यूपी: 'यहीं पर एक अदबिस्तान बसता है मियां इस लखनऊ में पूरा हिन्दुस्तान बसता है.' नवाबों के शहर लखनऊ में आप अक्सर शान से कहते हुए लोगों को सुनते होंगे. 'पहले आप...पहले आप' का किस्सा तो आपने सुना ही होगा. आपके मानसिक मानचित्र पर लखनऊ का छाप तमीज और तहजीब के साथ नवाबों के किस्सों से भरा पड़ा होगा.
लखनऊ के नवाबों की कुछ अलग ही कहानी हैं. इनकी रईसी के चर्चे आज भी होते हैं. आपको जानकर हैरानी होगी कि अवध के आखिरी नवाब वाजिद अली शाह की 375 पत्नियां थीं. इनमें कुछ के नाम के अंत में 'महल', 'बेगम' और 'खिलावतिस' लगा होता था. अब इन उपनामों का भी एक अपना दायरा और खास महत्व हुआ करता था. जिन पत्नियों के नाम के आखिरी में 'महल' लगा होता था, वे बच्चों को जन्म देने के साथ पालन पोषण करती थीं. वहीं, 'बेगम' बच्चों को जन्म नहीं देती थीं और इन्हें घूंघट नहीं करना पड़ता था. इसके अलावे घर के कामकाज का जिम्मा 'खिलावतिस' के कंधों पर हुआ करता था.
कहा जाता है कि लखनऊ के दिन की शुरुआत खुशबुओं से और शाम घुंघरुओं की खनखनाहट के साथ दस्तक देती थीं. यही वजह है कि शाम-ए-अवध यूं ही दुनिया भर में मशहूर है. लखनऊ के नवाब कभी अच्छे लड़ाके तो नहीं कहलाए, लेकिन वे शौकीन मिज़ाज और कला प्रेमी जरूर रहे. आर्किटेक्चर के मामले में भी उनका अपना अलग ही अंदाज था. नवाबों के दौर में बने हर महल, कोठी, इमामबाड़े या मक़बरे पर मछली की नक्काशी जरूर मिलती है. लखनऊ के लोगों में जो अदब और तहज़ीब कूट-कूट कर अब तक भरी हुई है, उसका बहुत कुछ श्रेय इन नवाबों को भी जाता है.
लखनऊ के नवाबों के क़िस्से आज भी दुनिया भर में मशहूर हैं. 'नवाबी ठाठ' और 'नवाबी शौक' जैसे जुमले आज हर जुबान से सुनने को मिल जाते हैं. लखनऊ के बारे में ऐसा कहा जाता है कि वह आजादी से पहले बंगाल, मद्रास और बम्बई प्रेसीडेंसी के ज़्यादा अमीर था. नवाबों को सालाना लाखों रुपए मिलते थे जिससे उनकी ख़ूब ऐश थी. ऐसे ही माहौल में महलों में घुंघरू बजते थे, जाम खनकते थे और शेर-ओ-शायरी के दौर चलते थे. यही सब वजहें उस दौर में लखनऊ की शाम को बेहद खास बनाती थी और अब नवाबों का दौर गुजर जाने के बाद भी उसकी यादें लखनऊ के जेहन में ताजा हैं.
यहां की हिंदी में जो लखनवी अंदाज़ है वह दुनियाभर में मशहूर है. शाम -ए -अवध तो अब सिर्फ किस्सों में ही रह गया है लेकिन जिन लोगों ने लखनऊ की शामों को खूब नज़दीक से देखा है उनके लिए अब भी वह किस्सा भुलाये नहीं भूलता है. इसलिए जब कभी लखनऊ जाइए तो मुस्कुराइए कि आप लखनऊ में हैं. विविधताओं से भरे यूपी में जहां लखनऊ की शाम गुलजार कही जाती है वहीं, बनारस की धरती पर सुबह के सूरज की किरणें अपनी लाली से धर्म और आध्यात्म के इतिहास को रौशन की करती है.
सुबह-ए-बनारस
बनारस के बारे में गालिब ने लिखा है- 'त आलल्ला बनारस चश्मे बद्दूर, बहिश्ते खुर्रमो फ़िरदौसे मामूर'. इसका अर्थ है, हे इश्वर, बनारस को बुरी नजर से दूर रखना क्योंकि यह आनन्दमय स्वर्ग है. भारत की सांस्कृतिक राजधानी और दुनिया का सबसे पुराना जीवंत शहर बनारस अपनी धुन में जीने वाला शहर है. यहां पर कई धर्मों का संगम है. यहां पर चार्वाक भी हैं तो यहीं पर सनातनी भी हैं. चार्वाक जहां भौतिकता में डूब कर जीने की राह दिखाते हैं वहीं, सनातनी आत्मा की अमरता और पुनर्जन्म की राह दिखाते हैं. बनारस के घाट हजारों सालों की संस्कृति को अपने आप समेटे हुए हैं.
हजारों साल की संस्कृति को अपने आप में समेटे बनारस के घाट आज भी उस दौर की दास्तान सुनाते हुए मालूम पड़ते हैं. मंदिरों की घंटियों से लेकर घाटों की आरती की गूंज बनारस की गलियों की एक अबोध बालक की तरह हर जगह विचरते मिल जाएंगे. अपने जीवन के अंतिम क्षणों में लोग बनारस के मुक्ति भवन मोक्ष प्राप्त करने आते हैं.
बनारस में एक ओर जहां मन्दिरों की घंटियों की आवाजें गूंजा करती हैं, वहीं सूर्योदय के पहले से ही बनारस की हर गली और सड़क पर, फुटपाथों पर, दुकान की पटरियों पर सोयी हुई जीवित लाशें कुनमुना उठती हैं. दशाश्वमेध घाट और गंगा आरती के विहंगम और मनमोहक दृश्यों वाली काशी की सुबह मन मोहने वाली होती है. दशाश्वमेध और अस्सी घाट के बीच का फ़ासला कुछ ही किलोमीटर का होगा लेकिन यहां तक आते आते पूरी की पूरी संस्कृति बदल जाती है.
बनारस अपने तमाम रसों से सराबोर हर सुबह सूरज की पहली किरण के साथ जागता है. अल्हड़ और मस्त अंदाज़ के साथ साहित्य और संस्कृति का अनोखा मेल अस्सी घाट पर देखने को मिलता है.
आठ-आठ घंटे स्पीड के साथ माला फेरते हुए भक्त, ध्यान में मग्न भक्तिनें, कमंडल में अक्षत-फूल लिये संन्यासियों का समूह, मन्त्रों का पाठ करती और दक्षिणा संभालती हुई पंडों की जमात, साफा लगाने वाले लड़कों की भीड़ और बाबा भोलेनाथ की शुभकामनाओं का संदेश आपको काशी के घाटों के किनारे सुबह देखने को मिलेगा.
नोट: अाज का दिन यूपी दिवस के रूप में ंमनाया जा रहा है.