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Upendra Kushwaha: आए और गए, जेडीयू में कितने नफा-नुकसान में रहे उपेंद्र कुशवाहा?

Upendra Kushwaha Explained: दो साल पहले नीतीश कुमार के साथ आए उपेंद्र कुशवाहा एक बार फिर जेडीयू से अलग हो गए हैं. इन दो वर्षों में उन्होंने क्या खोया-पाया, आइए जानते हैं.

Upendra Kushwaha Exit From JDU and His Political Journey: जेडीयू में लगभग दो साल पहले अपनी पार्टी का विलय करने वाले उपेंद्र कुशवाहा (Upendra Kushwaha) ने नीतीश कुमार खेमे का साथ छोड़ दिया है. कथित तौर पर लंबे वक्त से बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार (Nitish Kumar) से उनकी अनबन चल रही थी. सोमवार (20 फरवरी) को उपेंद्र कुशवाहा ने औपचारिक तौर पर जेडीयू (JDU) से अलग होने का एलान किया, साथ ही फिर से नई राजनीतिक पार्टी बनाने की घोषणा की. उन्होंने अपनी नई पार्टी को 'राष्ट्रीय लोक जनता दल' (RLJD) नाम दिया है. 

हाल के बयानों में उपेंद्र कुशवाहा बीजेपी में जाने से मना करते रहे हैं लेकिन उन्होंने जेडीयू से विदा होते वक्त प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) की तारीफ की है. पूर्व का उनका इतिहास दल-बदल और जमीन पर एक खास वर्ग का वोट बैंक जुटाने के लिए संघर्ष करने का रहा है. आने वाले दिनों में उनकी राजनीति कौन सा करवट लेगी, इसका जवाब भविष्य के गर्भ में है लेकिन जब मुख्यमंत्री नीतीश कुमार महागठबंधन सरकार को एक सूत्र में पिरोए रखने और 2024 के लोकसभा चुनाव में मोदी का विकल्प बनने की कथित स्पर्धा में समर्थन जुटाने की कोशिश में दिन-रात लगे हैं, ऐसे में उपेंद्र कुशवाहा का उनसे अलग होना राजनीतिक पंडितों को नया राजनीतिक समीकरण सोचने को मजबूर कर रहा है क्योंकि कुशवाहा ने नई पार्टी बनाने की घोषणा की है. कुशवाहा जेडीयू में आए और गए, इस दौरान वह कितने नफा-नुकसान में रहे और उनकी राजनीतिक कुंडली क्या है, आइए जानते हैं सबकुछ.

उपेंद्र कुशवाहा का राजनीतिक सफर

63 वर्षीय उपेंद्र कुशवाहा का राजनीतिक सफर लगभग चार दशक पहले शुरू हुआ था. इससे पहले वह बिहार के समता कॉलेज के राजनीति विभाग में लेक्चरर की नौकरी करते थे. वह पटना साइंस कॉलेज से ग्रेजुएट हुए थे और फिर मुजफ्फरपुर के बीआर अंबेडकर विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान में एमए किया था. उन्होंने सियासी सफर की शुरुआत 1985 में युवा लोकदल से की थी. 1985 से 1988 तक वह युवा लोकदल के प्रदेश महासचिव रहे. 1988 से 1993 तक वह युवा जनता दल के राष्ट्रीय महासचिव रहे. 1994 से 2002 तक उन्होंने समता पार्टी के महासचिव के रूप में काम किया.

चुनावी राजनीति की शुरुआत कुशवाहा ने 2000 में जंदाहा सीट से जीतकर की थी. वह समता पार्टी के उम्मीदवार के तौर पर जीते थे. 2005 के विधानसभा चुनाव में उपेंद्र कुशवाहा जेडीयू के साथ थे लेकिन अपनी सीट पर चुनाव हार गए थे. 2007 में उन्होंने जेडीयू का साथ छोड़ दिया और फरवरी 2009 में राष्ट्रीय समता पार्टी की स्थापना की.

