नई दिल्ली: आज राजधानी दिल्ली से करीब साढ़े छह हजार किलोमीटर दूर फ्रांस में दो भारतीय सैनिकों का सैन्य-सम्मान के साथ अंतिम संस्कार किया जायेगा. पिछले सौ साल से इन दोनों भारतीय सैनिकों का शव बेल्जियम सीमा में दबा हुआ था. ये दोनों सैनिक उन 30 हजार भारतीय सैनिकों में शामिल थे जो प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान शहीद हो गए थे लेकिन उनके पार्थिव शरीर आजतक नहीं मिल पाए थे.
रविवार को फ्रांसीसी सेना, सरकार और कॉमन्वेल्थ गर्वमेंट के साथ-साथ भारतीय सेना की तरफ से श्रद्धांजलि अर्पित करने के बाद बेल्जियम सीमा पर ही बने फ्रांस के लेवोन्टे मिलेट्री सिमेट्री में अंतिम संस्कार किया जायेगा.
दरअसल, इसी साल 20 सितंबर को बेल्जियम सीमा के करीब फ्रांस के एक गांव में खुदाई के काम के दौरान चार सैनिकों के शव मिले. शव तो सड़ गए थे लेकिन उनकी फौजी यूनिफार्म पर लगे तमगो और सैन्य-कलाकृतियों से उनकी पहचान की गई. इनमें से एक ब्रिटिश सैनिक था, एक जर्मन और दो भारतीय थे. ये दोनों भारतीय सैनिक, ब्रिटिश सेना की रायल गढवाल राईफल्स ('39 गढ़वाल') से ताल्लुक रखते थे.
इसके बाद फ्रांसीसी सरकार ने कॉमन्वेल्थ वॉर ग्रेव्स कमीशन (सीडब्लूडब्लूजीसी) और पेरिस स्थित भारतीय दूतावास के साथ मिलकर इन दोनों भारतीय शहीदों को पूरे सैन्य सामान से दफनाने की कवायद शुरू की, जो आज पूरी हो जायेगी. आपको बता दें कि सीडब्लूडब्लूजीसी संस्था प्रथम विश्वयुद्घ के बाद से ही देश-दुनिया के अनजाने सैनिकों के सैन्य-सम्मान का काम कर रही है.
भारतीय सेना इन दोनों सैनिकों के शव भारत लाना चाहती थी लेकिन सीडब्लूडब्लूजीसी ने ये कहकर मना कर दिया कि ये दोनों सैनिक भी 'अपने साथी कॉमरेड्स के साथ लेवांटे मिलिट्री सिमेट्री में हमेशा हमेशा के लिए साथ रहेंगे.' लेवांटे सिमेट्री फ्रांस की राजधानी पेरिस से करीब 250 किलोमीटर की दूरी पर है. ये दोनों शव इस सेमिट्री के करीब ही मिले थे.
इस दौरान पेरिस स्थित दूतावास के अधिकारी, डिफेंस अटैचे, गढ़वाल राईफल्स के सैन्य अधिकारी, पाइप-बैंड और विक्टोरिया-क्रॉस विजेता दरबार सिंह नेगी के पोते कर्नल नितिन नेगी भारत के इन दो अनजान सैनिकों को श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए मौजूद रहेंगे.
दरअसल, प्रथम विश्वयुद्ध (1914-1918) में भारतीय सैनिकों ने एक अहम भूमिका निभाई थी। इस 'महायुद्ध' में ब्रिटिश सेना की तरफ से कुल 15 लाख भारतीय सैनिकों ने दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में कई प्रमुख लड़ाईयों में हिस्सा लिया था। ना केवल हिस्सा लिया बल्कि ‘मित्र-देशों’ की जीत में अह्म भूमिका निभाई थी। पांच साल तक चले इस 'ग्रेट-वॉर' में करीब 75 हजार भारतीय सैनिक शहीद हुए थे। 60 हजार से ज्यादा घायल हुए या अपंग हो गए थे। एक अनुमान के मुताबिक, प्रथम विश्वयुद्ध में करीब 30 हजार भारतीय सैनिक लापता हो गए थे। जिन दो सैनिकों के पार्थिव शरीर अब सौ साल बाद फ्रांस में मिले हैं ये भी उन्हीं लापता सैनिकों में से ही हैं.
प्रथम विश्वयुद्ध शुरु हुआ तो जर्मनी का पलड़ा भारी दिखाई देने लगा. जर्मनी के हथियार ब्रिटेन और फ्रांस के हथियारों से बीस साबित हुए. फ्रांस पर जर्मनी का कब्जा होने लगा. ब्रिटेन और फ्रांस की सेना भी कम पड़ने लगी. ये देखते हुए जल्दबाजी में ब्रिटेन ने भारतीय सैनिकों की भर्ती शुरु कर दी. पूरे युद्ध के दौरान ब्रिटिश-सेना में कुल 15 लाख भारतीय सैनिकों को शामिल किया गया. भारतीय-रियासतों ने भी अपने सैनिक अंग्रेजी सेना के साथ लड़ने के लिए यूरोप भेज दिए. भारत की तरफ से कुल 12 केवलरी रेजीमेंटस और 13 इंफैंट्री रेजीमेंटस सहित कई यूनिटों ने युद्ध में अपना योगदान दिया.
