुरा कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष पीजूष कांति बिस्वास भी शामिल हैं. उन्हें टीएमसी ने त्रिपुरा का नया अध्यक्ष बनाते हुए बीजेपी के खिलाफ रणनीति बनाने की जिम्मेदारी दी है.  अभी तक तो टीएमसी का राज्य में चुनाव में कुछ खास प्रदर्शन नहीं रहा है, लेकिन इस बार वो त्रिपुरा में सीपीएम और कांग्रेस का विकल्प बनने की तैयारी में है.  त्रिपुरा में कुल आबादी का दो तिहाई बांग्ला भाषा बोलने वाले हैं. टीएमसी की नज़र इस वोटबैंक पर है. इस चुनौती से बीजेपी कैसे निपटती है, ये भी देखने वाली बात होगी. 


सीपीएम-कांग्रेस गठबंधन की संभावना पर भी नज़र 


बीजेपी को रोकने के लिए सीपीएम और कांग्रेस हाथ मिला सकते हैं. अगर ऐसा हुआ तो बीजेपी के लिए सत्ता में वापसी करना बेहद मुश्किल हो जाएगा. ऐसे इसकी संभावना ज्यादा नहीं है, क्योंकि सीपीएम और कांग्रेस त्रिपुरा में पुराने प्रतिद्वंद्वी हैं. हालांकि बीजेपी के विजयरथ को रोकने के लिए इनका गठबंधन हो भी सकता है. पश्चिम बंगाल में सत्ता जाने के बाद त्रिपुरा लेफ्ट का सबसे मजबूत गढ़ था. त्रिपुरा से भी सत्ता जाने के बाद सीपीएम के पास सिर्फ केरल में ही सत्ता में रह गया है. ऐसे में इस बार सीपीएम  चाहेगी कि वो फिर से अपने सबसे मजबूत गढ़ में वापसी करे. 


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