Uniform Civil Code:  लोकसभा चुनाव नजदीक आते ही समान नागरिक संहिता (UCC) का मुद्दा फिर से गरमा गया है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तरफ से खुले मंच से इसकी वकालत करने के बाद हर तरफ सिर्फ यूनिफॉर्म सिविल कोड की ही चर्चा है. विपक्षी दलों ने भी इसे लेकर सवाल उठाना शुरू कर दिया है. हालांकि ये मुद्दा कोई नया नहीं है, कई दशकों से यूनिफॉर्म सिविल कोड को लेकर बहस चल रही है और सुप्रीम कोर्ट भी कुछ मामलों में इसका जिक्र कर चुका है. जिनमें से सबसे पहला और बड़ा मामला शाह बानो का है. जिसमें मुस्लिम पर्सनल लॉ को दरकिनार करते हुए हाईकोर्ट और उसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया था. 


तीन तलाक से शुरू हुई बहस
दरअसल कुछ साल पहले मोदी सरकार ने एक बड़ा फैसला लेते हुए तीन तलाक को खत्म कर दिया था. पीएम मोदी ने कहा था कि इससे मुस्लिम महिलाओं को सबसे बड़ी राहत देने का काम हुआ है. इसे यूनिफॉर्म सिविल कोड से जोड़कर देखा गया, कहा गया कि सरकार की तरफ से यूसीसी की तरफ पहला कदम बढ़ा लिया गया है. शाह बानो का मामला भी इसी ट्रिपल तलाक से जुड़ा हुआ था, जिसकी सुनवाई के दौरान बाद में समान नागरिक संहिता का जिक्र सुनने को मिला. 


शाह बानो को दिया गया तीन तलाक
शाह बानो का कम उम्र में साल 1932 में निकाह हो गया था, उनका निकाह इंदौर के एक वकील मोहम्मद अहमद खान से हुआ. कुछ साल तक सब कुछ ठीक चलता रहा और दोनों के पांच बच्चे भी हो गए, लेकिन निकाह के करीब 14 साल बाद अहमद खान ने दूसरा निकाह कर लिया. तब समझौते के तहत शाह बानो भी उनके साथ रहने लगी, लेकिन जब दोनों में खटपट शुरू हुई तो 1978 में अहमद खान ने शाह बानो को तीन बार तलाक (ट्रिपल तलाक) बोलकर तलाक दे दिया और घर से बेदखल कर दिया. तब खान ने शाह बानो से वादा किया कि वो गुजारा भत्ता के तौर पर हर महीने उसे 200 रुपये देगा, लेकिन कुछ ही महीनों बाद वो इससे मुकर गया. 


ऐसे शुरू हुआ शाह बानो केस
गुजार भत्ता नहीं मिलने के बाद 62 साल की शाह बानो ने कोर्ट का दरवाजा खटखटाने का फैसला किया और यहीं से शाह बानो का चर्चित मामला शुरू हुआ. इंदौर की एक अदालत में मामला पहुंचा और शाह बानो ने गुजारा भत्ता के लिए 500 रुपये महीने की मांग की, पेशे से वकील अहमद खान ने कोर्ट में मुस्लिम पर्सनल लॉ का हवाला दिया और कहा कि वो गुजारा भत्ता देने के लिए बाध्य नहीं है. कोर्ट ने इस दलील को तो खारिज कर दिया, लेकिन शाह बानो को महज 20 रुपये प्रतिमाह का गुजारा भत्ता देने का फैसला सुनाया. जो शाह बानो और उनके बच्चों के लिए काफी कम रकम थी. 


इसके बाद मामला हाईकोर्ट पहुंच गया, शाह बानो ने इस फैसले को हाईकोर्ट में चुनौती दे दी. कुछ महीनों तक चली सुनवाई के बाद हाईकोर्ट ने भी 1980 में अपना फैसला सुनाया और गुजारा भत्ता की रकम को 20 रुपये से बढ़ाकर 179 रुपये प्रतिमाह कर दिया. इस फैसले से शाह बानो का पति अहमद खान खुश नहीं था, इसलिए उसने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर दी. 


चार साल सुनवाई के बद सुप्रीम कोर्ट ने सुनाया फैसला
सुप्रीम कोर्ट में 1981 में ये मामला दो जजों की बेंच के सामने रखा गया, लेकिन मामले की पेचीदगी को देखते हुए मामला पांच जजों की संविधान पीठ को सौंप दिया गया. सुप्रीम कोर्ट में मामला करीब चार साल तक चलता रहा. शाह बानो के पति ने यहां भी तर्क दिया कि मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत उसने दूसरी शादी की है और पहली पत्नी को गुजारा भत्ता देना उसके लिए अनिवार्य नहीं है. 1985 में सुप्रीम कोर्ट ने मध्य प्रदेश हाईकोर्ट के आदेश को सही करार देते हुए शाह बानो के पक्ष में फैसला सुनाया. 


यूनिफॉर्म सिविल कोड का हुआ जिक्र
इस दौरान सुप्रीम कोर्ट ने अहम टिप्पणी करते हुए यूनिफॉर्म सिविल कोड की जरूरत का जिक्र किया. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि देश में समान नागरिक संहिता की जरूरत महसूस होती है, जिस पर सरकार को विचार करना चाहिए. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सीआरपीसी की धारा 125 हर धर्म और जाति के लोगों पर लागू होती है, जिसमें मुस्लिम भी शामिल हैं. यहां से मुस्लिम पर्सनल लॉ को लेकर बहस तेज हो गई और मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड भी मामले में कूद पड़ा. 


राजीव गांधी सरकार ने पलट दिया फैसला
शाह बानो को कई सालों की कानूनी लड़ाई लड़ने के बाद सुप्रीम कोर्ट से बड़ी राहत मिली थी, लेकिन राजनीतिक तौर पर ये मामला इतना बड़ा हो चुका था कि कुछ ही वक्त पहले सत्ता में आए राजीव गांधी ने एक बड़ा और विवादित फैसला लेते हुए शाह बानो के फैसले को पलट दिया. राजीव गांधी सरकार मुस्लिम महिला (अधिकार और तलाक संरक्षण) विधेयक 1986 लेकर आई और इससे सुप्रीम कोर्ट का फैसला शून्य हो गया. इसके बाद विवाह के मामले में फिर से शरीयत कानून को लागू कर दिया गया. राजीव गांधी के इस फैसले को लेकर खूब विवाद हुआ और इसे इसे खुद के पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा बताया गया. इस तरह शाह बानो का फैसला भारत के इतिहास में दर्ज हो गया. 


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