भारतीय सैनिकों की तैनाती सबसे पहले फ्रांस और बेल्जियम में ही की गई, जहां जर्मन-सेना ने ब्रिटिश और फ्रांस की सेना के पांव उखाड़ दिए थे. लेकिन भारतीय सैनिकों की मैदान में कूदते ही पासा पलट गया. ये सभी भारतीय सैनिक अंग्रेजी अधिकारियों के नेतृत्व में मैदान में लड़ाई लड़ रहे थे. य्प्रेस (बेल्जियम) और न्यूवे-चैपल (फ्रांस) की लड़ाई में भारतीय सैनिक सूती कपड़े की यूनिर्फाम पहने और हाथों में 303 राइफल लेकर ऐसे लड़े की दुश्मनों के दांत खट्टे हो गए. इन दोनों लड़ाईयों में दो भारतीयों की बहादुरी को देखते हुए युद्ध का सबसे बड़ा मेडल विक्टोरिया-क्रॉस दिया गया. ये दोनों बहादुर सैनिक थे गब्बर सिंह नेगी (न्यूवे चैपल की लड़ाई) और खुदादद खान (य्प्रेस की लड़ाई).
भारतीय एकीकृत रक्षा मुख्यालय (सेना) के ताजा आंकड़ों के मुताबिक, प्रथम विश्वयुद्ध में कुल 11 भारतीय सैनिकों को विक्टोरिया क्रॉस मेडल से नवाजा गया था. विश्वयुद्ध में आमने-सामने की लड़ाई में शत्रु को दिखाई बहादुरी के लिए भारतीय सैनिकों को दिया जाने वाला ये सर्वोच्च सैन्य अलंकरण था. इसके अलावा पांच (05) मिलेट्री-कॉस, 973 आईओएम (यानि इंडियन ऑर्डर ऑफ मेरिट) तथा 3130 आईडीएसएम (इंडियन डिस्टिंगुइश सर्विस मेडल) सहित कुल 9200 बहादुरी पुरस्कार अकेले भारतीय सैनिकों को दिए गए.
एक अनुमान के मुताबिक, भारतीय वालंटियर सेना की संख्या कनाडा, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और दक्षिण अफ्रीका के कुल सैनिकों से भी ज्यादा थी. ये सभी देश भी उस वक्त ब्रिटिश अधिराज्य थे और सभी ने अपने देश के सैनिकों को भी अंग्रेजी सेना के साथ लड़ने के लिए भेजे था. माना जाता है कि अंग्रेजों की तरफ से लड़ने वाला हर छठा सैनिक भारतीय था.
पहली बार भारतीय सैनिकों ने .303 राइफल के अलावा, मशीनगन, तोप, टैंक, हैंड-ग्रैनेड जैसे हथियारों को इस्तेमाल किया तो लैंड-माइंस, कटीली तारों के युद्ध-मैदान और जहरीली-गैस से भी दो-दो हाथ किए. युद्ध के मैदान में जर्मनी ने जब जहरीली-गैस का इस्तेमाल किया तो भारतीय सैनिकों ने अपने पेशाब में ही गीले किए कपड़ों को अपने मुंह पर बांधकर लड़ाई लड़ी. पहली बार ही भारतीयों ने हवाई युद्ध में भाग लिया. युद्ध के दौरान हवाई जहाज उड़ाने का मौका मिला.
भारतीय सैनिकों की तैनाती सिर्फ यूरोप में ही नहीं की गई. बेल्जियम और फ्रांस के बाद भारतीय सैनिकों ने टर्की (गैलीपोली की लड़ाई), मैसोपोटामिया (ईराक), ईरान, फिलीस्तीन, पूर्वी अफ्रीका और सुदूर-पूर्व में भी अपनी बहादुरी, निष्ठा और बलिदान का अनूठा परिचय दिया.
ऐसे में युद्ध के वक्त अपने देश से दूर परदेश में लड़ रहे एक भारतीय सैनिक द्वारा चिठ्ठी में लिखा गया था, “ यदि मैं यहां मारा गया तो कौन मुझे याद करेगा ?” यही वजह है कि शताब्दी-वर्ष में “ अंग्रेजों की ओर से लड़ने वाले एक वीर भारतीय सैनिक के ये मनोभाव हमें उसके जीवन की अनकही गाथा सुनने, उसके बहादुरी, बलिदान एवं समर्पण को याद करने के लिए उत्सुक कर देते हैं.” वर्षों तक इन बहादुर सैनिकों की अनकही गौरव गाथा को ना तो कोई कहने वाला था और ना ही सुनने वाला. लेकिन वर्ष 2015 में मोदी सरकार ने प्रथम विश्वयुद्ध के सौ साल पूरे होने पर इन भारतीय सैनिकों की याद में राजधानी दिल्ली में एक बड़े जलसे का आयोजन किया था.
यहां ये बात दीगर है कि राजधानी दिल्ली स्थित इंडिया-गेट अंग्रेजों ने प्रथम विश्वयुद्ध में शहीद हुए भारतीय सैनिकों की याद में वॉर-मेमोरियल के तौर पर सन् 1931 में बनवाया था. इसके अलावा दिल्ली के लुटियन जोन में स्थित ‘तीन-मूर्ति’ भी विश्वयुद्ध में तीन भारतीय रियासतों, हैदराबाद, मैसूर और जोधपुर के योगदान के तौर पर बनवाई गईं थी. इसी तरह के युद्ध-स्मारक भारतीय सैनिकों की याद में फ्रांस के न्यूवे-चैपल और बेल्जियम के य्प्रेस में आज भी मौजूद हैं.