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Uniform Civil Code: यूनिफॉर्म सिविल कोड सियासी मुद्दा या वास्तविक जरूरत? क्या कहता है संविधान, जानें हर पहलू

Uniform Civil Code: अभी देश में गोवा अकेला राज्य है जहां समान नागरिक संहिता लागू है. ये पुर्तगाली नागरिक संहिता 1867 के नाम से मशहूर है. गोवा के भारत में 1961 में विलय के बाद भी कोड वहां लागू रहा.

Uniform Civil Code: चुनावी सरगर्मियों के साथ ही हाल के दिनों में यूनिफॉर्म सिविल कोड (Uniform Civil Code) का मुद्दा सुर्खियों में है. इस साल जहां-जहां भी विधान सभा चुनाव हुए हैं, उन सभी राज्यों में यूनिफॉर्म सिविल कोड (UCC) बड़ा चुनावी मुद्दा बन कर उभरा. बीजेपी ने अपने प्रचार अभियान में इसे बड़े मुद्दे के तौर पर शामिल किया.

इस साल 7 राज्यों में विधान सभा चुनाव हुए हैं. इनमें उत्तर प्रदेश उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर के अलावा हिमाचल प्रदेश और गुजरात शामिल हैं. इन सभी राज्यों में प्रचार के दौरान बीजेपी ने यूनिफॉर्म सिविल कोड के नाम पर वोट मांगे.

2023 में भी 9 राज्यों मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, तेलंगाना, त्रिपुरा, मेघालय, नागालैंड और मिजोरम में विधानसभा चुनाव होने हैं. वहीं 2024 में केंद्र में सत्ता के लिए लोकसभा चुनाव होना है. यूनिफॉर्म सिविल कोड का मुद्दा पार्टी के गठन के समय से बीजेपी के एजेंडे में रहा है. पिछले 8 साल से केंद्र में बीजेपी की अगुवाई में सरकार चल रही है. ऐसे में बीजेपी समान नागरिक संहिता के मुद्दे पर देश के लोगों का मन टटोल रही है. साथ ही उसकी मंशा है कि इतने बड़े मुद्दे पर लोगों और राजनीतिक दलों के बीच आम सहमति बनती दिखे. आने वाले चुनावों को देखते हुए यूनिफॉर्म सिविल कोड को लेकर सरगर्मी और तेज होने की संभावना है. 

बीजेपी शासित राज्यों में यूसीसी के लिए पहल तेज़

फिलहाल केंद्र सरकार की ओर से तो समान नागरिक संहिता लाने की कवायद ज़ोर नहीं पकड़ रही है, लेकिन बीजेपी शासित कुछ राज्यों में इस साल यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करने की पहल पर तेजी से काम हो रहा है. सबसे पहले उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने इस कोड का मसौदा बनाने के लिए 27 मई 2022 को रिटायर्ड जस्टिस रंजना प्रकाश देसाई की अध्यक्षता में एक्सपर्ट कमेटी का गठन किया था. ये समिति राज्य के लोगों से जनसंवाद करते हुए राय ले रही है. उत्तराखंड में अगले साल मई तक समान नागरिक संहिता की ड्राफ्ट रिपोर्ट आने की उम्मीद है.

ड्राफ्ट के लिए कई राज्य बना चुके हैं एक्सपर्ट कमेटी

गुजरात विधानसभा चुनाव से पहले गुजरात के मुख्यमंत्री भूपेन्द्रभाई पटेल ने अक्टूबर में यूनिफॉर्म सिविल कोड के लिए विशेषज्ञ समिति बनाने का दांव चला. बीजेपी शासित राज्यों में उत्तराखंड के बाद गुजरात दूसरा राज्य है जिसने UCC के लिए विशेषज्ञ समिति बनाने का फैसला किया.