उन्होंने बिहार के कोइरी और कुर्मी समाज में अपनी पैठ बनाने की कोशिश की. अक्टूबर 2009 में नीतीश कुमार ने कुशवाहा को जेडीयू में वापसी करने का आमंत्रण दिया. अगले साल कुशवाहा को नीतीश ने राज्यसभा सांसद बनाया. 2013 में कुशवाहा जेडीयू से फिर अलग हो गए और राष्ट्रीय लोक समता पार्टी बनाई. 2018 में कुशवाहा और बिहार के नेता अरुण कुमार के साथ आने से नई पार्टी राष्ट्रीय जनता दल (सेक्युलर) का गठन हुआ. 

कुशवाहा दो बार जेडीयू से अलग होकर अपनी पार्टी का गठन कर चुके हैं, अब तीसरी बार अलग होकर पार्टी बनाने जा रहे हैं. दो बार वह चुनकर विधानसभा और लोकसभा पहुंचे. 2000 में वह समता पार्टी के प्रत्याशी के रूप में वैशाली की जंदाहा विधानसभा सीट से विधायक बने थे और 2014 के लोकसभा चुनाव में वह काराकाट सीट जीतकर सांसद बने थे. इसके अलावा वह विधान परिषद और राज्यसभा सांसद रहे हैं. अब तक के अपने सियासी सफर में कुशवाहा ने आरजेडी, बीएसपी, एआईएमआईएम, एसजेडीपी और ओपी राजभर के साथ मिलकर ग्रैंड डेमोक्रेटिक सेक्युलर फ्रंट के साथ राजनीतिक पारी खेली है. 

जेडीयू में कितने नफा-नुकसान में रहे उपेंद्र कुशवाहा?

कुशवाहा ने 14 मार्च 2021 को अपनी राष्ट्रीय लोक समता पार्टी का विलय जेडीयू में किया था. इस विलय के दौरान कुशवाहा का राजनीतिक वजूद काफी कमजोर था. उनकी पार्टी के लोग आरजेडी में चले गए थे और अकेले रह गए कुशवाहा जेडीयू में आ गए थे. नीतीश ने राज्यपाल कोटे से कुशवाहा को एमएलसी बनाकर उनकी मदद की थी. नीतीश ने उन्हें जेडीयू के संसदीय बोर्ड का अध्यक्ष बनाया. बताया जाता है कि कुशवाहा नीतीश कैबिनेट में मंत्री पद की उम्मीद पाले हुए थे. यह उम्मीद कथित तौर पर तब जोर पकड़ गई थी जब नीतीश कुमार महागठबंधन का हिस्सा बने और फिर से मंत्रिमंडल का गठन हुआ लेकिन उम्मीद पर पानी फिर गया.

बताया जाता है कि वह उपमुख्यमंत्री पद का सपना भी देख रहे थे लेकिन तेजस्वी यादव को डिप्टी सीएम बनाए जाने से उनका सपना, सपना ही रहा. उपेंद्र कुशवाहा जेडीयू में किसी शीर्ष पद की तलाश में थे लेकिन राजीव रंजन उर्फ ललन सिंह जब दूसरी बार पार्टी अध्यक्ष बने तो तो यह मौका भी उनके हाथ से चला गया. कथित तौर पर पद की महत्वाकांक्षा पूरी नहीं होने पर उपेंद्र कुशवाहा का जेडीयू से मोहभंग होने लगा था. 

कुशवाहा एक प्रकार से जेडीयू में खाली हाथ आए थे और खाली हाथ गए हैं. उनके पास अपने (भारतीय लोक समता पार्टी) विधायक सांसद नहीं बचे हैं. अरुण कुमार जैसे नेता भी उनके साथ नहीं हैं. फिलहाल कोइरी समाज के नेता भी उनके साथ नहीं देखे जाते हैं. 

यह भी पढ़ें- Shiv Sena Symbol Row: उद्धव ठाकरे का दावा, 'चुनाव चिह्न और नाम का चुराना पूर्व नियोजित था, पार्टी का पैसा किसी और को सौंपा गया तो...'

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