Ukraine: हम उस दौर में जी रहे हैं जिसमें हमारी पीढ़ी मानव सभ्यता के दो बड़े दुश्मन- महामारी और युद्ध दोनों को करीब से देख रही है. चर्चित इजरायली इतिहासकार युवाल नोआ हरारी ने अपनी किताब सेपियन्स में लिखा था कि वो दौर गुजर गया जब महामारी और युद्ध में लाखों लोग खो देते थे. मगर महामारी और युद्ध लौट आया है. कोरोना का दौर मुश्किल से गुजरा था कि एक साल पहले रूस ने पड़ोसी यूक्रेन के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया. एक युद्ध हजारों परेशानियों को जन्म देता है. ताकतवर रूस ने जब यूक्रेन के खिलाफ हमला किया तो समझ गया कि दबाव बनाने की राजनीति है कुछ दिनों में ही ये सब सिमट जाएगा. मगर दिनों दिन युद्ध गहराया तो दुनिया की चिंता सामने आई.


इस युद्ध को लेकर भारत की सबसे बड़ी चिंता यूक्रेन में पढ़ने वाले बीस हजार से ज्यादा विद्यार्थियों की थी. पिछले कुछ सालों में यूक्रेन मेडिकल की पढ़ाई का बडा सेंटर बन गया है. वो छात्र जो हमारे देश में सरकारी और गैर सरकारी मेडिकल कॉलेजों में दाखिला नहीं पा पाते वो थोड़े कम खर्च में यूक्रेन पढ़ाई करने जाते हैं. ये छात्र वहां से लौट कर एक परीक्षा देते हैं और देश में मेडिकल प्रोफेशन में शामिल हो जाते हैं.


यूक्रेन की राजधानी कीव से लगे कुछ शहर हैं जहां बड़ी संख्या में हमारे देश के छात्र पढ़ते हैं. अचानक छिड़े युद्ध ने इनकी परेशानियां बढ़ा दीं. खाने रहने की मुश्किलों के साथ ही जान बचाने का काम भी बढ़ गया. लंबे पावर कट और सायरन बजने पर तहखानों में छिपना पड़ेगा, इन छात्रों ने कभी इस दौर की कल्पना भी नहीं की थी. इन सबको पहले यूनिवर्सिटी ने रोका और जब जाने को कहा तो यूक्रेन में फ्लाइट आनी बंद हो गईं. इन सबके सामने लंबी यात्रा कर सीमा के देशों में जाकर वहां से निकलना ही एकमात्र रास्ता बचा, ऐसे में फिर शुरू हुआ ऑपरेशन गंगा, जिसका मकसद अपने देश के छात्रों को यूक्रेन से सुरक्षित निकालना ही रहा.


हजारों छात्रों को सीमा पार कराना था कितना मुश्किल काम


संवेदनशील लेखक और मध्यप्रदेश कैडर के आईएएस अफसर तरुण पिथोडे की नई किताब ऑपरेशन गंगा, डायरी ऑफ अ पब्लिक सर्वेंट, में इस ऑपरेशन की कथा है. इसमें लेखक ने इस ऑपरेशन के किरदारों से मिलकर उनके किस्से सुने और जाना कि वो बड़े देश के आक्रमण से जूझ रहे छोटे देश से हजारों छात्रों को सीमा पार कराना कितना मुश्किल काम था.


तरुण ने यूक्रेन के करीब के चार देशों की यात्राएं कीं. छात्र, छात्राओं और उनकी मदद करने वाले विदेश विभाग के अफसरों ने वहां रहने वाले भारतीयों और विमान से लाने वाले पायलटों से मुलाकात कर एक दिलचस्प किताब लिखी है. किताब पढ़ते हुए आप छात्रों के उन कठिन दिनों से रूबरू होते हैं, जिनमें उनके पास खाने और पीने की पानी की किल्लत तो होती ही थी, साथ ही जब उनसे सीमा पर जाने को कहा गया तो उनको किन-किन हालातों का सामना करना पड़ा. 


'संकट का दौर आता है चला जाता है'


भारी ठंड में बसों से सीमाओं की ओर जाना, वहां पर कई किलोमीटर लंबी लाइन में लगना, कड़ाके की ठंड में थके हारे छात्रों ने इन सब हालातों का सामना किया और भारत लौटे. इस किताब में तिरंगे की ताकत का भी उल्लेख है कि तिरंगा लगी बसों में भारत के आसपास के देशों के छात्र भी बैठ जाते थे क्योंकि हमारा तिरंगा आश्वस्ति का प्रतीक बन गया था कि तिरंगा लगी बसों पर कोई हमला नहीं करेगा.


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहल पर चार मंत्रियों ने यूक्रेन के पड़ोसी देशों में डेरा डाला और छात्रों की देश वापसी में आने वाली छोटी बड़ी सारी परेशानियों को मिनटों में हल किया. ऐसी ही एक मुसीबत थी कि लौटने वाले छात्र अपने साथ पेट्स यानी कि पालतू बिल्ली और कुत्ते लाना चाहते थे. उनके बिना वो आने को तैयार नहीं थे. ऐसे में मुश्किल से अथॉरिटी से हरी झंडी मिलने के बाद पिंजरे तलाशे गए और पालतू जानवर लाए गए.


संकट का दौर आता है चला जाता है, बस याद ये रखा जाता है कि उस दौर से कैसे निपटा गया. यूक्रेन युद्ध में किन हालात में हमारे देश के छात्रों को निकाला गया ये याद रखा जाए, इसके लिए जरूरी है तरुण पिथोड़े की ये किताब, जिसमें बहुत संवेदनशीलता के साथ उस वक्त की कहानी डायरी के तौर पर लिखी गई है. कोविड काल की कथा लिखने वाले एक कुशल प्रशासक से ये उम्मीद तो की जानी चाहिए.


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