राम नाम वाली अंगूठी



कहा जाता है कि टीपू सुल्तान के पास राम नाम वाली एक अंगूठी थी जिसे वह पहने रहते थे. 41 ग्राम खालिस सोने से बनी ये अंगूठी उनके लिए बेहद खास थी और वह हमेशा इसे पहने रहते थे. माना जाता है कि उनकी मौत के बाद एक अंग्रेज अफसर ने उनकी लाश से यह अंगूठी चोरी कर ली थी. अब यह अंगूठी एक नीलामघर के पास है.


christies.com की वेबसाइट पर विस्तार से इस अंगूठी के बारे में बताया गया है. हालांकि टीपू से इसका कोई सीधा संबंध तो नहीं लिखा गया है लेकिन मेजर जनरल लॉर्ड फिट्जरॉय के पास से इसकी बरामदगी बताई गई है. ये अंग्रेज अफसर वही था जिसने टीपू की लाश से इस अंगूठी को उतार लिया था.


मिसाइलमैन टीपू



टीपू के पिता हैदर अली ने सिग्नल प्रणाली विकसित की थी. सिग्नल देने के लिए रॉकेट का इस्तेमाल किया जाता था. टीपू ने पिता की विरासत को आगे बढाया और थोड़ा बड़े रॉकेट बनाए. उसने इन रॉकेट के साथ तलवारनुमा हथियार भी बंधवाए. सैंकडों की तादाद में यह रॉकेट विरोधी सेना पर कहर बन कर गिरते थे और उनका हौंसला तोड़ देते थे.


पूर्व राष्ट्रपति स्वर्गीय एपीजे अब्दुल कलाम ने अपनी किताब ‘अग्नि की उड़ान’ में लिखा है, जब सन 1799 में टीपू सुल्तान युद्ध में मारा गया तब अंग्रेजों की सेना ने 700 से ज्यादा रॉकेट और 900 रॉकेटों की उप प्रणालियां उसके जखीरे से बरामद की थी."


उन्होंने आगे लिखा है कि उसकी सेना में 27 ब्रिगेड थीं जिन्हें ‘कुशनू’ कहा जाता था और हर ब्रिगेड में एक रॉकेट कंपनी थी. इसे ज़र्क्स के नाम से पुकारा जाता था. इन रॉकेटों को बाद में विलियम कांग्रेव इंग्लैंड ले गया और इस तरह ये ब्रिटेन के हो गए.


टीपू के हथियार



ब्रिटेन के नीलामघर बोनहैम्स की वेबसाइट bonhams.com पर टीपू सुल्तान की तलवार की जानकारी दी गई है. सोने की मूठ वाली इस तलवार पर बाघ की आकृति बनी हुई है. वेबसाइट के मुताबिक मैसूर और अंग्रेजों के बीच चौथी लड़ाई के दौरान यह तलवार बरामद की गई थी. इसमें रूबी व अन्य जवाहरात जड़े हैं. इस तलवार को विजय माल्या ने करीब 5 करोड़ रुपये में नीलामी के दौरान खरीद लिया था.


टीपू की एक तोप भी इस नीलामघर के पास है जो काफी कीमती है. इस तोप का इस्तेमाल भी अंग्रेजो से युद्ध के लिए किया गया था. अंग्रेस इस तोप की भव्यता देख कर हैरान रह गए थे और अपने साथ ही इसे ले गए थे.


अंग्रेजों का दुश्मन


टीपू सुल्तान को शेर और बाघ बहुत पसंद थे. वह कहा करते थे कि जीवन बेशक एक दिन का हो लेकिन शेर के जैसा हो. टीपू को मैसूर टाइगर भी कहा जाता है. वह अंग्रेजों से शेर की तरह लड़े और अपने राज्य की हिफाजत करते हुए उन्होंने जान दे दी.


वह चाहते तो अंग्रेजों के साथ मिल सकते थे लेकिन उन्होंने अंग्रेजों के सामने घुटने नहीं टेके और ब्रिटिश कंपनी का सामना करने के लिए पुर्तगालियों से भी मदद ली. कई मुठभेड़ों में वह अंग्रेजों पर भारी भी दिखे लेकिन अंग्रेजी बंदूकों के सामने उनकी सेना टिक नहीं सकी.


मैदान से भागे नहीं


कहा जाता है कि अंतिम समय में वह मैदान से भागकर अपनी जान बचा सकते थे लेकिन उन्होंने भागने से इंकार कर दिया. टीपू सुल्तान से कहा गया कि आप सुरंग के रास्ते से निकल जाइए लेकिन टीपू ने मैदान में डटे रहने का फैसला किया. उन्होंने आत्मसमर्पण भी नहीं किया और युद्ध के मैदान में जान दे दी.