बीजेपी ने 26 नवंबर को गुजरात चुनाव के लिए संकल्प पत्र जारी किया. उसमें भी बीजेपी ने सत्ता वापसी पर गुजरात में जल्द यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करने का वादा किया है. नवंबर में हिमाचल प्रदेश में हुए चुनाव के लिए जारी संकल्प पत्र में भी बीजेपी ने समान नागरिक संहिता लागू करने का वादा किया था. खुद केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने प्रचार के दौरान कहा था कि राज्य में सत्ता वापसी पर बीजेपी इसे लागू करेगी. 

मध्य प्रदेश और हरियाणा में भी कोड लागू करने की तैयारी 

मध्य प्रदेश में भी बीजेपी यूनिफॉर्म सिविल कोड लाने की तैयारी में है. मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने एक दिसंबर को समान नागरिक संहिता के लिए कमेटी बनाने का ऐलान किया. इससे पहले बीजेपी शासित कर्नाटक में भी मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई ने इस कोड को लागू करने के संकेत दे दिए थे. पिछले महीने संविधान दिवस के मौके पर मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई ने कहा था कि कर्नाटक सरकार इस मुद्दे पर गंभीरता से विचार कर रही है.

बीजेपी शासित इन राज्यों की तर्ज पर अब हरियाणा भी इस कोड को लागू करने पर विचार कर रहा है. हरियाणा के गृह मंत्री अनिज विज ने कहा है कि जिन प्रदेशों में नागरिक समान संहिता लागू करने की योजना पर काम हो रहा है, उनसे हम सुझाव ले रहे हैं.

बीजेपी के बड़े वादों में से एक है समान नागरिक संहिता

भारतीय जनता पार्टी के लिए समान नागरिक संहिता का मसला जनसंघ के समय से जुड़ा है. बीजेपी का गठन 6 अप्रैल, 1980 को हुआ. उसने पहला आम चुनाव 1984 में लड़ा. इसमें उसके वादों में सिर्फ अनुच्छेद 370 को हटाना शामिल था. पहली बार 1989 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने अपने घोषणापत्र में समान नागरिक संहिता को जगह दी.

2014 और 2019 के घोषणापत्र में भी बीजेपी ने इसे शामिल किया. बीजेपी ने दिल्ली में अप्रैल 2019 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मौजूदगी में पार्टी मुख्यालय में इस संकल्प पत्र को जारी किया था. दरअसल पार्टी के गठन से ही बीजेपी के लिए अनुच्छेद 370 को हटाना, अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण और यूनिफॉर्म सिविल कोड को देशभर में लागू करना सबसे बड़े वादे रहे हैं.

बीजेपी हमेशा से ये दलील देती रही है कि यूनिफॉर्म सिविल कोड के बिना देश में लैंगिक समानता कायम करने की बात बेमानी है. इस कोड के जरिए ही देश की सभी महिलाओं के अधिकारों की रक्षा हो सकती है. 2014 में केंद्र में सत्ता हासिल करने के बाद बीजेपी संवैधानिक प्रक्रिया को अपनाते हुए अनुच्छेद 370 को हटाने और अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण के वादे को पूरा कर चुकी है. अब उसके लिए तीन बड़े वादों में से सिर्फ यूनिफॉर्म सिविल कोड का मुद्दा ही बचा है जिसे लागू करने का रास्ता बीजेपी तलाश रही है. 

तीन तलाक पर कानून के बाद बहस तेज़

ऐसे तो भारत में लंबे वक्त से इस पर बहस हो रही है, लेकिन पिछले पांच साल से देश का एक बड़ा तबका समान नागरिक संहिता को लागू करने की मांग कर रहा है. दरअसल सुप्रीम कोर्ट ने अगस्त 2017 में मुस्लिम समाज में एक बार में तीन तलाक बोल कर शादी को खत्म करने की परंपरा (तलाक-ए-बिद्दत) पर ऐतिहासिक फैसला देते हुए इसे असंवैधानिक बताया. शीर्ष अदालत ने केंद्र सरकार से इस मुद्दे पर कानून बनाने को कहा.

