"मेरे हिंदुत्व को आपके सर्टिफिकेट की ज़रूरत नहीं है." ये बयान किसी छोटे और मंझौले कद के नेता का नहीं बल्कि महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे का है जिन्होंने राज्य के राज्यपाल भगत सिंह कोशियारी को लिखे एक पत्र के जवाब में ऐसा कहा था. साल 2020 के अक्टूबर महीने में मंदिरों को खोलेने को लेकर राज्यपाल ने पत्र लिखकर मुख्यमंत्री से पूछा था, "क्या आपने हिंदुत्व छोड़ दिया है और धर्मनिरपेक्ष हो गए हैं?"


मुख्यमंत्री ठाकरे का यह बयान विपक्षी पार्टियों के नेताओं और कार्यकर्ताओं को यह बताने के लिए काफी है कि हिंदुत्व की धार पर राजनीति के मैदान में उतरी शिवसेना कांग्रेस और एनसीपी के साथ सरकार बनाने के बाद भी अपने 'हिंदुत्व' के एजेंडे पर लगातार कायम है.


पिता बाला साहब ठाकरे की मृत्यु और भाई राज ठाकरे के साथ राहें जुदा होने के बाद बिना किसी प्रशासनिक अनुभव के महाराष्ट्र की राजनीतिक जमीन पर उद्धव ठाकरे के नेतृत्व में शिवसेना ने जो परचम लहराया उसे देखकर न सिर्फ पार्टी के कार्यकर्ता बल्कि राज्य के कई बड़े नेता भी हतप्रभ रह गए थे.


साल 2003 में मिली थी शिवसेना की कमान


27 जुलाई 1960 को जन्मे उद्धव ठाकरे अपने पिता बाल ठाकरे के साए में रहकर राजनीति की. पिता की मृत्यु के बाद उन्हें शिवसेना की कमान मिलीं जिसके बाद उन्होंने पार्टी को कई मुश्किलों से निकालकर एक बार फिर महाराष्ट्र में सत्ता की उस शिखर तक पहुंचा दिया जिसके लिए शिवसेना के कार्यकर्ता दिन-रात सपना देखते थे.


साल 2019 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी के साथ गठबंधन कर चुनावी मैदान में उतरी शिवसेना ने उस वक्त अपनी ताकत का एहसास करवाया जब चुनाव परिणाम सामने आया और बीजेपी पिछले चुनाव से भी कम सीटों पर जीत दर्ज की. चुनाव परिणाम आने के बाद साफ हो गया था कि किंगमेकर की भूमिका में रहने वाली शिवसेना को अब यह रोल रास नहीं आ रहा है और वह अब किंग बनना चाहता है.


शिवसेना का हो मुख्यमंत्री


चुनाव परिणाम के बाद यह तो साफ हो गया था कि राज्य में बीजेपी एक बार फिर सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है लेकिन मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचने के लिए उन्हें शिवसेना का साथ चाहिए. शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे इसी मौके का इंतजार कर रहे थे कि कब बीजेपी कमजोर पड़ती है. जैसी ही उद्धव ठाकरे ने देखा कि बीजेपी सत्ता की कुर्सी तक पहुंचने में लड़खड़ा रही है और उसे वहां तक जाने के लिए गठबंधन रूपी बैसाखी की जरूरत है तो तुरंत उन्होंने अपने मोहरे को आगे कर दिया.


तभी उद्धव ठाकरे के सबसे करीबी नेता और राज्यसभआ सांसद संजय राऊत ने बीजेपी से मुख्यमंत्री पद की मांग कर दी. उन्होंने बीजेपी से मांग कर दी कि राज्य की कमान शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे के हाथों में सौंपा जाए. मुख्यमंत्री पद के लिए राऊत हर तरह की राजनीतिक गोटियां सेट करने में लग गए.  


संजय राउत के बयान के बाद साफ हो गया था कि किंगमेकर की भूमिका में रहने वाली शिवसेना अब महाराष्ट्र में किंग बनकर रहना चाहती थी. उद्धव ठाकरे को अब राज्य में 'छोटे भाई' के रूप में रहना पसंद नहीं था. 


वहीं बीजेपी, शिवसेना को किसी सूरत में मुख्यमंत्री पद नहीं दे रही थी. बीजेपी चाहती थी कि राज्य में उनका मुख्यमंत्री हो जबकि उद्धव ठाकरे चाहते थे कि शिवसेना का मुख्यमंत्री हो. मामला फंसता हुआ देख अंत में उद्धव आधे-आधे की भागिदारी पर भी मान गए. 


मतलब साफ था कि उद्धव ठाकरे एक बार फिर उसी बात को दोहरा रहे थे जो सालों पहले बाल ठाकरे कहा करते थे. 'केंद्र में बीजेपी बड़ा भाई और राज्य में शिवसेना' लेकिन, बीजेपी के नेता मानने को तैयार नहीं थे. और इसका अंजाम यह हुआ कि राज्य में शिवसेना और बीजेपी की राहें पूरी तरह जुदा हो गई.


उद्धव ठाकरे ने कांग्रेस और एनसीपी के साथ मिलकर राज्य में 'महाविकास अघाड़ी' नाम से नया गठजोड़ बनाया. इस गठबंधन में तीनों दलों की विचारधारा बिल्कुल अलग थी. लेकिन उद्धव ठाकरे ने राजनीति की मैदान में ऐसी फिल्डिंग सजाई कि राज्य की सत्ता से बीजेपी को बेदखल कर विपक्ष में बैठने को मजबूर कर दिया. 


