Uniform Civil Code: समान नागरिक संहिता यानि यूनिफॉर्म सिविल कोड (UCC) को लेकर देश में बहस छिड़ी है. देश में एक वर्ग इसे लाने का हिमायती है. वहीं कई लोग ऐसे भी हैं, जो इससे सहमत नहीं है. यूसीसी का विरोध करने वालों में मुस्लिम समुदाय सबसे आगे है और इसे निजी धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप की तरह देख रहे हैं. समर्थन करने वालों का अपना तर्क है. मुस्लिम देशों का हवाला दिया जाता है कि वहां पर कई सारे इस्लामिक कानूनों को खत्म कर दिया गया है. जब उन देशों के मुसलमान इसे स्वीकार कर सकते हैं तो भारत के मुसलमानों को क्या दिक्कत है?
इसलिए ये जानना जरूरी हो जाता है कि मुस्लिम देशों ने कानून में कैसे सुधार किया. आज हम आपको बताएंगे कि पिछले 1400 सालों में मुस्लिम कानून में किस तरह से सुधार हुए और वो मूल स्वरूप से कितना बदला है. बदलाव का आधार क्या था, साथ ही मुस्लिम कानून में बदलाव की प्रक्रिया किस तरह से उन देशों में आगे बढ़ी? इसमें राज्य की भूमिका कितनी रही?
इस्लामिक लॉ में सुधार की जरूरत क्यों पड़ी?
प्रोफेसर फैजान मुस्तफा अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के लॉ डिपार्टमेंट में कानून पढ़ाते हैं और संविधान के विशेषज्ञ हैं. मुस्लिम देशों में सुधार का जिक्र करते हुए वो बताते हैं कि पूरी दुनिया में जो होता है, उसका असर इस्लामिक कानून पर भी पड़ेगा. इसमें शासकों के साथ ही व्यापार का भी असर पड़ेगा. वो कहते हैं कि इस्लाम जिन देशों में गया, वहां के रीति रिवाजों को भी इसके कानून में शामिल कर लिया गया.
उस्मानिया सल्तनत (वर्तमान तुर्किए) का जिक्र करते हुए उन्होंने बताया कि सल्तनत ने इस्लामिक कानून में सुधार करते हुए इस छूट की इजाजत दी कि जो यूरोपियन उस्मानिया सल्तनत के अंदर रह रहे हैं, उनके ऊपर यूरोपियन कानून लागू होगा.
उस्मानिया सल्तनत में ब्याज का प्रावधान
मुस्तफा कहते हैं, ''1839 से 1876 तक तंजीमात रिफॉर्म के जरिेए काफी यूरोपियन कानून को अपने में शामिल ले लिया. उस्मालिया सल्तनत में 1850 में फ्रेंच कानून के आधार पर कॉमर्शियल कोर्ट बनी, जिसमें सूद (ब्याज) का प्रावधान किया गया. यहां ध्यान रखने की बात है कि इस्लाम में सूद लेना हराम बताया गया है, जबकि खिलाफत पर आधारिक उस्मानिया सल्तनत की कोर्ट में इसकी व्यवस्था की गई.''
उन्होंने कहा कि उस्मानिया सल्तनत में 1858 में दंड संहिता लाई गई. इसका आधार भी फ्रेंच कोर्ट से लिया गया. फैजान मुस्तफा कहते हैं, ''इस दंड संहिता में इस्लाम के तहत दी जाने वाली अधिकांश कड़ी सजाएं खत्म कर दी गईं.''
मिस्र के सिविल कानून में बदलाव
मुस्तफा ने बताया, ''1875 में मिस्र के लोग उस्मानिया से भी आगे निकल गए. उन्होंने सिविल कानूनों को भी फ्रेंच आधार पर कर दिया. 1937 में मिस्र में क्रिमिनल कोर्ट आती है, जो लेबनानी कोर्ट से ली गई, जबकि लेबनान की क्रिमिनल कोर्ट का आधार फ्रांस के कानून थे.''
भारत में भी इस तरह से इस्लामिक कानूनों में बदलाव किया गया. 1872 के एक नियम का हवाला देते हुए वे कहते हैं कि नियम बनाया गया कि बच्चा निकाह के चाहे एक मिनट बाद भी पैदा होता है, वो वैध होगा. ये इस्लामिक कानून के खिलाफ है, लेकिन ये नियम लागू है.
फैजान मुस्तफा कहते हैं कि कानून में सुधार का सबसे सही तरीका है कि ऊपर से थोपे जाने की बजाय उसका न्यायिक आधार तलाशना चाहिए. इसकी पूरी प्रक्रिया को चुनाव कहते हैं. यानि कई सारे विकल्पों में से बेहतर विकल्प चुन लेना है.
कैसे बदले दुनिया में पारिवारिक कानून
पारिवारिक आधिकार के कानूनों का जिक्र करते हुए उन्होंने बताया कि ज्यादातर मध्य पूर्व के देशों ने हनबली कानून को खुद को अपना लिया. इसके तहत निकाहनामे में महिला को भी शर्त लिखवाने की अनुमति दी गई. 1917 में उस्मानिया सल्तनत ने उसे शुरू किया और एक शर्त लिखवाने की अनुमति दी कि बीवी ये लिखवा सकती है कि शौहर दूसरी शादी नहीं करेगा. आगे मोरक्को में भी इसे लागू किया गया, लेकिन जॉर्डन इसमें आगे निकला और वहां के कानून में कहा गया कि कोई भी शर्त जो बीवी के हक में हो, वो लिखवाई जा सकती है.
ट्यूनीशिया ने 1959 में हनफी कानून को मालिकी कानून पर तरजीह दी और कहा कि एक बालिग औरत अपनी शादी के लिए स्वतंत्र है और उसे किसी संरक्षक की सहमति की जरूरत नहीं है.
तलाक पर दूसरे देशों में सुधार
मिस्र ने 1929 में एक सुधार लागू किया गया, जिसमें कहा गया कि ऐसे मामले जहां पति ने सिर्फ बीवी को सिर्फ डराने-धमकाने या किसी बात से रोकने के लिए तलाक बोला गया तो तलाक नहीं माना जाएगा. यानि अगर तलाक अगर पक्के इरादे के बिना बोला गया तो ये मान्य नहीं होगा. इसके उलट भारत में हनफी स्कूल इस बात को नहीं मानता. अगर आपने तलाक शब्द बोला तो वो मान लिया जाएगा.
विरासत का नियम
मिस्र में 1946 में वक्फ का कानून बना, जिसमें कह दिया गया कि धार्मिक उद्देश्य के अलावा जो भी वक्फ होगा वो 60 साल के लिए या फिर दो पीढ़ियों के लिए होगा. यानि बेटे को और उसके पोते को जा सकता है. उसके आगे इसे नहीं लागू नहीं किया जाएगा.
मिस्र में भी एक बड़ा रिफॉर्म उत्तराधिकार को लेकर हुआ. इसके तहत पिता ने भले उसे वारिस बनाया हो या नहीं, सभी संतानों को उनका हक मिलेगा. फैजान मुस्तफा बताते हैं कि 60 साल का वक्फ मालिकी कानून से आया है. वहीं, वारिसों को लेकर बना नियम हनबली और जाहिरी न्याय प्रणाली से लिया गया है.
नोट- हनफी, शाफी, मालिकी, हनबली इत्यादि इस्लामिक स्कूल ऑफ थॉट्स हैं, जिसमें कुरान के आधार पर इस्लामिक विद्वानों ने नियमों की व्याख्या की है.
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