इसके बाद जुलाई 2019 में संसद से तीन तलाक के दंश से छुटकारा देने के लिए मुस्लिम महिला (विवाह अधिकार संरक्षण) कानून बना. इसके जरिए तलाक-ए-बिद्दत यानि एक बार में तीन तलाक को अवैध मानते हुए अपराध माना गया. सुप्रीम कोर्ट के फैसले और तीन तलाक पर संसद से कानून के बनने के बाद सियासी हल्कों से लेकर आम लोगों के बीच यूनिफॉर्म सिविल कोड पर बहस तेज हो गई. तीन तलाक पर सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले को समान नागरिक संहिता के लिए रास्ता मान लिया गया.

21वें विधि आयोग ने बताया था गैर जरूरी

भारत जैसे बड़े देश, जहां धर्म से लेकर तमाम विविधता से भरे समुदाय के लोग रहते हैं, राज्यों की अलग-अलग सांस्कृतिक पहचान है, ऐसे में पूरे देश के लिए एक समान नागरिक संहिता पर राजनीतिक दलों के बीच आम सहमति बनाना आसान नहीं है. इसलिए बीजेपी के लिए केंद्रीय स्तर पर इस दिशा में तेजी से आगे बढ़ना चुनौती है.

राष्ट्रीय सहमति बनाने की पहल के तहत बीजेपी इसे राज्यों के जरिए लागू करने की दिशा में आगे बढ़ रही है. ऐसा कहना भी ग़लत होगा कि बीजेपी ने केंद्रीय स्तर पर इसके लिए कुछ नहीं किया है. जून 2016 में केंद्र सरकार ने 21वें विधि आयोग से यूनिफॉर्म सिविल कोड की व्यावहारिकता और इसे लागू करने की गुंजाइश को लेकर विचार करने को कहा था. इस मुद्दे पर आयोग ने देशभर के अलग-अलग लोगों और संस्थाओं से चर्चा की.

अगस्त 2018 में कार्यकाल खत्म होने के पहले इस विधि आयोग ने जारी परामर्श पत्र में कहा था कि फिलहाल देश में यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करने की जरूरत नहीं है. आयोग ने कहा था कि मौजूदा वक्त में यूनिफॉर्म सिविल कोड न तो जरूरत है और न ही वांछनीय. 

यूसीसी पर 22वां विधि आयोग कर सकता है विचार 

अभी हाल ही में 22वें विधि आयोग के अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्ति हुई है. अब आगे आयोग इस मुद्दे पर गौर करेगा. इसका संकेत केंद्रीय कानून मंत्री किरेन रिजिजू दे दिया था. इस साल की शुरुआत में कानून मंत्री रिजिजू ने बीजेपी सांसद निशिकांत दुबे की चिट्ठी का जवाब देते हुए कहा था कि कोड को लेकर विस्तार से सुझाव देने की जिम्मेदारी 21वें विधि आयोग को दी गई थी. इस आयोग का कार्यकाल खत्म हो जाने की वजह से यूनिफॉर्म सिविल कोड का मामला 22वें विधि आयोग को सौंपा जा सकता है.

बाद में जुलाई में लोकसभा में कानून मंत्री रिजिजू ने कहा कि इस कोड से जुड़ी कुछ याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में लंबित हैं. इसलिए सरकार ने इस पर कोई फैसला नहीं लिया है. उन्होंने ज़ोर देकर कहा था कि राज्य सरकारें इस पर कानून लाने के लिए स्वतंत्र हैं. कानून मंत्री ने तर्क दिया था कि पर्सनल लॉ से जुड़े विषय शादी, तलाक, वसीयत, संयुक्त परिवार संविधान की समवर्ती सूची में शामिल हैं. इसलिए इन पर राज्यों को भी कानून बनाने का अधिकार है.