साल 2014 के विधानसभा चुनाव में ही पड़ गई थी दरार


बीजेपी और शिवसेना के बीच दरार तभी पैदा हो गया था जब साल 2014 के विधानसभा चुनाव में सीटों के बंटवारे पर बात नहीं बन पाई थी. सीटों के बंटवारे पर बात न बनने के कारण दोनों के बीच 25 साल पुराना गठबंधन टूट गया था.  


हालांकि, चुनाव के बाद तीन महीनों में ही शिवसेना ने बीजेपी से समझौता कर लिया. इस चुनाव में शिवसेना के 63 विधायक चुन कर विधानसभा पहुंचे थे. सरकार में शामिल होने के बाद शिवसेना उप-मुख्यमंत्री पद की मांग करती रही लेकिन बीजेपी के नेताओं के कान पर जूं तक नहीं रेंगा.


63 विधायकों के साथ शिवसेना बीजेपी के साथ सरकार में तो शामिल हो गई लेकिन कई मौकों पर अपना विरोध जरूर जताती रही. सरकार में शामिल होने के बाद भी दोनों दल के बीच आपसी खींचतान चलती रही और लगभग हर बार शिवसेना को ही कड़वी घूंट पीना पड़ रहा था.


सत्ता में शामिल होते हुए भी शिवसेना बीजेपी की राजनीतिक और आर्थिक नीतियों के खिलाफ मुखर रही. शिवसेना ने नोटबंदी के फैसले पर भी अपना विरोध जताया तो मुंबई-अहमदाबाद बुलेट ट्रेन चलाने के निर्णय को लेकर भी. ऐसे कई और भी मामले रहे जिसका विरोध शिवसेना ने सरकार में रहते हुए किया लेकिन पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आई केंद्र की बीजेपी सरकार किसी का विरोध सुनने के लिए तैयार नहीं थी.


तमाम विरोध के बाद भी जब सरकार में शिवसेना की बातों का कोई असर नहीं हुआ तो वह 'देखने और साथ खड़ा' रहने की नीति पर चल दी. शिवसेना बीजेपी के हर फैसले को बहुत ही करीब से देखती और राजनीतिक नफा-नुकसान के हिसाब से आकलन कर बयानबाजी करती.


बीजेपी का विरोध करती रही शिवसेना


मंझे हुए राजनेता की तरह शांत और संयम रहने वाले उद्धव ठाकरे ने उस वक्त चुप रहना मुनासिब समझा. उद्धव ठाकरे चुपचाप समय की प्रतीक्षा करते रहे और मैके के इंतजार में रहे कि आखिर वह समय कब आए कि बीजेपी को यह एहसास दिलाई जा सके कि महाराष्ट्र की राजनीति में शिवसेना अभी भी 'बड़ा भाई' है.


आखिरकार 2019 विधानसभा चुनाव के बाद वह मौका सामने आ गया. राज्य में बीजेपी पिछले विधानसभा चुनाव के मुकाबले 17 सीटें कम जीतीं. इस बार के चुनाव में बीजेपी को 105 सीटों पर सिमट गई. हालांकि पिछले चुनाव के मुकाबले शिवसेना को भी सात सीटों का नुकसान हुआ.


बीजेपी को मिली सीटों के बाद उद्धव ठाकरे के मन में यह तस्वीर साफ हो गई थी कि बिना शिवसेना के किसी की भी सरकार नहीं बनने वाली है चाहे वह बीजेपी हो या कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन.


शरद पवार का साथ, उद्धव बने सीएम


शिवसेना ने मुख्यमंत्री पद का राग अलापा. उद्धव ठाकरे ने अपने सुर-ताल और स्वर-पद के जरिए उस राग को जबरदस्त तरीके से गाया. और गीत को महत्वपूर्ण और इसे प्रसिद्धी दिलाने में एनसीपी के नेता शरद पवार ने अहम भूमिका अदा की.


शरद पवार से बातचीत के बाद शिवसेना ने बीजेपी के नाता तोड़ दिया और कई दिनों की राजनीतिक उठापटक के बाद कांग्रेस और एनसीपी से हाथ मिला लिया. जिसके बाद महाराष्ट्र में 'महाविकास अघाड़ी' गठबंधन का जन्म हुआ. नतीजन शिवसेना ने कांग्रेस और एनसीपी के समर्थन के बाद उद्धव ठाकरे के नेतृत्व में सरकार बनाई. फिलहाल महाराष्ट्र की कमान उद्धव ठाकरे संभाले हुए हैं.


कई मौके पर हुई किरकिरी


हालांकि, कई मुद्दे ऐसे आए जब उद्धव सरकार की किरकिरी हुई. जिसमें प्रमुख रूप से कोरोना को कंट्रोल न करने के लिए विपक्षियों ने उनपर हमला बोला तो सुशांत सिंह राजपूत आत्महत्या मामला, कंगना रनौत विवाद प्रमुख रूप से छाया रहा. 


साल 2019 में जब शिवसेना, कांग्रेस और एनसीपी ने महाराष्ट्र में गठबंधन करके सरकार बनाई थी तो कई राजनीतिक विश्लेषकों के लिए ये गठबंधन एक अचंभे की तरह था. लेकिन उद्धव ठाकरे ने उस अभी तक के कार्यकाल में उस अचंभे को सच कर दिखाया है.