यूसीसी नहीं बनने पर सुप्रीम कोर्ट जता चुका है निराशा

देश की शीर्ष अदालत की ओर से भी कई बार कहा गया है कि देश में अलग-अलग पर्सनल लॉ की वजह से भ्रम की स्थिति बन जाती है. सुप्रीम कोर्ट ने सितंबर 2019 में निराशा जताई थी कि देश में समान नागरिक संहिता लागू करने के लिए कोई ठोस कोशिश नहीं की गई है.

अक्टूबर 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से कहा था केंद्र सरकार एक समान कानून बनाकर पर्सनल लॉ की विसंगतियों को दूर कर सकती है. इस साल अक्टूबर में केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दिया था. इसमें केंद्र सरकार की ओर से कहा गया था कि वो संसद को समान नागरिक संहिता पर कोई कानून बनाने का निर्देश नहीं दे सकती है.

क्या है यूनिफॉर्म सिविल कोड

यूनिफॉर्म सिविल कोड का संबंध सिविल मामलों में कानून की एकरूपता से है. देश के हर व्यक्ति के लिए सिविल मामलों में एक समान कानून यूनिफॉर्म सिविल कोड की मूल भावना है. इसमें धर्म, संप्रदाय, जेंडर के आधार पर भेदभाव की कोई गुंजाइश नहीं होती है. इस कोड के तहत देश के सभी नागरिकों पर विवाह, तलाक, उत्तराधिकार, पैतृक संपत्तियों में हिस्सा, गोद लेने जैसे मसलों के लिए एक ही कानून होते हैं. समान नागरिक संहिता होने पर धर्म के आधार पर कोई छूट नहीं मिलती.

भारत में फिलहाल धर्म के आधार पर इन मसलों पर अलग-अलग कानून हैं. हिंदुओं, मुस्लिमों और ईसाइयों के लिए भारत में संपत्ति, विवाह और तलाक के कानून अलग-अलग हैं. अलग-अलग धर्मों के लोग अपने पर्सनल लॉ का पालन करते हैं. मुस्लिम, ईसाई और पारसियों का अपना-अपना पर्सनल लॉ है. हिंदू सिविल लॉ के तहत हिंदू, सिख, जैन और बौद्ध आते हैं.   

यूनिफॉर्म सिविल कोड पर क्या कहता है संविधान

संविधान के भाग चार में यूनिफॉर्म सिविल कोड का जिक्र किया गया है. संविधान के भाग 4 में अनु्छेद 36 से लेकर 51 तक राज्य के नीति निर्देशक तत्व (Directive Principal of State Policy) को शामिल किया गया है. इसी हिस्से के अनुच्छेद 44 में नागरिकों के लिए यूनिफॉर्म सिविल कोड का प्रावधान है. इसमें कहा गया है "राज्य, भारत के समस्त राज्यक्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान सिविल संहिता प्राप्त कराने का प्रयास करेगा."

अब सवाल उठता है कि जब संविधान में इसका जिक्र है ही, तो आजादी के बाद इस पर कोई कानून क्यों नहीं बना. दरअसल संविधान के भाग 3 में देश के हर नागरिक के लिए मूल अधिकार की व्यवस्था की गई है, जिसे लागू करना सरकार के लिए बाध्यकारी है.

वहीं संविधान के भाग 4 में जिन नीति निर्देशक तत्वों का जिक्र किया गया है, उसे लागू करना सरकार के लिए बाध्यकारी नहीं है. दरअसल इस हिस्से में शामिल प्रावधान लोकतंत्र के आदर्श हैं, जिसे हासिल करने की दिशा में हर सरकार को बढ़ना चाहिए. बाध्यकारी नहीं होने की वजह से ही देश में अब तक यूनिफॉर्म सिविल कोड नहीं बन पाया है. 

संविधान सभा में भी हुई थी चर्चा

संविधान सभा में इस पर व्यापक बहस हुई थी. कुछ सदस्य इसे मूल अधिकार में रखने के पक्ष में भी थे. संविधान सभा में 23 नवंबर, 1948 को इस पर विस्तार से बहस हुई. मोहम्मद इस्माइल, नज़ीरुद्दीन अहमद, महबूब अली बेग साहिब बहादुर, हुसैन इमाम ने समान नागरिक संहिता से जुड़े अनुच्छेद में संशोधन का प्रस्ताव पेश किया.

इन लोगों का कहना था कि सिविल मामलों में हर शख्स को अपने धर्म के मुताबिक आचरण करने की छूट होनी चाहिए. किसी भी वर्ग या समुदाय के लोगों को अपना निजी कानून छोड़ने के लिए मजबूर नहीं किया जाना चाहिए. केएम मुंशी और अल्लादी कृष्णास्वामी अय्यर ने समान संहिता के पक्ष में दलील दी थी.

संविधान निर्माण में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले डॉ. बीआर आंबेडकर भी समान नागरिक संहिता के समर्थन में थे. आंबेडकर का तर्क था कि देश में महिलाओं को समानता का अधिकार दिलाने के लिहाज से धार्मिक आधार पर बने नियमों में सुधार बेहद जरूरी है. आजाद भारत में महिलाओं की स्वतंत्रता और समानता के लिए आंबेडकर ने समान नागरिक संहिता को बेहद जरूरी बताया था. बाद में इसे नीति निर्देशक तत्त्व के अन्दर शामिल कर उस वक्त राज्य को हर कीमत पर लागू करने की संवैधानिक बाध्यता से बचा लिया गया.

हिंदू, बौद्ध, जैन और सिख के लिए बने कानून

मुस्लिम नेताओं के भारी विरोध के कारण देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू समान नागरिक संहिता पर आगे नहीं बढ़े. हालांकि 1954-55 में भारी विरोध के बावजूद हिंदू कोड बिल लेकर आए. हिंदू विवाह कानून 1955, हिंदू उत्तराधिकार कानून 1956, हिंदू दत्तक ग्रहण और भरण-पोषण कानून 1956 और हिंदू अवयस्कता और संरक्षकता कानून 1956 लागू हुए. इससे हिंदू, बौद्ध, जैन और सिख समुदायों के लिए शादी, तलाक, उत्तराधिकार, गोद लेने जैसे नियम संसद में बने कानून से तय होने लगे. लेकिन मुस्लिम, ईसाई और पारसियों को अपने -अपने धार्मिक कानून के हिसाब से शादी, तलाक, उत्तराधिकार जैसे मुद्दे को तय करने की छूट बरकरार रही.

यूनिफॉर्म सिविल कोड के पक्ष में तर्क

इस कोड के पक्षधर लोगों का कहना है कि संविधान की प्रस्तावना में शामिल समानता और बंधुत्व का आदर्श तभी पाया जा सकता है, जब देश में हर नागरिक के लिए एक समान नागरिक संहिता हो. 42वें संविधान संशोधन के जरिए भारतीय संविधान की प्रस्तावना में पंथनिरपेक्ष शब्द जोड़ा गया. इसके तहत सरकार किसी भी धर्म का समर्थन नहीं करेगी.

कोड के पक्ष में दलील दी जाती है कि धार्मिक आधार पर पर्सनल लॉ होने की वजह से संविधान के पंथनिरपेक्ष की भावना का उल्लंघन होता है. संहिता के हिमायती यह मानते हैं कि हर नागरिक को अनुच्छेद 14 के तहत कानून के समक्ष समानता का अधिकार, अनुच्छेद 15 में धर्म, जाति, लिंग के आधार पर भेदभाव की मनाही और अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और निजता के संरक्षण का अधिकार मिला हुआ है.

उनकी दलील है कि यूनिफॉर्म सिविल कोड के अभाव में महिलाओं के मूल अधिकार का हनन हो रहा है. शादी, तलाक, उत्तराधिकार जैसे मुद्दों पर एक समान कानून नहीं होने से महिलाओं के प्रति भेदभाव हो रहा है. इन लोगों का तर्क है कि लैंगिक समानता और सामाजिक समानता के लिए समान नागरिक संहिता होनी ही चाहिए.

पक्ष में तर्क देने वाले लोगों का कहना है कि मुस्लिम समाज में महिलाएं धर्म के आधार पर चल रहे पर्सनल लॉ की वजह से हिंसा और भेदभाव का शिकार हो रही है. इन महिलाओं को बहुविवाह और हलाला जैसी प्रथाओं का दंश झेलना पड़ रहा है. 

यूनिफॉर्म सिविल कोड के विरोध में तर्क 

अल्पसंख्यक समुदाय के लोग यूनिफॉर्म सिविल कोड का खुलकर विरोध करते आए हैं. आजादी के बाद से ही मुस्लिम समाज इसे उनके निजी जीवन में दखल का मुद्दा मानता रहा है. विरोध में तर्क देने वाले लोगों का कहना है कि संविधान के मौलिक अधिकार के तहत अनुच्छेद 25 से 28 के बीच हर शख्स को धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार मिला हुआ है. इसलिए हर धर्म के लोगों पर एक समान पर्सनल लॉ थोपना संविधान के साथ खिलवाड़ करना है.

मुस्लिम इसे उनके धार्मिक मामलों में दखल मानते हैं. ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (AIMPLB) हमेशा से यूनिफॉर्म सिविल कोड को असंवैधानिक और अल्पसंख्यक विरोधी बताता रहा है. ये बोर्ड दलील देता है कि संविधान हर नागरिक को अपने धर्म के मुताबिक जीने की अनुमति देता है. इसी अधिकार की वजह से अल्पसंख्यकों और आदिवासी वर्गों को अपने रीति-रिवाज, आस्था और परंपरा के मुताबिक अलग पर्सनल लॉ के पालन करने की छूट है.

बोर्ड का तर्क है कि संविधान के अनुच्छेद 371(A-J) में देश के आदिवासियों को अपनी संस्कृति के संरक्षण का अधिकार हासिल है. अगर हर किसी के लिए समान कानून लागू किया जाएगा तो देश के अल्पसंख्यक समुदाय और आदिवासियों की संस्कृति पर असर पड़ेगा.

आम सहमति बनाने की है जरूरत

समान नागरिक संहिता के रास्ते में वोट बैंक की राजनीति एक बड़ी बाधा रही है. भारत में इस पर आम सहमति बनाने की जरूरत है. मुस्लिम वोट बैंक के नुकसान के डर से शुरू से कांग्रेस कभी खुलकर इसके पक्ष में नहीं बोलती है. कांग्रेस का कहना है कि सिर्फ राजनीतिक फायदे और ध्रुर्वीकरण के लिए बीजेपी इसे मुद्दा बनाती रही है. कांग्रेस आरोप लगाती रही है कि जब-जब चुनाव का वक्त आता है, बीजेपी इस मुद्दे को हवा देती है.

कांग्रेस प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा था कि राजनीतिक हथकंडा बनाने की बजाय केंद्र सरकार को इस पर गंभीरता से सहमति बनाने की कोशिश करनी चाहिए. देश में इसे लागू करने के लिए संविधान में संशोधन की जरूरत होगी. बीजेपी को संसद से इसे कानून बनाने के रास्ते में आने वाली अड़चनों का अहसास है. वो चाहती है कि धीरे-धीरे इस मसले पर लोग आगे आएं और इस पर बहस करें. उसके बाद ही संसद में पूरे देश के लिए एक समान नागरिक संहिता बनाने की पहल की जाए.

जिस तरह से बीते कुछ महीनों में बीजेपी विधानसभा चुनावों में इस मुद्दे को प्रमुखता से उठा रही है, उससे देश के एक बड़े वर्ग को लगता है कि 2024 के लोक सभा चुनाव से पहले भारत में समान नागरिक संहिता लागू होने का रास्ता खुल सकता है. 

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